एक नितांत ऑफबीट फिल्म..जिसके प्रदर्शन पूर्व ही इसके निर्माता-निर्देशक ने इस बात की घोषणा कर दी थी कि ये सब के लिये नहीं है...बस इसलिये ही चुनिंदा जगहों पे सिलसिलेवार प्रदर्शित और वो भी बेहद कम प्रिंट और कम वक्त के लिये। हिंदुस्तान में प्रदर्शन से पूर्व कई अंतर्राष्ट्रीय मंचों पे सम्मानित..दिग्गज फिल्म विशेषज्ञों द्वारा प्रशंसित, जिसमें अनुराग कश्यप और करण जौहर जैसे निर्देशकों ने तो ये तक कह दिया कि 'इसे देखने के बाद लगता है कि हमें निर्देशन ही नहीं आता।' इतनी विशेषताएं बताके मैं अनायास ही इसकी महानता की गुणगाथा बयाँ नहीं कर रहा हूँ...और व्यवसायिक सिनेमा के प्रति हीनभाव भी प्रदर्शित नहीं कर रहा हूँ। दरअसल मैं ये कहना चाहता हूँ कि ये फिल्म जज़्बातों के इतने महीन रेशों से बुनी गई है कि मानसिक और बौद्धिक अंतर्द्वंदों की सैंकड़ों परतें फ्रेम दर फ्रेम उधड़ती जाती हैं..और फिल्म का अंत भी जाते-जाते एक यक्ष प्रश्न छोड़ जाता है..कि इस हाड़-माँस और तमाम अंग-प्रत्यंगों के अलावा भी इंसान का आखिर वजूद क्या है..हमारी इस भौतिक दायरे के परे क्या हस्ती है...हमारे अस्तित्व का वास्तविक परिचायक क्या है।
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ये फिल्म कोई समाधान या निष्कर्ष देती हो ऐसा नहीं है..ये तो महज हमें सोचने पे मजबूर करने वाले कुछ सवाल देती है..और वास्तव में जबाव नहीं, सवाल ही खोजे जाते है। सवाल के मिलने पे हम अपनी-अपनी रुचि और पुरुषार्थ के अनुसार अपने-अपने जबाव सहज ही पा लेते हैं। फिल्म में तीन कहानियां है..वे तीनों एक चीज़ से आपस में जुड़ी हैं जोकि अंत में हमारे सामने आता है। तीनों ही कथाएं अपने-अपने कई कथ्य मुहैया कराती हैं..किंतु तीनों अंत में जाके एक ही कथ्य में जाके ख़त्म होती हैं। इन तमाम कथ्यों में गर्भित संदेश इतना महीन हैं कि उसे एक बार में समझ सकना बेहद अशक्य है और हम जो भी समझते हैं उसमें बहुत कुछ हम अपने पूर्वाग्रह और समझक्षमता के अनुसार ही समझ पाते हैं..निर्देशक के भाव को एकबार में समझ पाना तो नामुमकिन सरीका ही है। इसे देखने के बाद मुझे प्रसिद्ध जापानी निर्देशक अकीरा कुरोसावा की वो उक्ति याद आई, जो उन्होंने सत्यजीत रे के संबंध में कहीं थी कि 'रे की फिल्मों को समझने के लिये कहीं से दूसरा दिमाग लाना पड़ेगा'। कुछ ऐसा ही शिप ऑफ थीसिस के साथ हैं।
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जितना मैं कह रहा हूं वो बहुत थोड़ा है। इसे देखने पे जितने भाव उमड़ते हैं और देखके आने के लंबे समय बाद भी, हम इस फिल्म को जिस भांति अनुभूत करते हैं उसे ज़रा भी बयाँ कर सकना मुमकिन नहीं है। इसी वजह से किसी दार्शनिक पुराण के पढ़ने जैसी अनुभूति होती है जिसमें क्लिष्टता भी है और आनंद भी। इसके अलावा एक फिल्म के अन्य पक्षों की दृष्टि से गर इसे देखें..तो एक्टिंग, सिनेमेटोग्राफी, निर्देशन सब अव्वल दर्जे का है। और एक बारगी तो इस फिल्म की कहानियाँ ऐसी प्रतीत होती हैं मानो कि सच्ची घटनाओं की कोई डॉक्युमेंट्री देख रहे हों।
सिनेमा के लिये हिन्दी सिनेमा के जनक दादासाहेब फाल्के की उक्ति भी कहना चाहुंगा कि 'यद्यपि सिनेमा मनोरंजन का प्रमुख माध्यम हैं किंतु इसका उपयोग ज्ञानवर्धन और विचारणा के लिये भी सशक्तता से किया जा सकता है'। ये फिल्म उनकी इस उक्ति को भलीभांति सही साबित करती है। निश्चित ही मनोरंजन गौण है किंतु विचारने के लिये उपलब्ध कराने वाला कथ्य असंख्य है। इसलिये इस सिनेमा को देखने का नहीं पढ़ने का प्रयत्न करें....
हम जो भी समझते हैं उसमें बहुत कुछ हम अपने पूर्वाग्रह और समझक्षमता के अनुसार ही समझ पाते हैं.......................यह रोड़ा न हो तो बहुत अच्छा हो। अद्वितीय समीक्षा की है आपने इस सिनेमा रील की। एक प्रकार से सिनेमा के शीर्ष मानदण्डों को विचारणीय शब्दों के वस्त्र ओढ़ा दिए गए हैं, ऐसा प्रतीत होता है।
ReplyDeleteअन्तिम से दूसरी पंक्ति में (गौढ़) को (गौण) कर लें श्रीमान।
धन्यवाद आपका..तथा गलती सुझाने के लिये भी शुक्रिया।।
Deleteलाजवाब समीक्षा है ... अब तो उत्सुकता बड गई है इसे देखने की ... फिर सिनेमा के दिग्गज भी कह रहे हैं ... देखते हैं कैसे मिलेगा इसका डी वी डी ... दुबई सिनेमा में तो ऐसी फिल्में देकने को शायद ही मिलें ...
ReplyDeleteजरूर देखें नासवा जी...निश्चित ही आप इसे पसंद करेंगे।।।
Deleteज्ञान भी मनोरंजन के माध्यम से परोसा जा सकता है।
ReplyDeleteसही कहा प्रवीणजी...
Deleteबहुत सुंदर समीक्षा ..
ReplyDeleteधन्यवाद अमृताजी..
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