आखिरकार 13 दिन की तीव्र मानसिक एवं शारीरिक वेदना ने जबाब दे दिया...दामिनी नहीं रही। इस दामिनी ने लोकतंत्र के चारों स्तंभ को हिला डाला...देश की विधायिका नये कानून लाने के वैचारिक विद्रोह में है, कार्यपालिका देश की लाखों बेवश दामिनीयों को सुरक्षा देने के संकल्प पर पॉलिश कर रही है, न्यायपालिका आरोपियों का सजा सुनाने और दामिनी के न्यायिक मंथन से गुज़र रही है और मीडिया इस एक दामिनी के दमन की हवा में हजारों दामिनीयों की लुटती अस्मिता की अपडेट दे रहा है...ये एक दिल्ली की दामिनी, हजारों दमन की शिकार देश की नारियों का पर्याय बन गई है...गोयाकि आज दामिनी एक नारी नहीं, हालात बन गई है।
ये देश का पहला केस नहीं था और हमारे देश का सौभाग्य अभी इतना भी नहीं जागा कि ये आखिरी केस बन जाए। 'हर चौबीस मिनट में एक बलात्कार' का ये आंकड़ा थोड़ा बेहतर हो सकता है और शायद 'चौबीस मिनट' बदलकर 'अड़तालीस मिनट' बन सकते हैं...और शायद ये आंकड़ा भी ठीक नहीं हो सकेगा क्योंकि कुल होने वाले बलात्कारों में से 95 प्रतिशत तो दरो-दीवारों के अंदर होते हैं...बलात्कार रोकने के लिए सड़कों पे पुलिस तैनात की जा सकती है घरों में नहीं। रास्तों पे घूमने वाले लंपट मनचलों से सतर्क रहा जा सकता है..पर पिता, चाचा, मौसा, मामा, दोस्त-भाई, पड़ोसी, बॉस और यहां तक की अध्यापकों पर कैसे शक करें..उनसे कैसे सतर्क रहे? भेड़ियों की बस्ती में इंसान ही नज़र नहीं आते तो रिश्तेदार भला कहां मिलेंगे।
दामिनी के निमित्त से तंत्र को सुधारने का आंदोलन चल रहा है...सरकार को नसीहत दी जा रही है...पर प्रश्न उठता है कि ये तंत्र, ये सरकार क्या उन बलात्कारों, उत्पीड़नों को रोक पाएंगे जो दुनिया के सामने ही नहीं आते। यकीनन इस आंदोलन का कुछ सकारात्मक असर पड़ेगा पर वो असर सार्वकालिक समाधान बनकर सामने नहीं आ सकता...और वैसे भी दामिनी की चिता ठंडी पड़ने से पहले ये आंदोलन ठंडा पड़ जाएगा। समस्या की जड़ में जाकर ही समाधान तलाशा जा सकता है और इस बहसी प्रवृत्ति की जड़ें बहुत गहरी हैं...जिन जड़ों की खुदाई ये तंत्र, ये सरकार या मीडिया को नहीं बल्कि हर पुरुष को व्यक्तिगत तौर पर करनी हैं...ये समस्त पुरुष समाज के लिए गहन आत्ममंथन की घड़ी है।
हिन्दी के उपन्यास सम्राट प्रेमचंद की एक पंक्ति है कि 'जब किसी पुरुष में कुछ महिला के गुण आ जाते हैं तो वो महात्मा बन जाता है और किसी महिला में पुरुष के गुण आ जाते हैं तो वो कुलटा बन जाती है'...पुरुष को अपने उन्हीं आदिम पाशविक गुणों, मान्यताओं, अवधारणाओं, वैचारिक अहम् एवं समाज में व्याप्त पौरुषीय पितृसत्तात्मक सोच की पड़ताल करनी है जिसके चलते आज भी नारी समाज में दूसरी पंक्ति की हस्ती बनी हुई है। जिसे स्वयं के अस्तित्व के लिए, खुद को पूरा करने के लिए, स्वयं के संरक्षण के लिए किसी न किसी पुरुष की आवश्यकता है..उसकी इस ज़रूरत को कभी पिता, कभी भाई, पति, ब्वॉयफ्रेंड या फिर उसका अपना पुत्र पूरा करता है। ये सामाजिक असमानता जब तक विद्यमान है तब तक महिला उत्पीड़न, बलात्कार जैसी दुर्दांत घटनाओं पर ब्रेक लगा पाना बहुत मुश्किल है।
हमारे धर्मग्रंथों, पुरातन परम्पराओं, उपन्यासों, कविता, कहानियों और संस्कृति के हर हिस्से ने नारी को निरीह, करुणापात्र और असहाय साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी और पुरुष को उसका स्वामी बनाकर, वर्चस्व के सारे अधिकार प्रदान कर दिए। "हाय नारी तेरी बस यही कहानी, आंचल में है दूध और आंखों में पानी" हमारे बुद्धिजीवियों ने नारी की आंखों और आंचल से परे उसे देखने की हिमाकत ही नहीं की..और नारी को देख उसकी बेवशी ही पुरुष को नज़र आई...और फिर इन महाशयों ने उसे संरक्षण देने के बहाने हर तरह से नारी का शोषण किया। परंपराओं के ऐसे बज़न उन पर लाद दिए गए जिनके बोझ तले वह प्रताड़ित होती रही...और इन प्रताड़नाओं को ज़रुरी साबित करने में भी इस समाज ने कोई कसर नहीं छोड़ी..."ढोर-गंवार-शूद्र-पशु-नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी" जैसी उक्तियों से ताड़ना को नारी का अधिकार बना दिया। दरअसल प्राकृतिक तौर पर नारी शारीरिक स्तर पर पुरुष से अधिक सबल है और पुरुष ने अपनी ये कमतरी छुपाने के लिए भांत-भांत के मानसिक-शारीरिक बंधनों और ताड़नाओं के ज़रिए खुद को इस बृह्माण्ड में श्रेष्ठ बना रखा है। पर मौका मिलते ही पुरुष का ये श्रेष्ठता का चोगा जाने कहां उड़ जाता है और वो अपने मूल स्वरूप में लौट आता है। इन परंपराओं और मान्यताओं का रस कुछ इस तरह से पुरुष ने इस समाज में घोला है कि नारी इन्हें अपने सिर-आंखों पे बैठाती है और अपनी ताड़नाओं को स्त्रीधर्म मान बैठी है।
इस पुरुष आत्ममंथन के वक्त में नारी को भी अपना वैचारिक आत्ममंथन करना होगा कि उसका अस्तित्व पुरुष की भोग्या बनने और बच्चा पैदा करने से परे भी बहुत कुछ है। वह अपने आप में एक स्वतंत्र व्यक्तित्व है जिसके बिना इस धरती का, इस प्रकृति का संतुलन कभी बना नहीं रह सकता। उन तमाम सामाजिक विसंगतियों का बहिष्कार करना होगा जिनके चलते स्त्री इस समाज की दोयम दर्जे की हस्ती बनी हुई है...और अगर उन विसंगतियों के खिलाफ स्त्री ने आवाज बुलंद की तो मजाल है कि इस देश में भ्रूण-हत्या, दहेजप्रथा और घरेलु हिंसा जैसे अपराध सामने आये क्योंकि इन तमाम अपराधों में महिला की अहम् हिस्सेदारी होती है..अब वह चाहे मन से हो या बेमन से। अपने इस स्वतंत्र अस्तित्व को पहचानकर, सभी तरह के सामाजिक अत्याचारों के खिलाफ अपना स्वर मुखर कर...गर स्त्री, स्त्री बनी रहे तो इस प्रकृति की फ़िजा को बदलने से कोई नहीं रोक सकता। बस, वह याद रखे कि उसे अपने सशक्तिकरण के लिए कतई पुरुष बनने की ज़रुरत नहीं है, उसे अपने शील को मर्द की भांति दो टके का बनाने की कोई ज़रुरत नहीं है क्योंकि वो अपने आप में एक सुंदर व्यक्तित्व है जो पुरुष से कई बेहतर है। दामिनी की मृत्यु आंदोलन से ज्यादा, आत्ममंथन की मांग कर रही है.............
सामयिक और जीवंत पोस्ट...
ReplyDeleteसचमुच आत्ममंथन ही इसका समाधान है। हमको अपनी पुरुषवादी सोच बदलनी होगी, जैसाकि आपने उल्लेख किया, प्रेमचंद के शब्दों में जैसा आपने जिक्र किया, थोड़ा सा स्त्रियोचित गुण अपने में पैदा करने होंगे।
ReplyDeletesirf atmmanthan hi nahi balki kuchh thos upay ki avilamb avshykata hai ankur ji ....achchhi post ke liye abhar.
ReplyDeleteहमें अपनी सोच को बदलना होगा...बहुत सार्थक पोस्ट..
ReplyDeleteसत्य है ,आज आत्ममंथन की अति आवश्यकता है.
ReplyDeleteआप की सोच प्रभावित करती है.
लिखते रहिये.
सार्थक चिंतन ... आज हर पुरीष को आत्ममंथन की जरूरत है ... क्यों हम इस स्थिति में आ गए .. इसके लिए दोषी कौन है पुरुष मानसिकता के सिवा ...
ReplyDeleteकुछ ज्वलंत प्रश्न खड़े करती है आपकी पोस्ट ...
सार्थक पोस्ट ,नया साल जाते जाते एक टीस दे गया
ReplyDeleteसार्थक सोच ...काश सभी अच्छी सोच के घनी होते ...
ReplyDeleteआप मेरे ब्लॉग पर आये बहुत अच्छा लगा .. ..मैं भी भोपाल से हूँ और भोपाल में ही निवासरत हूँ.....
आप बहुत अच्छे लिखते हैं लिखते रहिये....
नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाओं सहित ..
thnx kavitaji...
Deleteकाश सब महात्मा बन जायें..नारी के गुण समाहित कर लें अपनी चिन्तनशैली में।
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