गांधीजी की 143 वीं जन्मजयंती है...साथ ही एक दिन का अवकाश भी..ये अवकाश शायद इसलिए कि गांधी का स्मरण हो जाए। गोयाकि विराम का वक्त, गांधित्व का विचार करने के लिए है। तो दूसरी ओर किसी के लिए ये दिन मौज-मस्ती का भी हो सकता है या फिर सिनेमा का...क्योंकि 2 अक्टुबर को भी आज के इस दौर में गांधी से ज्यादा सिनेमा लोकप्रिय है। लेकिन कुछ दिलों में गांधी घुमड़ रहें होंगे इस तथ्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता। मूल्यों के चीरहरण वाले इस दौर में गांधी का याद किया जाना राहत देता है। तो कुछ लोग आज गांधी को याद तो कर रहे होंगे, लेकिन कोसते हुए...इन तथाकथित शौकीनों को ड्राई डे रास न आ रहा होगा। शराब की दुकानें भी बंद हैं और कवाब की भी। खैर कुछ भी हो, कैसा भी दौर हो गांधी विस्मृत हो सकते हैं पर आप्रासांगिक नहीं...और आप्रासांगिक तो उन्हें ये सरकार ही न होने देगी क्योंकि रोटी से लेके बोटी तक और दवा से लेके दारु तक खरीदने के लिए गांधी की तस्वीरों की ज़रुरत होती है...गाँधी दिलों में रहें न रहें पर नोटों पे हमेशा चस्पा रहेंगे।
बहरहाल, हिन्दुस्तानी सरजमीं पर गांधी के बाद पैदा हुआ सिनेमा आज गांधी से
बड़ा शिक्षक और उनसे ज्यादा लोकप्रिय है। गांधी को भी अपनी याद आवाम को दिलाने के
लिए सिनेमा का सहारा लेना पड़ता है। अन्याय के खिलाफ गांधी ने आवाज़ बुलंद की थी
तो आज ये काम हमारा लोकप्रिय सिनेमा भी कर रहा है। आज सिर्फ सिनेमा ही है जहाँ हम
गाँधी के समाजवाद, सर्वधर्मसमभाव, लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व और सहनशीलता जैसें
सिद्धांतों को देख सकते हैं। सिनेमा ही है जो सही अर्थों में प्रजातांत्रिक
सहभागिता को ले आगे बढ़ रहा है अन्यथा ये देश और इस देश का समाज तो जात-पात,
भाषा-बोली, अमीर-गरीब और क्षेत्रीयता जैसी कई विसंगतियों में बट गया है। लेकिन
सिनेमा आज भी धर्म, वर्ग, पंथ, जाति और क्षेत्र से निरपेक्ष बना हुआ है। न सिर्फ
गाँधी के बल्कि मार्क्स और लेनिन के साम्यवादी, समाजवादी जैसे विचारों को भी असल
मायनों में सिनेमा साकार कर रहा है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सही फायदा और
जिम्मेदारी पूर्ण निर्वहन भी सिनेमा से ही संभव हो पाया है। इन तमाम तथ्यों के
बावजूद कुछ चीज़ें हैं जो गाँधी के सत्य-अहिंसा के सिद्धांत से सिनेमा को दूर करती
हैं क्योंकि गाँधी की अहिंसा को शब्दों की कारा में बाँध पाना मुमकिन नहीं है और
उसकी असल अभिव्यक्ति को पचा पाने का सामर्थ्य वर्तमान समाज में नहीं है। इसी वजह
से सिनेमा का रास्ता गांधी से बिल्कुल ज़ुदा हो जाता है। गांधी की अहिंसा आज के
सिनेमाई दौर में कायरता का प्रतीक है।
सफलता का पर्याय माने जाने वाले सौ करोड़ के
विशिष्ट क्लब में वही फ़िल्में शुमार होती है जिनमें फ़िल्म का नायक अपनी शर्ट
उतार कर बीसों गुंडों को अकेला चित कर देता है। आवाम की ताली, सीटियां और वाहवाही ऐसे ही नायकों का
महिमामंडन करती है जो हिंसा का जबाब हिंसा से देता है। ये एक्शन ही इन नायकों को
सुपरसितारा बनाता है..और इस हिंसा का बचाव अन्याय के खिलाफ उठने वाला हाथ कहकर
किया जाता है या फिर ये जुमले बोले जाते हैं कि अन्याय सहने वाला अन्याय करने वाले
से बड़ा होता है। भाई, ये बात बिल्कुल
सही है लेकिन अन्याय का प्रतिशोध क्या सिर्फ हिंसा से ही दिया जा सकता है। तो फिर
गांधी के प्रतिशोध और लड़ाई को क्या कहा जाएगा जिसने 200 सालों की विदेशी सत्ता के कदम उखाड़
फेंके। कई लोग तो ये भी कहते देखे जाते हैं कि गांधी की अहिंसा से नहीं, क्रांतिकारियों की हिंसा और बलिदान से देश
को आजादी मिली। शायद उनकी बात सही हो कि गांधी की अहिंसा से हमें स्वतंत्रता नहीं
मिली लेकिन गांधी की अहिंसा ने वो माहौल तैयार किया जिस माहौल में हमें स्वतंत्रता
मिली। पर गांधी की इस अहिंसा को समझ पाने के समझ आवाम में ढूंढ पाना बहुत मुश्किल
है खासतौर से आज की पिज्जा, वर्गर वाली
नवसंस्कृति में।
आज का सिनेमा भीड़ में चल रहे उस अंतिम पंक्ति के
अकेले इंसान पर फोकस नहीं करता जो अहिंसा की लाठी थामे पीछे-पीछे चल रहा है उसका
फोकस उस हजारों-लाखों की भीड़ पर है जो हाथ में पत्थर थामे आगे बढ़ी जा रही है।
अहिंसा भीड़ की समझ से परे की चीज़ है। यदा-कदा कुछ अन्ना और जेपी जैसे आंदोलन
सत्याग्रह के नाम पर होते हैं जिनमें भीड़ भी जुड़ती है लेकिन क्या ये आंदोलन
गांधी की अहिंसा के तनिक भी करीब है। गांधी की अहिंसा को समझने के लिए मैं कुछ
बानगी प्रस्तुत करना चाहुंगा...युं तो आपने ये सारे वाक़्ये सुने होंगें लेकिन
इनका भावभासन करने का प्रयास कीजिये। गांधी जो अपने पूर्णत़ः सफलता की ओर बढ़ रहे
और अंग्रेजों की नींद हराम कर देने वाले असहयोग आंदोलन को वापस ले लेते हैं
क्योंकि गांधी समर्थक चोरा-चौरी के एक पुलिस थाने में आग लगा देते हैं...आज के समय
में ऐसा कौन-सा आंदोलन है जो सरकारी संपत्ति को क्षति नहीं पहुंचाता। दांडी यात्रा
के दौरान, जबकि लाखों लोग गांधी के पीछे चल सकते थे उस दौरान उन्होंने सिर्फ 78 लोगों को लेकर नमक तोड़ो आंदोलन को अंजाम
दिया क्योंकि भीड़ में इतनी क़ाबलियत नहीं थी कि वो गांधी की अहिंसा का निर्वहन कर
आंदोलन को पूरा कर पाए। स्वदेशी आंदोलन के दरमियां गांधी ने कहा कि इस चरखे से
काते जाने वाले कपड़े से यदि तुम अहिंसा को न समझ पाओ तो उस कपड़े को समंदर में
बहा आना। लेकिन क्या आज स्वदेशी का जाप देने वाले भी गांधी की अहिंसा को समझ सकें
हैं?
गांधी ने गणेश शंकर विद्यार्थी की मौत के दौरान
जिस मौत की कामना की थी उससे भी हम उनकी
अहिंसा की गहराई को समझ सकते हैं उन्होंने कहा था "एक इंसान मेरे सिर पर
लाठियों से लगातार प्रहार कर रहा हो, दूसरा तलवार से वार कर रहा हो, तीसरे के हाथ में जूता हो जिसे वो मुझ पर लगातार चला रहा हो तथा
चौथा-पांचवा लात, घूंसे बरसा रहा
हो तब भी मेरे मन में उनके प्रति विद्वेष न आए और मैं साम्यता के साथ मौत का
आलिंगन करुं"...ये बात निश्चित ही वेवकूफों वाली जान पड़ रही है। लेकिन ये उस महापुरुष की
चाहना है जिसे हम राष्ट्रपिता कहते हैं। अहिंसक तो कई लोग हो सकते हैं किंतु
अहिंसा पर गांधीजी की तरह विश्वास कुछ विरले लोगों को ही हो सकता है। उन्हें अपने
सत्य, अहिंसा को लेकर इतना
यकीन था कि ये सिद्धांत कभी उन्हें उनकी मंजिल हासिल करने से नहीं रोक सकते।
आज सिनेमा, प्रेम जैसें अति कोमल जज्बातों को हासिल करने के लिए भी हिंसा का सहारा
लेता है। 'दिलवाले
दुल्हनिया ले जाएंगे' का राज पूरी
फ़िल्म में तो एक अहिंसक की तरह प्रस्तुत होता है पर अंत में उसे भी मार-धाड़ का
सहारा लेना पड़ता है। 'परदेश' का नायक अपने प्रेम को पाने के लिए अंत
में उस परिवार के खिलाफ ही विद्रोह कर देता है जिसने बचपन से उसे सहारा दिया है। 'क़यामत से क़यामत तक' में नायक-नायिका दोनों आत्महत्या कर एक
ऐसी हिंसा को अंजाम देते हैं जिसे कतई सही नहीं कहा जा सकता। 'मैनें प्यार किया', 'बॉबी', 'प्रेमरोग' या फिर 'कहो न प्यार है' किसी भी लोकप्रिय प्रेमकथा को देख लें हर
जगह विद्रोह है, हिंसा
है...जिसका समर्थन हमारा सिनेमा बखूबी करता है...और ये गांधी जी की अहिंसा का 'अ' समझ पाने में भी अशक्य हैं। जब प्रेम को हासिल करने के प्रति हमारे
सिनेमा का ये नज़रिया है फिर अधिकारों, बदले की लड़ाई के संदर्भ में क्या कहना...और उसके उदाहरण 'वांटेड', 'सिंघम', 'गज़नी', 'एक था टाइगर' जैसी फिल्मों के रूप में सामने हैं और कुछ
हिंसा तो बेबुनियाद ही परदे पर एक्शन के रूप में नज़र आती है जिसे हम दबंग और
राउडी राठौड़ जैसी फ़िल्मों में देखते हैं और झूमते भी हैं... इन सब में गांधी
कहां है और कहां है उनकी अहिंसा?
ये अहिंसा शायद कुछ गांधीवादी किताबों में नज़र आ
जाए पर इसे सिनेमा और समाज में ढूंढ पाना बहुत मुश्किल है पर एक सत्य ये भी है कि
सिनेमाई एक्शन को हम यथार्थ के धरातल पर सिद्ध होते नहीं देख सकते पर गांधी की
अहिंसा इस धरा पर सिद्ध की जा सकती है। आज के दौर में यदि गांधी होते तो
ग्लोबलाइजेशन की मार झेल रही संस्कृति, हमारे सिनेमा और इस औद्योगिकीकरण पर क्या कहते ये विचारणीय है पर
इससे भी ज्यादा विचारणीय है कि हम गांधी को और उनकी अहिंसा को लेकर क्या सोचते हैं, क्या कहते हैं।
सिनेमा में गांधी की इस अहिंसा को देखना बेमानी
है लेकिन एक सिनेमाई प्रयास का ज़िक्र करना चाहुंगा जिसने गांधी को जिंदा करने का
खूबसूरत प्रयास किया था...वो है "लगे रहो मुन्नाभाई"। ये फिल्म उन तमाम
दकियानूसी विचारों, अंधविश्वास और सामंतवादी सोच के ऊपर हास्य-वयंग्य की शैली में
प्रहार करती है कि लोगों को भी मजबूरन गाँधी के सिद्धांतों पर यकीन करना पड़ता है।
दादागीरि के ऊपर गाँधीगिरि की हिम्मत का आकलन हम कर पाते हैं और सत्याग्रह की खूबसूरत
बानगी देखने मिलती है।
लेकिन इस समाज की स्मरण शक्ति सद्विचारों और नैतिक
मूल्यों के मामले में काफी कमजोर है। यदा-कदा होने वाले कुछ सिनेमाई प्रयासों के
चलते, वो एक लहर में बहकर संगत विचारों का कुछ वक्त के लिये अवलंवन तो लेता है पर
शीघ्र ही वो वापस अपनी उसी चिरपरिचित पाशविकता की ओर लौट जाता है। जहाँ हिंसा है,
असत्य है, लालच, असीमित वासना और भ्रष्टाचार है किंतु न ही गाँधी हैं और न ही है उनका
सत्य या फिर अहिंसा। आज सत्याग्रही तो हर कोई बनना चाहता है पर सत्य ग्राही कोई भी
नहीं। यही वजह है कि मौजूदा माहौल में गाँधी जयंती महज एक दिन का अवकाश बनकर रह गई
है।
बढ़िया लेख....
ReplyDeleteरवीश जी का वीडियो देखते हैं अब...
अनु
बहुत ही बढ़िया बेहतरीन आलेख,
ReplyDeleteRECECNT POST: हम देख न सके,,,
बिलकुल सही कह रहे हैं आप गाँधी जी जैसी अहिंसा अपनाना हम जैसे लोगों के बस का तो नहीं है ये तो कोई महात्मा जैसे कि महात्मा बुद्ध जैसे महापुरुष के लिए ही संभव है.
ReplyDeleteरोचक आलेख..
ReplyDeleteअंकुर जी आपकी इस सुन्दर प्रविष्टि हेतु बधाई ........गाँधी जीवन दर्शन अद्भुद है सब कुछ अनुकरणीय लगता है |
ReplyDeleteबहुत सुन्दर समालोचन किया है गाँधी जी और हिंदी सिनेमा को लेकर कही सभी बाते
ReplyDeleteसही है
आपके विचारों से पूर्ण सहमत हूँ