ब्लॉग भ्रमण के दरमियाँ एक ख़ूबसूरत प्रेमपत्र मिला जिसे अपने ब्लॉग पर आप सबसे साझा कर रहा हूँ....ये टीस किसी एक की नहीं, प्रायः हर जवान दिल की हो सकती है...सुन्दर शब्दों के साथ अपने अहसासों को कागज पे उतारता ये प्रेमपत्र कई आशिकों का प्रतिनिधि हो सकता है-
प्रिये,
काफ़ी लंबे वक़्त बाद प्रेम पत्र लिखने का मौक़ा मिल रहा है, यक़ीन मानों. हां इतना ज़रूर है कि स्कूली दिनों में गुलाबी कागज़ों पर कलम चला लिया करता था.. लेकिन कामयाबी शायद ही कभी मिली हो... मिलती भी कैसे, वो ख़त या तो दोस्तों के ख़ातिर हुआ करता या फिर इकतरफ़ा आकर्षण की ज़ोर आजमाइश।। ख़ैर, आज मौक़ा मिला है,
ठिकाना भी मिला है... और ख़ुद के भावों को उकेरने का दस्तूर भी... सो लिख देता हूं।
पहला सवाल, कैसी हो... बिन मेरे। मैं तो हालात की तपिश और ज़िम्मेदारियों का भरम पाल बैठा हूं, लगा हुआ हूं.. चल रहा हूं... ज़िंदगी में कुछ हासिल करने की होड़ में ना-ना करते मैं भी शामिल हो ही गया। मैं वो वादा तोड़ चुका हूं, जिसमें तुमसे और सिर्फ़ तुमसे चाहत का क़रार हुआ था... ऐसा नहीं कि तुमसे मेरी चाहत में किसी भी तरह की कमी आई हो... हुआ तो बस इतना है कि मुझे एहसास हो गया है कि ज़िंदगी सिर्फ़ और सिर्फ़ माशूका की ज़ुल्फों तले नहीं गुज़ारी जा सकती। और भी कई हैं, जो मुझमें, खुद की उम्मीदें देखते हैं... और भी हैं जो ये सोचते हैं कि मैं हूं ना.... । कैसे उनकी उम्मीदों से छल कर लूं
, कैसे सिर्फ़ खुद की सोचूं, कैसे ये कह दूं कि मैं नहीं हूं।
ख़ैर, तुमसे मिले लंबा वक़्त गुज़र चुका है, इस बीच मैनें तो कुछ ख़ास हासिल नहीं किया लेकिन उम्मीद है तुम्हें वो सब मिल रहा होगा.. जिसकी ख़्वाहिश तुमने की थी। मैं उस वक़्त तो नहीं कह पाया, लेकिन यक़ीन मानो तुम्हारे जाने से जो खालीपन मेरी ज़िदंगी में आया है, जाने क्यों वो जाता ही नहीं। शायद मैं ही इस सूनेपन से दिल लगा बैठा हूं, वैसे ये भी है कि इस खालीपन ने मुझे हमेशा इस बात का एहसास कराया है कि जो मेरा है वो कितना ख़ास है, और उसके खो जाने या छूट जाने पर कितनी तकलीफ़ होती है। तुम समझ रही हो ना...। अरे, ये क्या कह रहा हूं, तुम भला क्यूं समझोगी... तुमने कभी समझा ही कहां... और मैं भी ना चाहते हुए, तुम्हे समझा ही तो रहा हूं। ख़ैर छोड़ो, हम क्यों उलझ रहे हैं,
लंबा वक़्त निकल गया पिछली उलझन को सुलझाने में। यक़ीनन तुम्हारे दिलों दिमाग़ में ये सवाल ज़रूर आया होगा कि मैनें तुम्हे ख़त लिखने का कैसे सोचा, कैसे तुम्हे उसी हक़ से प्रिये कहा... जवाब बड़ा आसान है, हालात तुम्हारे लिए बदले होंगे, लेकिन मैं तो अब भी उसी मोड़ पर खड़ा हूं। वक़्त के गुज़रते लम्हे भी मेरी चाहत को कम करने में बेअसर साबित हुए, यूं समझो कि किसी वीराने में खुद को पनाह देती पुरानी आहटें आज भी पुरअसर तरीके से गूंज रही हैं।
मैनें तो हर पल तुम्हे सोचा, मेरे ख़्वाब-ख़याल, मेरा मक़सद.. सभी कुछ तो तुमसे मिला था, तुम ही तो थीं जो मुझसे कहती थी कि फलां ठीक है, और फलां ग़लत... और मैं हमेशा की तरह कुछ नहीं कह रहा होता। लेकिन सच तो ये है कि मेरा आज उसी दौर में लिख दिया गया था... उन्ही ख़ुशगवार लम्हों ने आने वाले कल की इबारत लिख दी थी।
आज भी मेरे सच और झूठ, सही और ग़लत का पैमाना वही है जो तुमने सिखाया था। तुम भूल चुकी होगी, यक़ीनन तुम्हे याद न हो... लेकिन तुम्हारी हर बात अब मेरा किस्सा है। कुछ कमियां मैं आज भी दूर नहीं कर सका हूं
, शायद दूर करना भी नहीं चाहता... मुझे ताउम्र अफ़सोस रहेगा कि मैं तुम्हे वो भरोसा नहीं दिला सका जो तुम चाहती रही। जिस एक अफ़साने पर मोहब्बत टिकी होती है, वो अफ़साना कब शुरू हुआ, कहां जाकर ख़त्म भी हो गया, पता ही नहीं चला... अब सोचता हूं कि रिश्तों का जो ताना-बाना हमने बुना था, क्या वो इतना कमज़ोर था। नहीं वो कमज़ोर नहीं हो सकता.. फिर कैसे दरक गई ये दीवार, जिसकी नींव गुलशन से चुने गए ताज़े फूलों पर रखी गई थी। लगता है उन फूलों में पहले जैसी बात नहीं रही, लेकिन सुना तो कुछ और ही था कि मुहब्बत के बासी फूल ज़िंदा सांसों से भी ज़्यादा असर रखते हैं।
कभी हालात मेहरबां हुए तो उम्मीद करता हूं कि फ़िज़ां फिर बदलेगी, सूख चुके दरख़्तों पर फिर कोपलें खिलेंगी, अरसे से सन्नाटे का दामन थामे मेरे दरो-दीवार किसी आहट को महसूस करेंगे, तेज़ चलती आंधियों में खुद का वजूद तलाशते क़दमों के निशान फिर कहेंगे कि यहां भी कोई चलता है। बुलबुल फिर कब्रगाह बन चुके मेरे आशियाने का रुख़ करेगी। जब तुम आओगी तो देखोगी, वक़्त के लम्हे आज भी वहीं ठहरे हुए हैं जहां तुम उन्हे छोड़कर गईं थी। हां एक बात और मेरे आंगन के सबसे कोने में एक ईंट है, उसके नीचे सुनहरे रंग की डिब्बी में एक पर्चा लिखा मिलेगा, उसे पढ़ना.. सोचना... और हां आंसू मत छलकने देना... क्योंकि मैं अगर ज़िंदा होता तो शायद तुम्हे रोने न देता।
तुम्हारा
..............
साभार गृहीत- aapaskibat-nishant.blogspot.com
प्रिये,
काफ़ी लंबे वक़्त बाद प्रेम पत्र लिखने का मौक़ा मिल रहा है, यक़ीन मानों. हां इतना ज़रूर है कि स्कूली दिनों में गुलाबी कागज़ों पर कलम चला लिया करता था.. लेकिन कामयाबी शायद ही कभी मिली हो... मिलती भी कैसे, वो ख़त या तो दोस्तों के ख़ातिर हुआ करता या फिर इकतरफ़ा आकर्षण की ज़ोर आजमाइश।। ख़ैर, आज मौक़ा मिला है,
ठिकाना भी मिला है... और ख़ुद के भावों को उकेरने का दस्तूर भी... सो लिख देता हूं।
पहला सवाल, कैसी हो... बिन मेरे। मैं तो हालात की तपिश और ज़िम्मेदारियों का भरम पाल बैठा हूं, लगा हुआ हूं.. चल रहा हूं... ज़िंदगी में कुछ हासिल करने की होड़ में ना-ना करते मैं भी शामिल हो ही गया। मैं वो वादा तोड़ चुका हूं, जिसमें तुमसे और सिर्फ़ तुमसे चाहत का क़रार हुआ था... ऐसा नहीं कि तुमसे मेरी चाहत में किसी भी तरह की कमी आई हो... हुआ तो बस इतना है कि मुझे एहसास हो गया है कि ज़िंदगी सिर्फ़ और सिर्फ़ माशूका की ज़ुल्फों तले नहीं गुज़ारी जा सकती। और भी कई हैं, जो मुझमें, खुद की उम्मीदें देखते हैं... और भी हैं जो ये सोचते हैं कि मैं हूं ना.... । कैसे उनकी उम्मीदों से छल कर लूं
, कैसे सिर्फ़ खुद की सोचूं, कैसे ये कह दूं कि मैं नहीं हूं।
ख़ैर, तुमसे मिले लंबा वक़्त गुज़र चुका है, इस बीच मैनें तो कुछ ख़ास हासिल नहीं किया लेकिन उम्मीद है तुम्हें वो सब मिल रहा होगा.. जिसकी ख़्वाहिश तुमने की थी। मैं उस वक़्त तो नहीं कह पाया, लेकिन यक़ीन मानो तुम्हारे जाने से जो खालीपन मेरी ज़िदंगी में आया है, जाने क्यों वो जाता ही नहीं। शायद मैं ही इस सूनेपन से दिल लगा बैठा हूं, वैसे ये भी है कि इस खालीपन ने मुझे हमेशा इस बात का एहसास कराया है कि जो मेरा है वो कितना ख़ास है, और उसके खो जाने या छूट जाने पर कितनी तकलीफ़ होती है। तुम समझ रही हो ना...। अरे, ये क्या कह रहा हूं, तुम भला क्यूं समझोगी... तुमने कभी समझा ही कहां... और मैं भी ना चाहते हुए, तुम्हे समझा ही तो रहा हूं। ख़ैर छोड़ो, हम क्यों उलझ रहे हैं,
लंबा वक़्त निकल गया पिछली उलझन को सुलझाने में। यक़ीनन तुम्हारे दिलों दिमाग़ में ये सवाल ज़रूर आया होगा कि मैनें तुम्हे ख़त लिखने का कैसे सोचा, कैसे तुम्हे उसी हक़ से प्रिये कहा... जवाब बड़ा आसान है, हालात तुम्हारे लिए बदले होंगे, लेकिन मैं तो अब भी उसी मोड़ पर खड़ा हूं। वक़्त के गुज़रते लम्हे भी मेरी चाहत को कम करने में बेअसर साबित हुए, यूं समझो कि किसी वीराने में खुद को पनाह देती पुरानी आहटें आज भी पुरअसर तरीके से गूंज रही हैं।
मैनें तो हर पल तुम्हे सोचा, मेरे ख़्वाब-ख़याल, मेरा मक़सद.. सभी कुछ तो तुमसे मिला था, तुम ही तो थीं जो मुझसे कहती थी कि फलां ठीक है, और फलां ग़लत... और मैं हमेशा की तरह कुछ नहीं कह रहा होता। लेकिन सच तो ये है कि मेरा आज उसी दौर में लिख दिया गया था... उन्ही ख़ुशगवार लम्हों ने आने वाले कल की इबारत लिख दी थी।
आज भी मेरे सच और झूठ, सही और ग़लत का पैमाना वही है जो तुमने सिखाया था। तुम भूल चुकी होगी, यक़ीनन तुम्हे याद न हो... लेकिन तुम्हारी हर बात अब मेरा किस्सा है। कुछ कमियां मैं आज भी दूर नहीं कर सका हूं
, शायद दूर करना भी नहीं चाहता... मुझे ताउम्र अफ़सोस रहेगा कि मैं तुम्हे वो भरोसा नहीं दिला सका जो तुम चाहती रही। जिस एक अफ़साने पर मोहब्बत टिकी होती है, वो अफ़साना कब शुरू हुआ, कहां जाकर ख़त्म भी हो गया, पता ही नहीं चला... अब सोचता हूं कि रिश्तों का जो ताना-बाना हमने बुना था, क्या वो इतना कमज़ोर था। नहीं वो कमज़ोर नहीं हो सकता.. फिर कैसे दरक गई ये दीवार, जिसकी नींव गुलशन से चुने गए ताज़े फूलों पर रखी गई थी। लगता है उन फूलों में पहले जैसी बात नहीं रही, लेकिन सुना तो कुछ और ही था कि मुहब्बत के बासी फूल ज़िंदा सांसों से भी ज़्यादा असर रखते हैं।
कभी हालात मेहरबां हुए तो उम्मीद करता हूं कि फ़िज़ां फिर बदलेगी, सूख चुके दरख़्तों पर फिर कोपलें खिलेंगी, अरसे से सन्नाटे का दामन थामे मेरे दरो-दीवार किसी आहट को महसूस करेंगे, तेज़ चलती आंधियों में खुद का वजूद तलाशते क़दमों के निशान फिर कहेंगे कि यहां भी कोई चलता है। बुलबुल फिर कब्रगाह बन चुके मेरे आशियाने का रुख़ करेगी। जब तुम आओगी तो देखोगी, वक़्त के लम्हे आज भी वहीं ठहरे हुए हैं जहां तुम उन्हे छोड़कर गईं थी। हां एक बात और मेरे आंगन के सबसे कोने में एक ईंट है, उसके नीचे सुनहरे रंग की डिब्बी में एक पर्चा लिखा मिलेगा, उसे पढ़ना.. सोचना... और हां आंसू मत छलकने देना... क्योंकि मैं अगर ज़िंदा होता तो शायद तुम्हे रोने न देता।
तुम्हारा
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साभार गृहीत- aapaskibat-nishant.blogspot.com
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इस ब्लॉग पे पड़ी हुई किसी सामग्री ने आपके जज़्बातों या विचारों के सुकून में कुछ ख़लल डाली हो या उन्हें अनावश्यक मचलने पर मजबूर किया हो तो मुझे उससे वाकिफ़ ज़रूर करायें...मुझसे सहमत या असहमत होने का आपको पूरा हक़ है.....आपकी प्रतिक्रियाएं मेरे लिए ऑक्सीजन की तरह हैं-