अभिव्यक्ति पूर्णतः अचेतन प्रक्रिया है जिसे चेतन इंसानी पुतलों ने अपना लिया है। शुभेच्छाए, प्यार, सम्मान, विनम्रता सब अभिव्यक्ति तक सीमित है। सूचनाएँ जीवन को अनुशाषित कर रही है पर नैतिक कोई नहीं हो रहा। अनुशाषन भी so called manners है। प्रैक्टिकल होने के उपदेश दिए जाते हैं, इमोशंस सबसे बड़ी कमजोरी बताई जाती है। डिप्लोमेटिक होने के लिए मैनेजमेंट की शिक्षा है सत्य को पर्स में दबाकर रखना ही समझदारी है। बस आप वही कहिये जो लोग सुनना चाहते हैं वह नहीं जो सुनाना चाहिए। गर्दन को सलामत रखना है तो सत्य छुपाकर रखिये।
भर्तहरी, चाणक्य, सुकनास के सिद्धांतो पर फेयोल और कोटलर कि शिक्षा भारी हो गयी है। रामायण और गीता के चीरहरण का दौर जारी है। संवेदन शुन्यता को परिपक्वता का पर्याय माना जाता है। ख़बरों की बाढ़ के चलते खबर का असर होना बंद हो गया है। गोयाकि बासी रोटी गरम करके बेंची जा रही है या गोबर की मिठाई पर चांदी की वर्क चढ़ी हुई है।
पढ़-सुनकर हम अच्छे वक्ता हो रहे है या फिर अच्छे लेखक, पर घटनाएँ अनुभूत नहीं हो रही है। प्रेम की परिभाषा रटने वाले या प्रेम पर पी एच डी करने वाले जीवन भर प्रेम से अछूते रहते हैं। तथाकथित प्रेमप्रदर्शन के तरीके ईजाद हो रहे हैं पर मौन रहकर महसूस किया जाने वाला उत्कृष्ट अहसास कहाँ हैं? मदर्स डे फादर्स वेलेंटाइन डे से लेकर कुत्ते-बिल्ली को पुचकारने वाले दिन तक उत्साह से सेलिब्रेट किये जा रहे हैं पर माँ-बाप का असल सम्मान नदारद है। प्रातःकालीन चरण स्पर्श पर ग्रीटिंग कार्ड्स का अतिक्रमण है। सम्मान के बदले गिफ्ट्स के लोलीपोप पकड़ा दिए जाते हैं। श्रवण कुमार को कौन याद करता है? तमाम ताम-झाम अभिव्यक्ति की मुख्यता से हैं।
अभिव्यक्ति की चकाचौंध में अनुभूति भी दूषित हो रही है। सहानुभूति शब्द सर्वाधिक बदनाम हो गया है। दुःख में सहानुभूति सांत्वना पुरुस्कार सरीखी लगती है एक sms, scrap या readymade email ही सहानुभूति के लिए काफी है। समझ नहीं आता इस अभिव्यक्ति में अनुभूति कहाँ है? विपदा में सहानुभूति तो बहुत मिल जाती है पर साथ नहीं मिलता। एक्सपेक्टेशन बहुत हावी हैं इंटेंशन पर। सहज प्रेम, करुणा, त्याग गयी गुजरी बात बन गये हैं।
उसूल सिर्फ बघारने के लिए हैं जिन पर ताली बजती है जीवन जीने के लिए 'सब चलता है' के जुमले बोले जाते हैं। किसी ने कहा भी है-"झूठ न कहें, चोरी भी न करें..पेट भरने के लिए क्या उसूल सेंककर खायेंगे" भैया उसूलों से चलकर पेट भर जाता है अलबत्ता पेटी न भर पाए। नवसंस्कृति मशीनी हो गयी है और मशीनों के अनुभूति नहीं होती। इस संस्कृति ने दादी-नानी को वृद्धाश्रम में छोड़ दिया है, पुराने साहित्य और पुराणों के पन्ने समोसे के नीचे पड़े हैं, पुरानी धरोहरें, इमारतें टूटकर कोम्प्लेक्स और शापिंग माल में बदल गयी हैं ऐसे में पुरा संस्कारों के समस्त स्त्रोत अपाहिज हो गए हैं।
बहरहाल, इस शुन्यता के माहौल में भी कहीं न कहीं भावनाओं का दीपक टिमटिमा रहा है जो राहत देता है। जो आधुनिकता की आंधी को ललकार रहा है ....और यही संवेदना, संस्कारो और भावनाओं का दिया मजबूर कर रहा है हमें आश्चर्य करने पर कि जो असंवेदना और संस्कारविहीनता के सूरज को सिद्धांतों की रौशनी दिखाने का उद्यम कर रहा है।
मामला सहानुभूति का नहीं है मामला है लोगों को उपनी संबेदना महज इस लिए प्रकट करनी है कि वे रेस में आगे रहें..सामने वाला ये समझता रहे कि वो तो सबसे करीब है..वो तो बहुत ख्याल रखते हैं लेकिन अकल में वे हमारी पीड़ा का ढिंढोरा पीट रहे होते हैं...शब्दों के अर्थ वही हैं केवल संदर्भों और मायने को लगातार बदलते जा रहे हैं....
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