Saturday, October 30, 2010

व्यक्ति का सच और सच का सामना


स्टार प्लस पर एक सीरियल प्रसारित हुआ करता था-सच का सामना..जो खासा चर्चा में भी रहा था। इसके पक्ष-विपक्ष में चर्चा करने वाले जहाँ-तहां नुक्कड़-चौराहों पर नज़र आ जाया करते थे। राजनीतिक दहलीज पर भी इस सीरियल के खिलाफ स्वर मुखरित हुए। लेकिन आश्चर्य की बात ये थी की इस कार्यक्रम की निंदा करने वाले भी देर रत अपने बच्चों को सुलाकर इसका मज़ा लूटा करते थे। खैर....बात कुछ और करना है....

इन्सान की दिली ख्वाहिश होती है दूसरे के मन का सच जानने की, लेकिन अपने सच पर वो हमेशा पर्दा डालना चाहता है, क्योंकि हमाम के अन्दर हर इन्सान नंगा है। इन्सान की इसी मनोभावना ने इस सीरियल का संसार तैयार किया था....

मानवमन बीसियों अंतर्विरोधों से होकर गुजरता है और इन अंतर्विरोधों में वह अपने ही अन्दर के सच को नाही जान पाता, उसे अपनी हसरतों, जरूरतों का ही पता नहीं होता, बस ताउम्र यही चीज उसे तडपाती है कि something is actualy missing....

वो समथिंग क्या है ये उसे नहीं पता। एक इन्सान के कई रूप होते हैं वो एक ही जीवन में कई जीवन जीता है। अगले क्षण वो कैसा जीवन जियेगा ये पता नहीं होता। ऐसे में वो कैसे अपना सच जन पाएगा। सच का सामना सीरियल में इन्सान के उस रूप को बेनकाब किया जाता था जिसे समाज, नीति या चरित्र विरुद्ध माना जाता है। लेकिन व्यक्ति का वो चेहरा उसका शाश्वत चेहरा नहीं होता। शायद इसीलिये हम इन्सान के उस रूप से घृणा नहीं कर सकते।

आज का इन्सान ऐसी बहुरूपिया प्रवृत्ति का धारक है कि मंच पर नैतिकता कि दुहाई देता है तो बंद कमरे में नैतिकता का चीरहरण करता है। हर इन्सान को ये पता है कि दूसरे को कैसा जीवन जीना चाहिए पर ये नहीं पता कि खुद को कैसा जीवन जीना चाहिए। सब चाहते हैं बुद्ध, महावीर, गाँधी पैदा हों पर अपने घर में नहीं, पडोसी के घर में। जीवन भर इन्सान अपने नकाब बदलता रहता है इसीलिए किसी शायर ने कहा है-"हर इन्सान में होते हैं बीस-तीस आदमी, जब भी किसी को देखना बार-बार देखना"।

सच का सामना करने के लिए फौलादी जिस्म चाहिए। सच का आकांक्षी इन्सान जब सच से रु-ब-रु होता है तो पैरों तले जमीन खिसक जाती है। इसलिए लोग सच को कडवा कहते हैं। भाई, सच तो अति मधुर है अब यदि लोगों को फरेबी का बुखार होने से मूंह कडवा है तो कोई क्या कर सकता है। यदि जल निश्छल भाव से कंठ में उतरे तो प्यास बुझाता है अब यदि किसी के कान में जाकर वह कष्टकर हो तो इसमें जल का दोष नहीं।

सच की अभिव्यक्ति से ज्यादा जरुरी सच की स्वीकारोक्ति है। सच यदि अभिव्यक्त है तो स्वीकृत हो ये जरुरी नहीं पर यदि स्वीकृत है तो अभिव्यक्त होगा ही होगा।

बहरहाल, 'सच का सामना' सीरियल के सम्बन्ध में मैं कोई राय नहीं रखूँगा। उसका निर्णय आप अपनी रूचि अनुसार लें। दरअसल मीडिया वही दिखाता है जो हम देखना चाहते हैं। इसलिए मीडिया को नैतिकता कि नसीहत देना बेमानी होगी, टीवी का रिमोट हमारे हाथ में हैं। अब यदि आप खुद साउंड कम करके इंग्लिश चेनल देखते हैं तो आप अपनी गिरेबान में झांक कर देखें।

वैसे अच्छा ही है कि सच सबके सामने नहीं है यदि हर इन्सान पूर्णतः प्रकट हो जाये तो सारा आचार-विचार-व्यवहार हिल उठेगा, क्योंकि इंसानी मन-मस्तिष्क में साजिशों का सैलाब हिलोरें ले रहा है उन साजिशों का मंजर कितना भयावह हो सकता है इसका अंदाजा लगाना बहुत मुश्किल है। इस सन्दर्भ को समझने के लिए कमलेश्वर के उपन्यास 'कितने पाकिस्तान' को पढना चाहिए। जहाँ अमूर्त साजिशों के मूर्त होने कि कल्पना की गयी है।

हर विचार को शब्द न मिल पाना कहीं न कहीं बहुत अच्छा है। इन्सान के मैले विचार मन में ही घुमड़कर ख़त्म हो जाते हैं यदि ये प्रगट हो जाए तो पूरा माहौल ही मैला हो जाए। चलिए, बहुत बातें हुई इन बातों को बहुत बढाया जा सकता है पर कम कहा, अधिक समझना, और समझना हो तो ही समझना नहीं तो मेरी बकवास जानकर आप जैसे में मस्त हो वैसे रहना। मूल मुद्दा खुश रहने का है वो ख़ुशी जहाँ से मिले वहाँ से लीजिये। पर ध्यान रहे वह ख़ुशी महज कुछ समय कि नहीं होना चाहिए....तलाश शाश्वत सुख की करना है.......अनंत को खोजना है......

Monday, September 6, 2010

सितारा सिंहासन और दबंग सलमान


फ़िल्मकार प्रीतिश नंदी ने कुछ दिनों पहले एक लेख में लिखा था कि वे जिस बेसब्री से फिल्म 'दबंग' का इंतजार कर रहे हैं ऐसा इंतजार उन्होंने सालो से किसी फिल्म का नहीं किया। कारण-इसके आकर्षक ट्रेलर और सलमानी प्रभाव। ये बात तो तय है कि भले ये फिल्म बॉक्स ऑफिस पे सफलता के झंडे गाढ़े, लेकिन ये खास गुणवत्तापरक फिल्मों में से एक नहीं होगी। पूरी तरह मसाला, एक्शन फिल्म होगी ये सब जानते हुए भी मैं इसे थियेटर में पहले दिन ही देखना चाहता हूँ...कारण वही- इसका सलमानी प्रभाव।

भारतीय हिंदी सिनेमा के पारंपरिक नायक की छवि का निर्वहन करने वाले सलमान इकलौते कलाकार हैं। दर्शक जिनमे अवतारी पुरुष की कल्पना करते हैं। सलमान की शख्सियत कुछ ऐसी भी रही की वे कभी सुपर सितारों की रेस में शामिल नहीं रहे...उन्हें कतई ऐतराज नहीं कि शाहरुख़ बालीवुड के बादशाह बने रहे, आमिर सबसे बुद्धिजीवी कलाकार माने जाये या अक्षय सबसे ज्यादा कमाई करने वाले स्टार कहलाये। इस बिगड़े शहजादे को तो बस दर्शकों के दिल में रहने से मतलब है। और इसका प्रमाण चाहिए तो आप दबंग की ओपनिंग देख लीजियेगा। 70mm के परदे पर जब अकड़ से भरी चाल के साथ ये बिगडैल एंट्री करता है....तो सारा सिनेमा हाल सीटियों और तालियों से गूँज उठता है।

दरअसल सलमान की अपनी ही अलग USP है जिसके कारण वे पिछले २१ सालो से बालीवुड में मजबूती से बने हुए हैं और अगले - साल तक तो कोई उनकी जगह छीनता नहीं दिखता। इसका कारण भी साफ है कि सलमान ने अपनी जगह किसी को रिप्लेस करके नहीं बनाई बल्कि उन्होंने अपना एक अलग ही मुकाम निर्मित किया है....तो जब उन्होंने किसी की जगह नहीं छीनी तो कोई उनकी जगह कैसे छीन सकता है। प्रख्यात फिल्म समीक्षक जयप्रकाश चौकसे सलमान के हिंदी सिनेमा के प्रभाव को दक्षिण के रजनीकांत के प्रभाव के समतुल्य आंकते हैं। दोनों ही पारंपरिक नायक है और दोनों ही 'नेकी कर दरिया में डाल' की तर्ज पर दूसरों का भला करने के लिए जाने जाते हैं।

वैसे ये सलमान के लिए ही मै नहीं कह रहा हूँ बल्कि बालीवुड के सभी ४० पार के सितारों की अपनी ही अलग USP है- जिसके दम पर कोई नया सितारा इनके सिंहासनो को नहीं डिगा पा रहा। शाहरुख़ की अपनी अदाए और जुदा स्टारडम है...आमिर को हर चीज में परफेक्शन पसंद है...अक्षय के सामने कोई भी स्क्रिप्ट लाइए वे स्क्रिप्ट के झोल को अपनी अदाकारी और खिलंदड स्वरुप से दबाकर फिल्म चला ले जाते हैं...अजय के गाम्भीर्य और पुख्ता एक्टिंग का कोई जवाब नहीं। यही कारण है रणवीर, इमरान, शाहिद की यदा-कदा चलने वाली तूफानी हवाओं से इन्हें कुछ फर्क नहीं पड़ता।

सलमान की एक और खाशियत रही कि अपने २१ वर्षीय करियर में उन्होंने अपनी छवि कई बार बदली। 'मैने प्यार किया' का रोमांटिक प्रेम 'हम साथ-साथ हैं' के प्रेम और 'बागबान' के आलोक से अलग है....'हम दिल दे चुके सनम' का समीर 'तेरे नाम' के राधे से अलग है....अब ये 'वांटेड' सलमान 'वीर' बनकर 'दबंग' हो गया है। और आज के 'रंग दे बसंती', ' इडियट्स' और 'जब वी मेट' वाले बुद्धिजीवी सिनेमाई माहौल में अतार्किक 'दबंग' पेश कर धूम मचाने को तैयार हैं।
चलिए इस सलमानी प्रभाव का मजा थियेटर में ही लिया जायेगा....अभी के लिए इतना ही....

Saturday, August 14, 2010

आजाद भारत की गुलाम तस्वीर-"पीपली लाइव"


तेजी से बदलती संस्कृति, मिटती रूढ़ियाँ, नयी-नयी खोजें, बड़ी-बड़ी इमारतें, आलिशान मॉल-मल्टी प्लेक्स, सरपट दौड़ती मेट्रो ट्रेन...और जाने क्या-क्या हमने विकसित कर लिया है स्वतंत्रता की इस ६३वी वर्षगाठ तक पहुँचते-पहुँचते...लेकिन बहुत कुछ है जो अब भी नहीं बदला..शाइनिंग इंडिया विकसित हो रहा है पर पिछड़ा भारत जस का तस है। शिक्षा, रोजगार, औद्योगिकीकरण भारत का जितना बड़ा सच है उतना ही बड़ा सच है गरीबी, अन्धविश्वास, रूढ़िवादिता और तंगी में बढती आत्महत्याएँ। बहरहाल....

बात पीपली लाइव की करना है...मिस्टर परफेक्शनिस्ट की एक और खूबसूरत सौगात। आसमानी उचाईयों को छूने जा रहे हिन्दुस्तान की कडवी तस्वीर को बताती फिल्म...जो सरकार से सवाल करती है कि क्या वाकई हमें आजाद हुए ६३ वर्ष हो चुके हैं। एक गंभीर मुद्दे को हास्य-व्यंग्य से दिखाने का अनुषा रिज़वी का प्रयास सराहनीय है। जिस देश की अर्थव्यवस्था खेती पर ही सर्वाधिक निर्भर है उस देश का किसान ही जब कर्जे के बोझ से दबकर आत्महत्या करेगा तो फिर क्या होगा उस देश का? आजादी के ६३ सालो बाद भी हम एक ऐसा माहौल नहीं बना पाए जहाँ इन्सान सुख से जी सके। इन्सान की जिन्दगी को विलासितापूर्ण बनाने की बात तो दूर उसकी मूलभूत जरूरतों (रोटी-कपडा और मकान) का बंदोबस्त ही नहीं हो पाया है।

तो आखिर इन ६३ वर्षों में क्या किया हमने? ढेरों योजनायें बनाई, कई क्रांतियाँ चलाई, खूब आन्दोलन-प्रदर्शन किये...पर इन सब का लाभ आखिर किसको हुआ? क्या कारण है कि आज भी तकरीबन आधी आबादी गरीबी रेखा के नीचे जिन्दगी बसर कर रही है, क्यों किसान जिन्दगी की जगह मौत को चुन रहे हैं, क्यों करोड़ों ग्रामीण बच्चे अब भी शिक्षा से दूर है, क्यों अब भी भूख से मौतें हो रही है? इन तमाम प्रश्नों के जवाब ये फिल्म सरकार से, हम सबसे मांगती है। आखिर कब हम व्यक्तिगत हितों को भूलकर, भ्रष्टाचार विमुक्त हो राष्ट्रहित के बारे में सोचेंगे? आखिर कब हमारे विकास के मापदंड एक खास वर्ग तक सीमित न रहकर सारे देश को अपने में समाहित करेंगे?

हरिशंकर परसाई, शरद जोशी और श्रीलाल शुक्ल की व्यंग्य रचनाओं में भारत के विरोधाभास और विसंगतियां खूब साफ उभरकर आती हैं और ‘पीपली लाइव’ उसी शैली की सेल्युलाइड पर गढ़ी रचना है। हबीब तनवीर की शैली भी इस फिल्म में नज़र आती है। सरकार और मीडिया में फैली सड़ांध को बखूबी महसूस किया जा सकता है। जनता के दर्द पे ही राजनीति की रोटियां सिक रही है और यही दर्द टीआरपी बड़ा रहा है। सर्वत्र असंवेदनशीलता का माहौल है ऐसे में आखिर किस के सामने इस दर्द की गुहार लगाई जाये। यहाँ तो दर्द कि बिक्री शुरू हो जाती है। त्रासदियों के मेले लगाये जा रहे हैं। दर्द में आकंठ इन्सान के मूत्रत्याग करने तक की ख़बरें बनायीं जा रही हैं। देश और दुनिया की भयावह तस्वीर...जी हाँ हमें आजाद हुए ६३ साल हो चुके हैं।

अनुषा ने पटकथा और फिल्म की पृष्ठभूमि पर अच्छी मेहनत की है। ग्रामीण परिवेश की बारीकियों का खासा ध्यान रखा है। अनुषा के इस प्रयास के लिए प्रसिद्द फिल्म समीक्षक जयप्रकाश चौकसे उन्हें मानद डॉक्टरेट की उपाधि देने की बात कहते हैं जो सही जान पड़ता है। वाकई ये एक फिल्म मात्र न रहकर शोधपत्र बन गई है।

फिल्म का संगीत बेहतरीन है जिसके कुछ गीत "महंगाई डायन" और "चोला माटी के राम" ने तो पहले ही काफी प्रसिद्धि पा ली थी। संवाद भी बड़े चुटीले है जो मध्य प्रदेश के रायसेन-सागर-विदिशा वेल्ट के गाँवो की स्थानीय भाषा में ही जस के तस गढ़े गए हैं...जैसे-'मुंह में दही जम गओ का' या 'अपनों तेल पटा पे धर लए और कढैया तुम्हे दे दए'...गालियों का प्रयोग है जो एक खास वर्ग को नागवार गुजरेगा पर ये उन गाँवो की हकीकत है। हर कलाकार का अभिनय कमाल का है-अम्माजी के किरदार में फारुख ज़फर और धनिया के रोल में शालिनी वत्स आकर्षित करती हैं...रघुवीर यादव अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप हैं।

कुछेक जगह पे फिल्म कमजोर पड़ती दिखाई दी है पर जल्द ही घटनाक्रम का बदलाव उस कमी को पूरा कर देता है। हो सकता है एक खास वर्ग को कुछ विशेष आग्रह के कारण ये फिल्म पसंद न आये लेकिन ओवरआल एक मनोरंजक और संदेशप्रद फिल्म है....जिसे सत्ता में बैठे देश के कर्णधारों को जरुर दिखाया जाना चाहिए....

(मासिक पत्रिका 'विहान' के प्रथम अंक में प्रकाशित)

Thursday, August 5, 2010

जोश-जुनून-जज्बात और जवानी


किसी ने कहा है-"youth is the best time to be rich & the best time to be poor...they are quick in feelings but weak in judgment"...

व्यक्ति के जवानी का दौर एक ऐसी संकरी पगडंडी है जिसके एकतरफ छलछलाते गर्म शोले हैं तो दूसरी ओर अथाह समंदर। एक तरफ भस्म हो जाएँगे तो दूसरी तरफ डूब जाएँगे। पगडंडी की संकरी गली से होकर ही मंजिल तक पहुंचा जा सकता है। जबकि रास्ते में कई ऐसे मौके आते हैं जब आदमी फिसल सकता है।

जवानी में इन्सान नितांत भौतिकवादी होता है। नैतिकता और अनुशासन टिशु पेपर की तरह होते हैं जो बस कुछ देर के लिए खुद कों सभ्य दिखलाने का माध्यम होते हैं। हृदयस्तम्भ पर सपनो की लहरें आसमान छूने कों बेक़रार हैं। अंतस में समाया जुनून ज्वालामुखी बनकर फटना चाहता है। जज्बात श्वाननिद्रा की तरह होते हैं जरा सी भनक पड़ते ही जाग जाते हैं।

दिल, दिमाग पर हमेशा भारी रहता है। दरअसल दिल और दिमाग में से कोई भी एक यदि दुसरे पे भारी रहता है तो नुकसान ही उठाना पड़ता है। दिलोदिमाग का सही संतुलन बहुत जरुरी है। जोश, दिल में पैदा होता है दिमाग उसे होश देता है। महज जोश में सही फैसले नही होते उसके लिए होश जरुरी है और 'व्यक्ति की पहचान उसकी प्रतिभा से नही उसके फैसलों से होती है'। फैसले दिलोदिमाग के सही संतुलन का परिणाम है।

युवामन निरंकुश हाथी है अच्छी संगति उसे अंकुश में लाती है और गलत साथ निरंकुशता को और बढ़ा देता है। उस दशा में इन्सान को घर-परिवार, माँ-बाप, धर्म, संस्कृति, अनुशासन, सत्शिक्षा फांस की तरह चुभती है। अनुभवियों के उपदेश कान में गए पानी की तरह दर्द देते हैं। हर व्यक्ति अपनी गलतियों से ही सीखता है उसे समझाना एक नासमझी है। हर इन्सान खुद को वल्लम दुसरे को बेवकूफ समझता है।

भौतिकता में रंगा आधुनिक व्यक्ति आध्यात्मिक संत-महात्मा को पागल समझते हैं। आध्यात्मिकता में रंगे संत-महात्मा आधुनिक इन्सान को मोह-माया में पागल समझते है। दरअसल किसी के समझने से कुछ नही होता जो जैसा होता है बस वैसा होता है। इन्सान की कई तकलीफों में से एक तकलीफ ये भी है कि उसे हमेशा ये लगता है कि 'मुझे कोई नही समझता'। अब भैया किसी को क्या पड़ी है दूसरे को समझने की, यहाँ तो लोग खुद को ही नही समझ पाते, दूसरे को क्या खाक समझेंगे।

जवानी की दहलीज पर एक और खुद के सपनो को पूरा करने का दबाव होता है तो दूसरी तरफ दिल में समाये मोहब्बत के जज्बात। कई बार कोई जज्बात नही होते तो भी युवा जज्बातों को उकेरकर तैयार कर लेते हैं। पैर फिसलने की सम्भावना यहाँ सर्वाधिक होती है दरकार फिर सही निर्णय लेने की होती है।

गलत रास्तों पर भटके युवाओं को सही बात समझ आना, न आना मूल प्रश्न नही है, मूल प्रश्न ये है की सही चीज समझ में कब आएगी। देर से प्राप्त हर चीज दुरुस्त नही होती। जवानी तो मानसून का मौसम है यहाँ बोया गया बीज ही बसंत में बहार लाएगा। गर ये मानसून खाली चला गया तो पतझड़ के बाद वीरानी ही वीरानी है।

संस्कारो व सत्चरित्र का प्रयोग बुढ़ापे में नही, जवानी में ही होता है। संस्कारो के पालन से मौज-मस्ती बाधित नही होती बस मस्ती के मायने थोड़े अलग होते हैं। बार में बैठकर जिस्म में उतरती दारू-सिगरेट ही तो मस्ती नही है। दोपहर के तपते सूरज को देखकर ये आकलन हो सकता है कि शाम कितनी सुहानी होगी। जवानी दोपहर है और शाम बुढ़ापा। सुवह कि चमक तो हमने आँख मलते में ही गवां दी अब शाम कि लालिमा ही राहत दे सकती है।

कहते हैं जवानी, दीवानी होती है पर ये एक ख़ूबसूरत कहानी भी हो सकती है। जिसका मीठा रस हमें जीवन के संध्याकाल में मजा दे सकता है। इस मानसून के मौसम में आम और अनार के पेड़ लगा लीजिये, नागफनी के वृक्षों में क्यों अपना समय बर्बाद करते हैं...........

Monday, June 21, 2010

छत की अहमियत...(father's day special)


माँ को धरा का दर्जा दिया जाता है, और हमने भी सदा से धरती की पूजा की है। बेशक धरती की कीमत को आंकना आसान नहीं है लेकिन इस सबके बावजूद छत की अहमियत कभी कम नहीं हो जाती। इस बात को शायद वो इन्सान अच्छे से समझ पायेगा जिसके सर पे छत नहीं होती। उस सुकून को बयां करने वाले शब्द नहीं है जो पिता की छाया में मिलता है। हम कई बार सोचते हैं कि चरम तनाव, चिंता कि स्थितियां हम तक क्यों नहीं पहुँच पाती..यदि इसके तह में जाकर देखें तो वो पिता है जो ढाल बनकर इन सारी विपदाओं से हमें बचा रहे होते हैं।

पिता कि मज़बूरी है कि वो अपने बच्चों को बस दूर से चाह सकता है क्योंकि संवेदनाओं को जाहिर करने वाला सबसे बड़ा हथियार आंसूओ का वो सहारा नहीं ले सकता। बच्चे भी अपने मन की बात बस मां से बताते हैं, उसी के गले से लिपट के अपना प्यार इज़हार करते हैं। इस सारी स्थिति में पिता बस दूर से इन दृश्यों को निहारकर राहत महसूस करता है। पुरुष को अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए तेज आवाज और गुस्से का सहारा ही लेना पड़ता है, वह रोता नहीं, नरमी नहीं दिखाता...इसलिए बच्चों पर अपनी भावनाएं व्यक्त करने की छटपटाहट उसे बेचैन किये रहती है। मजबूरन उसे बच्चों को सोते हुए निहारना ही चैन देता है। हमारी सफलता पर हम मां के गले लिपटकर ख़ुशी का इजहार करते हैं पर हमारा मुंह मीठा करने सबसे पहले मिठाई का डिब्बा पिता लेकर आते हैं।

पिता-पुत्र जीवन भर असंवाद की स्थिति में रहते हैं, फिर भी बिना कुछ कहे जाने कैसे पिता को अपने पुत्र की जरूरतों का ख्याल रहता है...बेटे के बड़े होते ही उसे साइकल दिलाना हो, मोबाइल या बाइक दिलाना हो या ATM में पैसे ख़त्म होने से पहले ही रुपये आ जाना हो सब कुछ बिना कहे ही हो जाता है। अपने सपने और अपनी जरूरतों का गला घोंटकर बस बच्चों कि परवरिश ही जिस इन्सान का एक मात्र उद्देश्य होता है वो है पिता। वो हमसे कभी नहीं कहते कि स्कूल कि फीस कैसे भरी या घर के खर्चे कैसे पूरे किये, या लेपटोप दिलाने के पैसे कहाँ से आये...वे नहीं कहते कि अब उनके घुटनों में दर्द होने लगा है, जल्दी थकान हो जाती है या ब्लड प्रेशर या सुगर बढ गयी है....नहीं, परिस्थितियों के बादलों से बरसी चिंता कि किसी बौछार को ये छत हम तक नहीं पहुँचने देती।

पिता बस पिता होता है उसकी तुलना किसी से नहीं है...अलग-अलग स्टेटस से लोग एक इन्सान के स्तर पर तो भिन्न-भिन्न हो सकते हैं पर पितृत्व के स्तर पे नहीं। एक करोडपति बिजनसमेन या एक झुग्गी के गरीब पिता की पितृत्व सम्बन्धी भावनाओं की ईमानदारी में कोई अंतर नहीं होता, उसके इजहार में भले फर्क हो। हर पुत्र के लिए उसका पिता ही सबसे बड़ा हीरो है, उस एक इन्सान के कारण ही बेफिक्री है, अय्याशी है, मस्ती है। पुत्र के लिए पिता का डर भी बड़ा इत्मिनान भरा होता है,एक अंकुश होता है। प्रायः पिता की हर बात उसे एक बंधन लगती है, पर उस बंधन में भी गजब का मजा होता है।

इन सब में पिता को क्या मिलता है...आत्मसंतोष का अद्भुत आनंद। पुत्र के बचपन से जवानी तक की दहलीज पर पहुचने की यादें मुस्कराहट देती है। बेटे की सफलताये खुद की लगती है। बेटे से मिली हार खुशनसीबी बन जाती है।
आश्चर्य होता है कैसे एक इन्सान खुद को किसी के लिए इतना समर्पित कर देता है? कैसे पूरा जीवन किसी और के जीवन को पूर्णता देने में बीत जाता है? सच कहा है- कि भगवान इन्सान को देखने हर जगह नहीं हो सकता था शायद इसलिए उसने मां-बाप को बनाया।

लेकिन दुःख होता है कि नासमझ इन्सान के सबसे बड़े हीरो यही मां-बाप समझदार इन्सान के लिए बोझ बन जाते हैं। अपने बुढ़ापे के दिन काटने के लिए उन्हें आश्रम तलाशना होता है। हमारे दोस्तों और नए सगे-सम्बन्धियों के सामने वे आउट-डेटेड नज़र आते हैं। ऑरकुट और फेसबुक पर सैंकड़ो दोस्तों का हाल जानने का समय है हमारे पास, पर इतना समय नहीं कि पिता की कमर दर्द या मां की दवा के बारे में पूंछ सके। बुढ़ापे के कठिन दौर में जहाँ सबसे ज्यादा अपनेपन की जरुरत होती है वहां यही बूढ़ा बाप किसी फर्नीचर की तरह पड़ा रहता है। और विशेष तो क्या कहूँ, अपनी संवेदनाओं को झंकृत करने के लिए अमिताभ की फिल्म "बागबान" और राजेश खन्ना की "अवतार" देखिये।
अंत में बागबान के एक संवाद के साथ विश्व के सभी पिताओं के चरणों में नमन करता हूँ "मां-बाप कोई सीढ़ी की तरह नहीं होते कि एक कदम रखा और आगे बढ़ गए, मां-बाप का जीवन में होना एक पेड़ कि तरह होता है, जो उस वृक्ष कि जड़ होते हैं उसी पर सारा वृक्ष विकसित होता है...और जड़ के बिना वृक्ष का कोई अस्तित्व नहीं है। "