Saturday, October 30, 2010

व्यक्ति का सच और सच का सामना


स्टार प्लस पर एक सीरियल प्रसारित हुआ करता था-सच का सामना..जो खासा चर्चा में भी रहा था। इसके पक्ष-विपक्ष में चर्चा करने वाले जहाँ-तहां नुक्कड़-चौराहों पर नज़र आ जाया करते थे। राजनीतिक दहलीज पर भी इस सीरियल के खिलाफ स्वर मुखरित हुए। लेकिन आश्चर्य की बात ये थी की इस कार्यक्रम की निंदा करने वाले भी देर रत अपने बच्चों को सुलाकर इसका मज़ा लूटा करते थे। खैर....बात कुछ और करना है....

इन्सान की दिली ख्वाहिश होती है दूसरे के मन का सच जानने की, लेकिन अपने सच पर वो हमेशा पर्दा डालना चाहता है, क्योंकि हमाम के अन्दर हर इन्सान नंगा है। इन्सान की इसी मनोभावना ने इस सीरियल का संसार तैयार किया था....

मानवमन बीसियों अंतर्विरोधों से होकर गुजरता है और इन अंतर्विरोधों में वह अपने ही अन्दर के सच को नाही जान पाता, उसे अपनी हसरतों, जरूरतों का ही पता नहीं होता, बस ताउम्र यही चीज उसे तडपाती है कि something is actualy missing....

वो समथिंग क्या है ये उसे नहीं पता। एक इन्सान के कई रूप होते हैं वो एक ही जीवन में कई जीवन जीता है। अगले क्षण वो कैसा जीवन जियेगा ये पता नहीं होता। ऐसे में वो कैसे अपना सच जन पाएगा। सच का सामना सीरियल में इन्सान के उस रूप को बेनकाब किया जाता था जिसे समाज, नीति या चरित्र विरुद्ध माना जाता है। लेकिन व्यक्ति का वो चेहरा उसका शाश्वत चेहरा नहीं होता। शायद इसीलिये हम इन्सान के उस रूप से घृणा नहीं कर सकते।

आज का इन्सान ऐसी बहुरूपिया प्रवृत्ति का धारक है कि मंच पर नैतिकता कि दुहाई देता है तो बंद कमरे में नैतिकता का चीरहरण करता है। हर इन्सान को ये पता है कि दूसरे को कैसा जीवन जीना चाहिए पर ये नहीं पता कि खुद को कैसा जीवन जीना चाहिए। सब चाहते हैं बुद्ध, महावीर, गाँधी पैदा हों पर अपने घर में नहीं, पडोसी के घर में। जीवन भर इन्सान अपने नकाब बदलता रहता है इसीलिए किसी शायर ने कहा है-"हर इन्सान में होते हैं बीस-तीस आदमी, जब भी किसी को देखना बार-बार देखना"।

सच का सामना करने के लिए फौलादी जिस्म चाहिए। सच का आकांक्षी इन्सान जब सच से रु-ब-रु होता है तो पैरों तले जमीन खिसक जाती है। इसलिए लोग सच को कडवा कहते हैं। भाई, सच तो अति मधुर है अब यदि लोगों को फरेबी का बुखार होने से मूंह कडवा है तो कोई क्या कर सकता है। यदि जल निश्छल भाव से कंठ में उतरे तो प्यास बुझाता है अब यदि किसी के कान में जाकर वह कष्टकर हो तो इसमें जल का दोष नहीं।

सच की अभिव्यक्ति से ज्यादा जरुरी सच की स्वीकारोक्ति है। सच यदि अभिव्यक्त है तो स्वीकृत हो ये जरुरी नहीं पर यदि स्वीकृत है तो अभिव्यक्त होगा ही होगा।

बहरहाल, 'सच का सामना' सीरियल के सम्बन्ध में मैं कोई राय नहीं रखूँगा। उसका निर्णय आप अपनी रूचि अनुसार लें। दरअसल मीडिया वही दिखाता है जो हम देखना चाहते हैं। इसलिए मीडिया को नैतिकता कि नसीहत देना बेमानी होगी, टीवी का रिमोट हमारे हाथ में हैं। अब यदि आप खुद साउंड कम करके इंग्लिश चेनल देखते हैं तो आप अपनी गिरेबान में झांक कर देखें।

वैसे अच्छा ही है कि सच सबके सामने नहीं है यदि हर इन्सान पूर्णतः प्रकट हो जाये तो सारा आचार-विचार-व्यवहार हिल उठेगा, क्योंकि इंसानी मन-मस्तिष्क में साजिशों का सैलाब हिलोरें ले रहा है उन साजिशों का मंजर कितना भयावह हो सकता है इसका अंदाजा लगाना बहुत मुश्किल है। इस सन्दर्भ को समझने के लिए कमलेश्वर के उपन्यास 'कितने पाकिस्तान' को पढना चाहिए। जहाँ अमूर्त साजिशों के मूर्त होने कि कल्पना की गयी है।

हर विचार को शब्द न मिल पाना कहीं न कहीं बहुत अच्छा है। इन्सान के मैले विचार मन में ही घुमड़कर ख़त्म हो जाते हैं यदि ये प्रगट हो जाए तो पूरा माहौल ही मैला हो जाए। चलिए, बहुत बातें हुई इन बातों को बहुत बढाया जा सकता है पर कम कहा, अधिक समझना, और समझना हो तो ही समझना नहीं तो मेरी बकवास जानकर आप जैसे में मस्त हो वैसे रहना। मूल मुद्दा खुश रहने का है वो ख़ुशी जहाँ से मिले वहाँ से लीजिये। पर ध्यान रहे वह ख़ुशी महज कुछ समय कि नहीं होना चाहिए....तलाश शाश्वत सुख की करना है.......अनंत को खोजना है......

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