जिंदगी के फलसफां में नयी-नयी घटनाएं और रिश्ते निरंतर आ जुड़ते है फिर बिछड़ भी जाते हैं घटनाएं भुला दी जाती हैं और रिश्तों पर भी वक्त की दीमक लग जाती है और वो ख़त्म हो जाते हैं पर इनसे मिली अनुभूतियों की उम्र कुछ ज्यादा ही लंबी होती है...और वो अहसास कभी कसक बनकर, कभी हसीन याद बनकर, कभी नफरत, कभी उम्मीद और कभी एक अधूरा सपना बनकर जिंदा रहता है इस सबके बावजूद भी हर अनुभूति की भी एक एक्सपाइरी डेट होती है..क्या हक़ीकत में ऐसा होता है? क्या वक्त का इरेसर दिल की स्लेट पे से सब कुछ मिटा देता है? क्या तब भी लहलहा सकती है जज़्बातों की घास, रूह की जमीं पर..जब न मिल रहा हो उसे निकटताओं का खाद-पानी। बड़े पेचीदा प्रश्न है और इतने ही पेचीदा है इनके जबाव, जो अगर मिल भी जाये तो सबको सहमत कर सके इतनी हिम्मत नहीं होती उन जबावों में।
लुटेरा। विक्रमादित्य मोटवानी की एक दुखांत प्रेमकथा, मोटवानी इससे पहले उड़ान जैसी महान् फिल्म बना चुके हैं। इस साल की तीसरी कहानी जिसमें नायक-नायिका नहीं मिलते और संभवतः ये भी सफल फ़िल्म साबित होगी। नफरत, मोहब्बत, अपेक्षा-उपेक्षा की धूप-छांव से गुजरती फ़िल्म..प्रेम में किये गये समर्पण की पराकाष्ठा को प्रदर्शित करती है। आज की पीढ़ी के दर्शक को अतिरेक लग सकता है इसका क्लाइमेक्स.. लेकिन प्रेम कुछ ऐसा ही है जिसे समझ पाना हमेशा नामुमकिन रहा है।
जैसा कि फ़िल्म के नाम से पता चलता है कि कोई तो इसमें लुटेरा होगा...ऐसा ही है नायक एक चोर है जिसने कई बड़ी लूट की हैं और अपने गिरोह के मुखिया को अपने पिता तुल्य मानता है क्योंकि उसकी वजह से ही नायक पला-बढ़ा है। एक प्रोफेशनल लुटेरा, जो संवेदना और भावनात्मकता से कोसों दूर है और लोगों को अपना बनाके लूटता है। लेकिन इस बार वह गलत घर में डाका डाल बैठता है और खुद लुट जाता है। जी हाँ, एक प्रेक्टिकल लाइफ वाले के लिये प्रेम से बड़ी मूर्खता और कोई नहीं हो सकती। ये आपके व्यक्तित्व को तो प्रभावित करती ही है आपकी व्यवसायिक परिणति को भी कुंद कर देती है। यही होता है नायक के साथ भी, जो जिस जमींदार के घर में लूट के लिये जाता है उस जमींदार की बेटी से ही प्यार कर बैठता है और उसका काम उसे शादी करने, रिश्ता जोड़ने की इज़ाजत नहीं देता। वो अपने प्रेम को छोड़ अपने काम को चुनता है। उसकी ये लूट और धोखा जमींदार और उसकी बेटी दोनों को तोड़ देते हैं। जमींदार की शारीरिक मौत और नायिका की भावनात्मक मौत का जिम्मेदार, नायक बन चुका है।
जिस शिद्दत से नायिका पहले नायक को चाहती थी उतनी ही शिद्दत से अब वो उससे नफ़रत करती है पर असल में मोहब्बत के बाद नफरत नहीं, उपेक्षा जन्म लेती है...और इसकी बानगी हम पिछली फ़िल्म रांझणा में भी बखूब देख चुके हैं। सालों बाद लुटेरा फिर उस जगह पहुंचता है जहाँ नायिका है, दरअसल नायिका ने ही अपनी नफ़रत निकालना चाही है इस लुटेरे पर..और वो खुद उसे पकड़वाने के षड़यंत्र में भागीदार है। नायक सालों से अपने प्यार के जज्बात और नायिका के संग वाला एक फोटो सुरक्षित दबाकर रखा था और साथ ही उसके दिल में सोये हुए थे पश्चाताप और आत्मग्लानि के अहसास..जो नायिका को धोखा देने के कारण पैदा हुए थे। इस दोबारा के मिलन में वो अहसास फिर जाग उठते हैं क्योंकि नजदीकियों की हल्की सी हवा भी उस सोई हूई फसल को फिर लहलहा देती है।
नायिका कतरा-कतरा बीमारी से लड़ते हुए और अपने दर के सामने लगे उस पेड़ को देख-देखकर जिंदा है जिस पेड़ को वो अपनी जिंदगी की परछाई मान बैठी है..अब उसका संकल्प है कि जिस दिन इस पेड़ का आखिरी पत्ता गिरेगा वही दिन नायिका के जीवन का आखिरी दिन होगा। पश्चाताप की आग में सुलगता हुआ नायक, जहाँ नायिका की सेवा करता है तो वहीं अपनी जान जोखिम में डाल उसकी कोशिश है उस पेड़ के आखिरी पत्ते को बचाने की। वो चाहे तो भाग सकता है इस सारे माहौल से, जिस माहौल में पुलिस से उसकी जान को हर-पल खतरा है। लेकिन प्रेम उसे कहाँ निकलने दे सकता है, यूं खुदगर्ज बनकर। नायिका से सीखी चित्रकला से वो अपने जीवन की सर्वोत्तम कलाकृति बनाता है जिसे उसके जाने के बाद भी याद रखा जाएगा...और वो कलाकृति है वृक्ष का वही आखिरी पत्ता। जिसे तूफानों के बीच भी उस वृक्ष पर चस्पा कर नायक मुस्काते हुए अपनी जान देता है क्योंकि उसे खुशी है अपने प्यार को जिंदगी के कुछ रोज़ और देने की। अब वो मोहब्बत के गहन भावों से बना पत्ता, नायिका को कुछ सांसे और देगा..और यही पत्ता नायक की अंतिम श्वांस को सार्थक करेगा।
बड़ी रुमानी फ़िल्म है मानो लगता है किसी क्लासिक कविता को मंद-मंद सुन रहे हों...हालांकि इसका क्लाइमेक्स एक हॉलीवुड फिल्म से विधिवत् रोयल्टी देकर खरीदा गया है पर उसका प्रस्तुतिकरण मोटवानी का अपना है। रणबीर सिंह ने अपनी प्रकृति से विपरीत मगर उम्दा और संतुलित अभिनय किया है...बंगाल और पचास के दशक को बखूब फिल्माया गया है कुछ चूकें हुई हैं पर फिल्म के नाजुक रेशे के सामने वो नाकाफी है। सारे गीत बैकग्राउंड में बजते है पर सभी लाजबाव हैं। सोनाक्षी सिन्हा तेजी से आगे बढ़ रही है और उनकी पिछली फ़िल्मों के बनिस्बत इस फिल्म में उन्हें अभिनय करने की ज्यादा संभावना हासिल हुई हैं और उन्होंने ये काम बेहतरी से किया भी है। दुखांत होने पर भी अंतिम दृश्य सुखांत सी अनुभूति देते हैं, इस साल बॉलीवुड के सुर बदले-बदले से लग रहे हैं और वो मिलन से परे, दूरियों के बावजूद इश्क के अस्तित्व को बेहतरी से फिल्मा रहा है। शायद ये परिवर्तन की एक बयार है। मैनें जनवरी में सफल प्रेम कहानियों पर एक लेख लिखा था हिन्दी सिनेमा में सफल प्रेम कहानियों का दर्शन। जिसमें मिलन को प्रेम की परिचायक बताकर मैनें हिन्दी सिनेमा को यथार्थ से दूर बताया था पर इस साल की प्रदर्शित ये तीन सफल फ़िल्में (आशिकी 2, रांझणा, लुटेरा) मेरी उस मानसिकता को बदल रही है। बदलाव हो रहा है तारीफ करना चाहिये।
बहरहाल, मेरी ये समीक्षा पढ़कर फ़िल्म देखने का निर्णय मत लीजिये क्योंकि मेरे पीछे बैठे दर्जनों दर्शकों के लिये लुटेरा एक बकवास फ़िल्म थी। सिनेमा के मामले में मेरी अपनी पसंद है और आप भी उससे इत्तेफाक रखें ये जरूरी नहीं.....
रोचक समीक्षा...
ReplyDeleteधन्यवाद प्रवीण जी...
Deleteजिंदगी की शाख पर उम्मीदों का आखिरी पत्ता
ReplyDeleteहमारा तो ज्यादा मन नहीं है देखने का...एक तो दुखांत है :-(
ReplyDeleteदूसरा हीरो की मूछें ज़रा नहीं भाईं...
तीसरा the last leaf is my all time favourite story और उसके ट्रीटमेंट में ज़रा भी कमी हमसे बर्दाश्त न होगी...
"बड़ी रुमानी फ़िल्म है मानो लगता है किसी क्लासिक कविता को मंद-मंद सुन रहे हों"
हाँ तुम्हारी ये लाइन शायद हमारा निर्णय बदल दे...
बढ़िया समीक्षा..
अनु
अनुजी एक खास सिनेमाई पसंद के दर्शक के लिये बेहतरीन फ़िल्म है...मैं तो कहुंगा आप ज़रूर देखिए...धन्यवाद प्रतिक्रिया के लिये।।
Deleteजिंदगी की शाख पर उम्मीदों का आखिरी पत्ता
ReplyDeleteमैं इसके लिये एक सही लाइन तलाश रहा था...जो तुमने मुझे दे दी
Deleteएक प्रेक्टिकल लाइफ वाले के लिये प्रेम से बड़ी मूर्खता और कोई नहीं हो सकती। ये आपके व्यक्तित्व को तो प्रभावित करती ही है आपकी व्यवसायिक परिणति को भी कुंद कर देती है।................लुटेरा पर आपकी समीक्षा का मैं इंतजार ही कर रहा था क्योंकि आपबीती वाले निखिल आनंद गिरि (http://bura-bhala.blogspot.in/2013/07/blog-post.html) ने भी लुटेरा की अच्छी समीक्षा की थी और उसको पढ़ते हुए मुझे खयाल आया था कि आप भी इस पर लिखेंगे। आप निखिल की समीक्षा भी पढ़ें। मैं भी उन्हें आपकी समीक्षा से अवगत कराऊंगा। ................बहुत सुन्दर समीक्षा।
ReplyDeleteधन्यवाद विकेश जी।। उनकी समीक्षा पढ़ी मैनें..यकीनन बेहतरीन लिखा है....
DeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDelete
ReplyDeleteलाजबाब,रोचक समीक्षा के लिए बधाई,अंकुर जी,,,,
ReplyDeleteभीड़ की आवाज सुनकर मैं पान सिंह तोमर जैसी ऐतिहासिक फिल्म न देखने की गलती कर चुका हूँ। लूटेरा जरूर देखूँगा। बहुत खूबसूरत शुरुआत की अंकुर आपने। फिल्म का प्रोमो ही इतना आकर्षक है कि देखने की इच्छा होती है। स्लो मोशन में डॉयलॉग वाली किसी फिल्म का प्रोमो पहली बार देखा। रणबीर और सोनाक्षी पर आपकी टिप्पणी एकदम सटीक लगी। दबंग में सोनाक्षी के लिए कुछ भी नहीं था एक लचर डॉयलॉग के, थप्पड़ से डर नहीं........... यह डॉयलॉग मुझे अब तक समझ नहीं आया है। सुंदर समीक्षा, आभार
ReplyDeleteसौरभ जी फिल्म आपको निराश नही करेगी..जरूर देखिए...
Deleteप्रेम कुछ ऐसा ही है जिसे समझ पाना हमेशा नामुमकिन रहा है।
ReplyDeleteरोचक समीक्षा के लिए बधाई,अंकुर जी!!:-)
Thnx sangeeta di for ur complement...
Deleteachchhi sameeksha kar lete hain aap .thanks
ReplyDeleteachchhi sameeksha kar lete hain aap .thanks
ReplyDeleteउत्तम समीक्षा!!
ReplyDeleteधन्यवाद समीरजी...
Deleteमैं तो यह फिल्म देखने जरुर जाऊँगी लेकिन पहले ऐसा विचार नहीं था ..... क्योकि रणवीर का लुक इसमें कुछ ठीक नहीं दिख रहा था लेकिन आप की समीक्षा के बाद तो देखने का मन बना रही हूँ आखिर क्लासिकल कविता को सुनना जो है.. बहुत अच्छी समीक्षा .
ReplyDeleteजरुर देखिये रंजनाजी...काफी मधुर अनुभूति का अहसास कराती है अपनी नाजुक प्रस्तुति से ये फिल्म...
Deleteथोड़ी सहमति आपके पीछे बैठे दर्जनों दर्शकों से, थोड़ी आपसे, लेकिन आपकी समीक्षा से पूरी सहमति.
ReplyDeleteधन्यवाद राहुल जी...
Deleteआपकी कलम अपना जादू जगा रही है ... इस समीक्षा में
ReplyDeleteबहुत ही बढिया ...
धन्यवाद सदाजी....
Deleteफिल्म अब जैसी भी हो ...आपकी समीक्षा एक दम सटीक और कसी हुई है !
ReplyDeleteमुबारक और शुभकामनायें आपके लेखन को ...
लाजवाब समीक्षा की है आपने .सच में ये फिल्म सेलुलाइड पर रची एक निहायत खूबसूरत रूमानी कविता है . मंथर गति से चलती फिल्म जिसमें नायक नायिका के फुसफुसा कर बोले संवाद कर्ण प्रिय संगीत और नयनाभिराम फोटो ग्राफी ने जान डाल दी है .आज के भागम भाग वाले युग में ऐसी फ़िल्में कहाँ देखने को मिलती हैं .
ReplyDeleteआज के युवा इस फिल्म से खासे नाराज़ दिखे। हमारे पीछे बैठे युवाओं का दल इंटर वल के बाद ये कहता फिल्म छोड़ गया की अगर लड़की का बाप शक्ति कपूर होता तो फिल्म में जान आ जाती .
नीरज