Wednesday, December 24, 2025

बुर्ज खलीफ़ा से मन की यात्रा तक : एक सफ़र, कई अर्थ

और आखिर…

समय फिर अपनी एक और परत उतार चुका है। वर्ष 2025 का अंतिम सप्ताह शुरू हो गया है। कैलेंडर के पन्ने भले बदल रहे हों, लेकिन मन कुछ ठहर–सा गया है—बीते वर्ष की ओर। जब पीछे मुड़कर देखता हूँ, तो एहसास होता है कि जीवन में सब कुछ योजनाबद्ध नहीं होता। कई बार जो घटता है, वही सबसे ज़रूरी होता है। कई बार जिन रास्तों पर बिना तैयारी निकल पड़ते हैं, वही भीतर तक पहुँचा देते हैं।

यूँ तो इस पूरे वर्ष में काम, दायित्व और संघर्षों की अपनी कहानी रही, लेकिन इन सबके बीच एक यात्रा है जो स्मृति में बार–बार उभर आती है—यूएई की वह यात्रा, जो महज़ देशों और शहरों की नहीं थी, बल्कि भीतर और बाहर—दोनों दिशाओं में की गई एक यात्रा थी।

यह सफ़र किसी पर्यटन की लालसा से शुरू नहीं हुआ था। एक निजी कार्य के सिलसिले में 24 सितंबर से 30 सितंबर 2025 तक आबुधाबी, दुबई और अजमान जाना तय हुआ। मेरे साथ थे—मेरा आठ वर्षीय बेटा तत्त्वार्थ, मित्र विवेक और उसका पुत्र निर्ग्रन्थ। सच कहूँ तो मन में यह यात्रा बस काम तक सीमित रखने का विचार था। लेकिन बच्चों की उत्सुक आँखों, उनके प्रश्नों और उनके सपनों ने इस सफ़र को विस्तार दिया। शायद जीवन भी ऐसा ही है—हम सीमाएँ तय करते हैं, और नियति उन्हें धीरे–धीरे तोड़ती चली जाती है।

24 सितंबर की रात मुंबई से एतिहाद एयरवेज़ की उड़ान ने हमें आबुधाबी की ओर ले जाना शुरू किया। विमान की खिड़की से झाँकते हुए नीचे फैलता अँधेरा और ऊपर सितारों की शांति—मन को अनायास ही भीतर की यात्रा पर ले जा रही थी। लगा, जैसे ज़मीन से उठते ही कई विचार भी पीछे छूटते जा रहे हों। शायद यात्रा का पहला चरण यही होता है—अपने भीतर के बोझ से थोड़ा हल्का होना।

25 सितंबर की सुबह आबुधाबी पहुँचे। वहाँ से बस द्वारा दुबई की ओर प्रस्थान किया। यह रास्ता महज़ शहरों को जोड़ने वाला नहीं था—यह अनुशासन, आधुनिकता और दृष्टि का रास्ता था। चौड़ी सड़कें, सटीक ट्रैफिक, शांत गति—मानो यह देश अपने नागरिकों को यह सिखा रहा हो कि विकास शोर से नहीं, व्यवस्था से आता है।

दुबई पहुँचकर होटल में ठहरने के बाद शाम को हम बर दुबई की गलियों में निकल पड़े। अनजान ज़मीन पर चलना, विभिन्न भाषाओं, चेहरों और संस्कृतियों के बीच खुद को देखना—यह अनुभव भीतर कुछ खोलता है। वहाँ कोई आपको नहीं जानता, फिर भी आप स्वयं को अधिक जानने लगते हैं। यह पहली बार था जब दुबई सिर्फ़ एक शहर नहीं, एक एहसास बनकर सामने आया।

26 सितंबर का दिन गति से भरा था। दुबई फ्रेम में अतीत और भविष्य को आमने–सामने खड़ा देखा। म्यूज़ियम ऑफ़ द फ़्यूचर ने यह सवाल भीतर छोड़ा—क्या भविष्य केवल तकनीक है, या चेतना भी? दुबई क्रीक ने इतिहास की धड़कन सुनाई, मरीना वॉक ने वर्तमान की चमक दिखाई, और अटलांटिस, जाबील पैलेस व जुमेरा बीच ने यह एहसास दिया कि वैभव तब सुंदर होता है, जब वह संतुलित हो।

अगले दिन फिर आबुधाबी—लेकिन इस बार मन अलग था। बाप्स हिंदू मंदिर पहुँचकर भीतर एक गहरी शांति उतरी। लगा कि आधुनिकता और आध्यात्मिकता विरोधी नहीं हैं, यदि दोनों में सम्मान का भाव हो। फरारी वर्ल्ड और एमिरेट्स पैलेस ने वैभव दिखाया, लेकिन शेख ज़ायेद ग्रैंड मस्जिद ने विनम्रता सिखाई। श्वेत संगमरमर में लिपटी वह भव्यता दरअसल अनुशासन, श्रद्धा और दृष्टि का प्रतीक थी। वहाँ खड़े होकर यह समझ आया कि रेगिस्तान से इमारतें नहीं, संकल्प उगते हैं।

28 सितंबर का दिन कुछ खास था, सुबह ही अजमान स्थि जैन मंदिर में भगवान के दर्शन का सौभाग्य मिला। और उसके बाद साधर्मियों के बीच पहुँचकर, आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थ समयसार पर स्वाध्याय— यह अनुभव बाहर की यात्रा को भीतर से जोड़ रहा था। यूएई जैसे देश में रहकर भी लोग अपनी संस्कृति, संस्कारों और आध्यात्मिक चेतना को जीवित रखे हुए हैं—यह देखकर लगा कि जड़ें गहरी हों, तो मिट्टी बदलने से पेड़ नहीं सूखते।

शाम को डेज़र्ट सफारी—रेत के समंदर में उतरना, सूरज को ढलते देखना, ऊँट की सवारी और आग का नृत्य। बच्चों की खुशी में खुद को देखना—यह शायद किसी भी पिता के लिए सबसे बड़ा पुरस्कार होता है। लगा कि यात्राएँ बच्चों को दुनिया दिखाने के लिए नहीं, उन्हें संवेदना सिखाने के लिए होती हैं।

29 सितंबर को बुर्ज खलीफ़ा की 125वीं मंज़िल से नीचे फैला दुबई देखा। ऊँचाई पर खड़े होकर मन ने एक सवाल किया—हम ऊपर क्यों जाना चाहते हैं? शायद इसलिए कि नीचे को बेहतर समझ सकें। शाम की यॉट राइड ने दुबई को रोशनी की कविता बना दिया। रात के समय यह शहर किसी सपने जैसा लगता है—पर एक जागता हुआ सपना।

अंतिम दिन दुबई के जैन मंदिर में दर्शन और साधर्मी भाई के यहाँ भोजन—अपनेपन का यह एहसास विदेश में और गहरा हो जाता है। संस्कार जब दूरी तय करते हैं, तो और मजबूत हो जाते हैं। वाकई, यह ट्रिप केवल एक विदेश यात्रा नहीं थी। यह बच्चों की आँखों में बसे सपनों, मित्रता की गर्माहट, साधर्मी बंधुत्व और आधुनिकता के बीच संस्कृति के संतुलन का साक्षात्कार थी।

शाम को आबुधाबी से मुंबई की उड़ान थी। लौटते समय लगा—हम वापस आ तो रहे हैं, लेकिन कुछ पीछे छोड़ नहीं रहे। कुछ साथ ले जा रहे हैं—अनुभव, प्रश्न, स्मृतियाँ और एक नई दृष्टि।

यह यात्रा शायद मुझे सिखा गई कि
सफ़र केवल देखने का नहीं होता,
सफ़र समझने का भी होता है,
सफर, खुद से गुजरने का भी होता है
सफर, शहरों को पढ़ने का भी होता है
अपने व्यक्तित्व को गढ़ने का भी होता है
और कभी–कभी,
रेगिस्तान हमें
खुद के सन्नाटों को चीरने के मंत्र
से भी परिचित करा देता है।

~अंकुर