Friday, March 12, 2010

एक देश-एक जूनून : IPL-3


आई पी एल -३ ने दस्तक दे दी है। पिछले वर्ष इसकी मार्केटिंग कुछ इस तरह हुई थी-"उपरवाले ने एक धरती बनाई हमने उस पर सरहदें बनाकर उसे कई देशों में बाँट दिया, लेकिन अब ये सरहदें मिटेंगी और सारे विश्व का एक देश एक जूनून होगा। " जी हाँ आई पी एल के ज़रिये दुनिया को एक करने का राग आलापा जा रहा है। इसे मनोरंजन का बाप कहा जाता है और इसका ग्लैमर कुछ ऐसा है की दिग्गज उद्योगपति और फ़िल्मी सितारे भी खुद को इसकी नाजायज़ औलादें बनाने पर आमदा है।


बड़े-बड़े संत महात्मा जो काम न कर पाए वो काम अब ललित मोदी की क्रिकेट लीग करने चली है। BCCI ने अपनी रईसी से दिग्गज क्रिकेट सितारों को तमाशा दिखाने इकठ्ठा कर लिया है। परिस्थितियों की बिसात पर रिश्तों का ताना-बना बुना जा रहा है। लक्ष्मी के आगे दोस्त, दुश्मन और दुश्मन, दोस्त बन रहे हैं। मनीपावर का ही खेल है जो एक भाई राजस्थान और दूसरा पंजाब से एक दुसरे के खिलाफ जंग लड़ रहे है। इतना सब होने पर भी सरहदें मिटने का राग आलापा जा रहा है।


दरअसल सरहदें ज़मीन पर नहीं इन्सान के दिमाग में होती है। दिमागी सरहदें ही इस दुनिया को आज तक बांटते चली आ रही हैं। एक घर में रहने वाले भाई, देवरानी-जेठानी, सास-बहु को यही सरहदें अलग करती है और इनके न होने पर कई बार दो दुनिया के लोग भी एक होते हैं। प्रसिद्द व्यंग्यकार सुरेन्द्र शर्मा कहते हैं-"लोग गलत कहते हैं दीवार में दरार पड़ती है दरअसल जब दिल में दरार पड़ती है तब दीवार बनती है।" आई पी एल के ज़रिये विश्व को एक करने की बात रास नहीं आती है। इसे देख लगता है की मोहल्ले की एकता के लिए घर में सरहदें बनायीं जा रही है।


"वसुधैव कुटुम्बकम" का सपना क्रिकेट से नहीं बल्कि "परस्परोपग्रह जीवानाम " अर्थात एक दुसरे के प्रति प्रेम और उपकार की भावना से पूरा होगा। इंसानियत के आलावा दूजा कोई विकल्प नहीं जो हमें एक कर सके। आई पी एल खिलाडियों और उद्योगपतियों को तो ख़ुशी दे सकता है पर आम आदमी इससे ठगाया ही जा रहा है। प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से हमारी जेबों से निकला हुआ पैसा ही इन तमाश्गारों की तिजोरी हरी कर रहा है। सारा ताम-झाम विज्ञापन और टी आर पी का है।

ये क्रिकेट नातो राष्ट्र भावना का संचार करता है न ही ये विशुद्ध क्रिकेट है। मनोरंजन का बाप जब सुप्त अवस्था में जायेगा तो गंभीर-दिल्ली का, सचिन-मुंबई का और युवराज-पंजाब का नहीं ये सब अखंड भारत के सपूत होंगे। जब असली क्रिकेट कि बात होगी तो लोग पांच दिनी टेस्ट मैचों को ही ललचायेंगे। चीयरलीडर्स के कपड़ों की तरह छोटा किया गया ये क्रिकेट असली क्रिकेट के पिपासुओं कि प्यास नहीं बुझा सकता। इसकी बढती लोकप्रियता इसकी महानता का पैमाना नहीं है। दरअसल हम उस देश के वासी है जहाँ हर विचार हिट होता है। देश की दशमलव पांच प्रतिशत जनता किसी भी विचार को सुपर-डुपर हिट करने को काफी है। इस छोटे से आंकड़े को जुटाना बहुत मशक्कत का काम नहीं है।

इस क्रिकेट के होने से सरहदों के मिटने का भ्रम न पाले। सरहदों का निर्माण हमारी कुछ ज्यादा ही समझ का परिणाम है। विभाजन हमारे स्वार्थ से पैदा हुआ है। दीवारें हमारी कभी न मिटने वाली इच्छाओं का परिणाम है। गनीमत है हवा-पानी और ये ज़मीन खुद नहीं बटती नहीं तो इंसानी अस्तित्व ही खतरे में हो जाये। रिफ्यूजी फिल्म का एक गीत है "पंछी नदिया पवन के झोंके कोई सरहद न इन्हें रोके, सरहद इंसानों के लिए है सोचो मैंने और तुमने क्या पाया इन्सान होके" खुद से यही हमारा प्रश्न है कि इन्सान होके हमने कर क्या लिया? शिक्षित होकर हम वेवकूफ क्यों हो रहे हैं, हम पैदा तो ऐसे नहीं हुए थे।

खैर दुनिया की गतिविधियों के बारे में सोचना तो संभव है पर उन्हें बादल पाना मुश्किल। हर चीज का तार्किक होकर खुद को विचार करना है। सही-गलत का उत्तर हमें अपने-आप से ही मिलेगा। बहरहाल देखते हैं इस बार आईपीएल क्या रंग दिखाता है।

2 comments:

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