Wednesday, October 24, 2012

उत्सव, भोगवादी संस्कृति और आस्था का ढ़ोंग

उत्सवी फुलझड़ियां, मेवा-मिष्ठान, पटाखों का दौर चल रहा है...आस्था, पूजा, अर्चना के शोर हर गली मोहल्ले से लेकर टीवी चैनल, एफएम, अखबार तक गुलज़ार है। मुहूर्तों की रोशनी से बाज़ार में चमक है...हर प्रॉडक्ट पर ऑफरों की बरसात है...आम जनसमाज को उपभोक्ता समाज मे तबदील करने में किसी तरह की कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही है। गोयाकि धर्म भी संयम का नहीं उपभोग का ठेकेदार बना बैठा है।

धर्म की आड़ में सारी वही चीजें हो रही हैं जो न तो संविधान और समाज की निगाह में नैतिक मानी जाती हैं नाही जिन्हें विज्ञान तर्क की कसौटी पर कसा हुआ मानता है...पर धर्म एक ऐसा एंटीबॉयोटिक है जो हर हुल्लड़याई के रोग को कवच प्रदान करता है। लेकिन इस सबके बाबजूद हम मॉडर्न है साथ ही सभ्य भी। एक ऐसा माहौल हर तरफ निर्मित है जिसमें नशेबाजी, शराबखोरी, लड़कीबाजी, गुंडागर्दी और अंधेरे के साये में घट रहे तमाम व्यभिचार व्याप्त है पर उत्सवी शोर में सब ज़ायज है।

पिछले दिनों हिंदुस्तानी सिनेमा में हिन्दुस्तान के सबसे क्रांतिकारी विषय पर बनी एक सार्थक फ़िल्म 'ओह मॉय गॉड' प्रदर्शित हुई थी...जिसमें एक संवाद था कि "जहां धर्म है वहां सत्य नहीं है और जहां सत्य है वहां धर्म की ज़रूरत नहीं है" फ़िल्म का ये संवाद संपूर्ण मौजूदा धार्मिक माहौल को आईना दिखाता है। पर अफसोस फ़िल्म के इस संवाद पर तालियां बजाने वालों की भी कतई अपनी-अपनी रूढ़ियों पर से पकड़ ढीली न हुई होगी। दरअसल हमारी तमाम उत्सवी प्रकृति भले किसी न किसी धार्मिक विश्वास के कारण पैदा हुई हो पर उसका उद्देश्य एकमात्र विलासिता है। हमारी सारी पूजा, भक्ति भी भोगवादी संस्कृति से पैदा हुई है। जहां आस्था का जन्म उन मनोभावों से हुआ है जिन्हें किसी मानवमात्र में उचित नहीं माना जाता...और वो मनोभाव है डर तथा लालच।

एक तरह देखा जाये तो बाज़ारवाद और धार्मिक भावनाओं के विस्तार में एक से मनोभाव ज़िम्मेदार है। बाज़ार में भी हमें इसी तरह लुभाया जाता है...या तो हमें किसी डिस्काउंट, सेल, ऑफर के चले जाने का डर है या एक पे एक फ्री टाइप के बोनस पाने का लालच। हमें हमारे भोग-विलास की वस्तुओं को बनाये रखने का इस कद़र लालच है कि उनके दूर होने के डर के चलते हम हर तरह की क्रियाओं को कर गुज़रने के लिए तैयार हैं। धार्मिक आस्थाओं के नाम पर हर कष्ट का सहना भी इसलिए मंजूर है क्योंकि हमें उन प्रतिकूलताओं से डर लगता है जो हमारी विलासिता में खलल डालते हैं। यही वजह है कि हर सप्ताह रोजगारेश्वर बाबा, सदा-सुहागन माता, संतानदाता बप्पा जैसे देवता मार्केट में पैदा हो रहे हैं...इन देवताओं के कारण साधू, संतों, फकीरों का सेंसेक्स हमेशा बढ़े हुए स्तर पर बना रहता है। इन देवताओं के इस बढ़ते हुए ग्राफ को देख लगता है कि एक दिन वो भी होगा जब गर्लफ्रेंड बाबा, अय्याशी माता की पूजा हुआ करेगी...और शायद देश के किसी कोने में होने भी लगी हो।

हमारी सारे धार्मिक विश्वास हमारी भोगवादी जिजीविषाओं का परिणाम है...पुनर्जन्म की जो तथाकथित अवधारणा आज इंसान द्वारा गढ़ी गई है उसके पीछे भी यही मंशा है कि अगले जन्म में हम वो सारे भोगों का उपभोग कर सकें जो इस जन्म में अधूरे रह गए हैं। हर तरफ सिर्फ और सिर्फ हसरतों का सैलाब है। नाचना, गाना, विभिन्न तरह की अठखेलियां करना सब कुछ उसी उपभोगितावादी प्रवृत्ति का प्रतीक है जिन्हें धार्मिकता के नाम पर प्रदर्शित किया जा रहा है। नवरात्र में होने वाले गरबों के ख़त्म होने के बाद देर रात होने वाले विभिन्न क्रियाकांडो का चिट्ठा तो हम आये दिन पढ़ते-सुनते रहते हैं। 

दरअसल जो कुछ हो रहा है उन चीजों पर उतना ऐतराज़ नहीं है लेकिन जिसके नाम पर ये सब हो रहा है वो चीज ज्यादा खलती है। हम भारतीय संस्कृति का महिमामंडन बड़े जोश-खरोश के साथ करते हैं और पाश्चात्य सभ्यता को गरयाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। लेकिन पाश्चात्य सभ्यता खुद को भोगवादी कहकर सीना ठोककर वो चीजें करते हैं जो चीजें हम धर्म की आड़ में खुद को संयम और त्याग का शिरोमणि कहकर किया करते हैं। न तो हम भौतिकवादी ही हैं नाहीं हम धार्मिक है...हमारे अंदर तो वो छद्म धार्मिकता पल रही है जो पीला वस्त्र पहनकर बलात्कार करने की ख़्वाहिश रखती है। इस बारे में अपने एक अन्य लेख छद्म धार्मिकता, नास्तिक वैज्ञानिकता और अनुभूत अध्यात्म में भी काफी कुछ कह चुका हूँ।

आस्था के नाम पर होने वाला पाखंड और मूर्खता हमें उस श्रेणी का पुरुष बनाती है जो हमाम में नंगा नहाता है पर अपना कच्छा, तौलिया पहनकर बदलता है। जिसकी कमीज तो सफेद है पर बनयान मटमैली हो रही है। हर साल रावण को जलाने वाली संस्कृति गर रावण के सद्गुणों का अनुसरण कर ले तो मौजूदा भारत में रामराज्य आ जाएगा। सच्ची धार्मिकता धर्म के स्वरूप को समझे बगैर नहीं आ सकती...राम को मानने वाले न जाने कब राम की मानेंगे....................

7 comments:

  1. nicely written....

    god bless...

    anu

    ReplyDelete
  2. bahut touching hai sir......

    ReplyDelete
  3. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
  4. बहुत उम्दा सार्थक आलेख,,,,,

    विजयादशमी की हादिक शुभकामनाये,,,
    RECENT POST...: विजयादशमी,,,

    ReplyDelete
  5. बहुत सही कहा आपने

    ReplyDelete
  6. इतनी उपाधियाँ ओढ़ ली हैं कि सत्य छिपा है। धर्म और सत्य जैसे शब्द मनने की आवश्यकता है।

    ReplyDelete
  7. aadmi jangal se tao bahar aa gaya perntu apape aundar abhi bhi jangal ko samet rkha he

    ReplyDelete

इस ब्लॉग पे पड़ी हुई किसी सामग्री ने आपके जज़्बातों या विचारों के सुकून में कुछ ख़लल डाली हो या उन्हें अनावश्यक मचलने पर मजबूर किया हो तो मुझे उससे वाकिफ़ ज़रूर करायें...मुझसे सहमत या असहमत होने का आपको पूरा हक़ है.....आपकी प्रतिक्रियाएं मेरे लिए ऑक्सीजन की तरह हैं-