विगत दिनों एक टेलीविज़न कार्यक्रम में युवा अपराध से जुड़ी कहानी देखने को
मिली। कहानी के अंत में एक संवाद था..’आज का युवा जिंदगी को टाइमपास और टाइमपास को ज़िंदगी समझ रहा है’ और उस टाइमपास के विकल्प यदि उसके पास न हों तो
उसे अवसाद घेर लेता है। बड़ी अजीब बात है कि शिक्षा में आई क्रांति ज़िंदगी के
मायने तय नहीं कर पा रही है। भौतिकता का अंधानुसरण उसकी दिशा तय नहीं कर पा रहा है
और जिस भी दिशा में आज युवा जा रहा है उसकी सर्वोत्कृष्ठता का राग आलापने में भी
वो कोई कसर नहीं छोड़ रहा। लेकिन उसकी वो दिशा न तो उसे संतुष्टि प्रदान करने में
सफल हो पा रही है नाहीं अवसाद कम कर पा रही है।
स्वामी विवेकानंद ने तकरीबन 150 वर्ष पहले हमारी शिक्षा व्यवस्था पे जो
टिप्पणी की थी वो आज के शिक्षातंत्र पे ज्यादा चरितार्थ हो रही है। उनका कहना था- “आज का पढ़ा-लिखा युवा चार बातें सबसे पहले सीखता
है...पहली कि उसका बाप दकियानूस है और उसका दादा दिवाना था जो उसकी सोच है वही
उत्कृष्ठ है, दूसरी कि हमारे सारे धर्मग्रंथ झूठे और कोरी गप्प हांकने वाले है,
तीसरी कि अपने शौक और इच्छाएं ज़रुरी है और उनको पूरा करना ही सुख तथा चौथी कि
विकास सिर्फ पश्चिम में ही है और हमारी उन्नति एवं शक्ति का विस्तार भी पाश्चात्य
विचारप्रणाली से हो सकता है।“ इच्छाओं को पूरा करने की ये दौड़ टाइमपास को ज़रुरी बना देती है और
ज़िंदगी का मतलब टाइमपास हो जाता है। दरअसल टाइमपास अपने अंदर के भगौड़ेपन का प्रतीक
है हम खुद के साथ वक्त नहीं बिता पाते इसलिए किसी साधन का होना हमारे लिए अनिवार्य
हो जाता है। विराम का वक्त
बरदाश्त नहीं होता, लेकिन हम भूल जाते हैं कि विराम का वक्त विचार का वक्त भी हो
सकता है।
तमाम भौतिक चाकचिक्य का बाज़ार हमारे उस आंतरिक भगौड़ेपन को दूर करने के
लिए है। उन्नति का पैमाना इन्हीं संसाधनों के विकास से तय किया जाता है जो हमारा
टाइमपास कर रहे है। टेलीवज़न पे प्रसारित सैंकड़ो चैनल, हाई-स्पीड इंटरनेट, सोशल
नेटवर्किंग साइट्स, मोबाइल फोन, मॉल कल्चर, मल्टीप्लेक्स, कॉम्पलेक्स आदि समस्त
चीजें संस्कृति का मैक्डोनाल्डाइजेशन की गवाही दे रही हैं। लेकिन संसाधनों का
निरंतर होता ये विकास, तब भी संतुष्टि प्रदान करने में समर्थ नहीं हो पा रहा अपितु
हमारी इच्छाओं की आग में घी डालने का ही काम कर रहा है। इस असंतुष्टि का ही नतीजा
है कि आज आत्महत्या का प्रतिशत निरंतर बढ़ रहा है और इन आत्महत्या करने वालों की
तादाद में 15 से 35 वर्ष के युवा ज्यादा है। हम सोच सकते हैं कि पहले भले हमें
इतने संसाधन महरूम नहीं थे, ज़िंदगी अभावों में बसर होती थी, लेकिन लोगों में
आत्मबल हुआ करता था जिसके दम पे वो अभावों से लड़ते हुए भी कभी ज़िंदगी का साथ
नहीं छोड़ते थे। उनके पास जिजीविषा हुआ करती थी किंतु आज का परिदृष्य सामने है।
स्वामी दयानंद सरस्वती ने संदेश दिया था कि “वेदों की ओर लौटो”...पर आज के संदर्भ में यदि आप किसी नौजवान को ये उक्ति सुनाने जाएंगे तो
यकीनन आप घोर हंसी के पात्र बनेंगें। आज वेदों, पुराणों की बात तो छोड़ ही दीजिए
अच्छे साहित्य की तरफ भी रुझान नज़र नहीं आता। जिस तथाकथित साहित्य को पढ़ा जा रहा
है वो भी इच्छाओं को हवा देने का काम करता है। जिनकी अहम विषयवस्तु सेक्स हुआ करती
है और जिसे प्रेम के नाम पर परोसा जाता है। आधुनिक साहित्य, समाज और सिनेमा
नैतिकता और मूल्यों की स्थापना में नाकाम सिद्ध हो रहा है।
ज़िंदगी की सार्थकता गर्लफ्रेंड, पार्टी, पैसा और सेक्स से मानी जाती है।
अब इस जीवनशैली में आप कहां सद्विचारों को स्थापित कर सकते हैं और यदि स्थापित
करने की कोशिश की गई तो ज़माने में आप एक गई-गुज़री सोच वाले रुढ़िवादी इंसान करार
दिए जाएंगें। प्राचीनतम चंद अंधपरंपराओं से लड़ने की गुहार युवा से की गई थी किंतु
उसने प्राचीनतम संपूर्ण ज्ञान को ही तिलांजलि दे दी। संतुलित वैज्ञानिक
विचारप्रणाली अपनाने की मांग युवा से की गई थी किंतु उसने प्रत्यक्षवाद की आड़ में
संपूर्ण आत्मिक भावनओं का ही दमन कर दिया।
बहरहाल, कहाँ तक कथन करुं...पहले भी अपने दो लेख “जोश-जुनून-जज़्बात और जवानी” तथा “उद्दंड जवानी, दहकते शोले और बाढ़ का उफनता पानी” में काफी कुछ कह चुका हूं। इस संबंध में कुछ कहता हूं तो अपने ही मित्रों
और संबंधियों की नज़रों में दकियानूस साबित हो जाता हूं। दिल की भड़ास पन्नों पर
और ब्लॉग पे निकालकर संतुष्ट हो जाता हूं अन्यथा ज़माना मुझे ये सब कहने की इज़ाजत
और मोहलत नहीं देता........
बहुत बढ़िया.............
ReplyDeleteखास तौर पर "जो चार बातें जो युवा सीखता है"- एक दम सटीक....
बेहतरीन लेखन अंकुर.
अनु
धन्यवाद अनुजी.......
ReplyDeleteअंकुर विचारों का घोड़ा जेत तर्रार होना चाहिए। इसे अच्छा माना जाता है, किंतु तेज तर्रारपन जानवरों में पटाखों से डरने के लिए एक दुर्गुण के रूप में भी देखा जाता है। तारीफें तेज तर्रारीयत भरे विचारों को पटाखे की तरह भ्रमित कर देती हैं।
Deleteयुवाओं की एक तरफा छवि प्लस 50 के लोगों की ओर से शुरू होती है। यह प्लस 60 तक इतनी मोटी दिमागी ग्रंथी बन जाती है कि जैसे संसार खत्म हो रहा है और यह प्लस 60 ही इसे चलाते। भूलकर कि जब वे 15-40 थे तब उनके प्लस 50 और 60 ने भी यही उनके बारे में सोचा था। तो अंकुर यह पूरा मामला शिक्षा का ही है, दरअसल इंसान को कंप्यूटर के सॉफ्टवेयर तो सिखाए जा रहे हैं, लेकिन दिमाग के तरकश, तीर और वैचारिक ईसीजी को समझने की शक्ति नहीं। इससे अच्छा और बुरा। सही और गलत। खराब और उत्तम आदि-आदि के बारे में विचार तक नहीं पैदा हो पा रहा, फिर फर्क करना तो दूर की कौड़ी है।
जरूरत वैचारिक शिक्षा की है। और यह आती है स्कूलों में आध्यात्मिक शिक्षा को जरूरी बनाने से। मगर सेकुलर इस देश में यह कहां मुमकिन।
आपके ब्लॉग में कमेंट एड करने में मुश्किल आ रही है। देखें।
very true
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ReplyDeleteयुवा मानसिकता का बहुत सही vishleshan kiya hai aapne और sath hi swami vivekanand ke vicharon kee prastuti ne aalekh me pran bhar diye hain बहुत sarthak prastuti .badhai .
ReplyDeleteऐसा हादसा कभी न हो
बढियां लिखा है -भौतिकता मनुष्य को खोखला करती चलती है और एक दिन उसे व्यर्थ बना निस्तारित कर देती है -
ReplyDeleteमानसिक मजबूती स्थिरता संघटन आध्यात्म की शरण में ही है
अंकुर सर सच कहा आपने युवाओं की दिशा और दशा क्या जो हो रही है...वह वास्तव मैं चिंतनीय है .......बहुत सही लिखा है और वेसे भी आपकी लेखनी सीधे ह्रदय पर प्रभाव डालती है|
ReplyDeleteन पलायनम्
ReplyDeletewell written sir....jo aaj ho rha hai ekdum wahi aapne bataya hai...aur ye aane wale samay me aur bhi kharab ho jayega...is samay kuch aise hai jo aaj bhi in baton ki value samajhte hai but aane wale samay me it will be zero.......apki itne baten hi aaj ki yuva pidhi k kafi pehluon ko darshati hai...........
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