Sunday, August 18, 2013

किसी दार्शनिक पुराण के पढ़ने का सा अनुभव- शिप ऑफ थीसिस

एक नितांत ऑफबीट फिल्म..जिसके प्रदर्शन पूर्व ही इसके निर्माता-निर्देशक ने इस बात की घोषणा कर दी थी कि ये सब के लिये नहीं है...बस इसलिये ही चुनिंदा जगहों पे सिलसिलेवार प्रदर्शित और वो भी बेहद कम प्रिंट और कम वक्त के लिये। हिंदुस्तान में प्रदर्शन से पूर्व कई अंतर्राष्ट्रीय मंचों पे सम्मानित..दिग्गज फिल्म विशेषज्ञों द्वारा प्रशंसित, जिसमें अनुराग कश्यप और करण जौहर जैसे निर्देशकों ने तो ये तक कह दिया कि 'इसे देखने के बाद लगता है कि हमें निर्देशन ही नहीं आता।' इतनी विशेषताएं बताके मैं अनायास ही इसकी महानता की गुणगाथा बयाँ नहीं कर रहा हूँ...और व्यवसायिक सिनेमा के प्रति हीनभाव भी प्रदर्शित नहीं कर रहा हूँ। दरअसल मैं ये कहना चाहता हूँ कि ये फिल्म जज़्बातों के इतने महीन रेशों से बुनी गई है कि मानसिक और बौद्धिक अंतर्द्वंदों की सैंकड़ों परतें फ्रेम दर फ्रेम उधड़ती जाती हैं..और फिल्म का अंत भी जाते-जाते एक यक्ष प्रश्न छोड़ जाता है..कि इस हाड़-माँस और तमाम अंग-प्रत्यंगों के अलावा भी इंसान का आखिर वजूद क्या है..हमारी इस भौतिक दायरे के परे क्या हस्ती है...हमारे अस्तित्व का वास्तविक परिचायक क्या है।

एक व्यक्ति से आठ लोगों का अंग-प्रत्यर्पण (organ transplant) कर उन्हें एक नया जीवन दिया जाता है। ये देख फिल्म की तीसरी कहानी में किडनी प्रत्यार्पित हुए व्यक्ति के दोस्त द्वारा ये पूछना.. कि इस तरह तो किसी एक व्यक्ति में सारे अंग प्रत्यर्पित कर, एक नये इंसान को बनाया जा सकता है? किडनी प्रत्यर्पित हुए शख्स का जवाब "नहीं यार, 'कुछ तो' पुराना ही रहता है, 'कुछ तो' बिना बदला ही रहता है"। ये 'कुछ तो' क्या है..बस इसकी तलाश में ही सारे धर्म-दर्शन का निर्माण हुआ है...और इसकी तलाश में ही इंसान बौद्धिक जुगाली के संसार से बाहर निकल अध्यात्म की परिधि में पहुँच जाता है। बात सिर्फ अंग-प्रत्यंगों की ही नहीं है बल्कि हमारे सारे विचार, हमारा आचरण और हमारे व्यवहार में अभिव्यक्त होने वाले हम भी, वस्तुतः हम नहीं है...ठीक उस तरह जैसे कि प्याज को परत दर परत उधड़ते हुए अंततः हमारे हाथ कुछ नहीं आता..बस एक महक रह जाती है। उसी तरह इंसान के भी व्यक्तित्व के पोस्टमार्टम करते हुए निरंतर नये-नये रूपों से परिचित होते हुए अंततः हमारे हाथ कुछ नहीं आता..बस एक अदृश्य-अबोध छवि रह जाती है..और चुंकि वो अदृश्य है इसलिये आधुनिक विज्ञान अब तक उसकी हस्ती से इंकार करता आ रहा है क्योंकि विज्ञान, सिर्फ इंद्रियग्राह्य प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानता है। 

ये फिल्म कोई समाधान या निष्कर्ष देती हो ऐसा नहीं है..ये तो महज हमें सोचने पे मजबूर करने वाले कुछ सवाल देती है..और वास्तव में जबाव नहीं, सवाल ही खोजे जाते है। सवाल के मिलने पे हम अपनी-अपनी रुचि और पुरुषार्थ के अनुसार अपने-अपने जबाव सहज ही पा लेते हैं। फिल्म में तीन कहानियां है..वे तीनों एक चीज़ से आपस में जुड़ी हैं जोकि अंत में हमारे सामने आता है। तीनों ही कथाएं अपने-अपने कई कथ्य मुहैया कराती हैं..किंतु तीनों अंत में जाके एक ही कथ्य में जाके ख़त्म होती हैं। इन तमाम कथ्यों में गर्भित संदेश इतना महीन हैं कि उसे एक बार में समझ सकना बेहद अशक्य है और हम जो भी समझते हैं उसमें बहुत कुछ हम अपने पूर्वाग्रह और समझक्षमता के अनुसार ही समझ पाते हैं..निर्देशक के भाव को एकबार में समझ पाना तो नामुमकिन सरीका ही है। इसे देखने के बाद मुझे प्रसिद्ध जापानी निर्देशक अकीरा कुरोसावा की वो उक्ति याद आई, जो उन्होंने सत्यजीत रे के संबंध में कहीं थी कि 'रे की फिल्मों को समझने के लिये कहीं से दूसरा दिमाग लाना पड़ेगा'। कुछ ऐसा ही शिप ऑफ थीसिस के साथ हैं।

तीनों कहानियां भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों को वर्णित करती हैं जिनमें पहली, जिसमें कि एक अंधी लड़की जिसे फोटोग्राफी का ख़ासा शौक है..उस लड़की के ज़रिये मानसिक आंखों से महसूस की जा सकने वाली दृश्यता से मनुष्य की अप्रतिम दृश्यक्षमता और कल्पनाशक्ति को प्रस्तुत किया है जोकि यथार्थ की इन उपलब्ध आँखों से कई गुना विशाल और सुंदर है..और हम अपनी उस अदृश्य चैतन्य शक्ति को इन चर्मचक्षुओं के चलते इग्नोर कर देते हैं। उस अँधी फोटोग्राफर और उसके पति के बीच एक फोटो को लेकर प्रस्तुत बहस कमाल की दर्शाई गई हैं..जो इन मानसिक और भौतिक चक्षुओं के मध्य व्याप्त अंतर्द्वंदों को शानदार ढंग से दिखाती भी है। दूसरी कहानी में अपने सिद्धांतों की दृढ़ता के चलते, अपने प्राणों को भी तुच्छ समझने वाले एक साधू की कहानी है जो अपने सिद्धांतों के विश्वास और अपनी दैहिक वेदना के चक्र में फंसा है। अपनी दैहिक वेदना को सहने का कारण किसी अवर्णित लक्ष्य की प्राप्ति करना उस साधू का उद्देश्य है किंतु मृत्यु के अत्यंत निकट आने पे भी उस लक्ष्य का अंश भी उसे हासिल नहीं होता और अंततः हारके अपने सिद्धांतों से समझौता करना उसे स्वीकार करना होता है। तो तीसरी कहानी मानवता के उन प्रयासों को बयां करती है जिसमें व्यक्ति के त्याग-समर्पण-सहयोग जैसी दैवीय भावनाओं से, 'आखिर उसे हासिल क्या होता है' के अहम् प्रश्नों का समाधान करने का प्रयास है। जहाँ एक व्यक्ति खुद को धोखे द्वारा ट्रांस्प्लांट से मिली किडनी भी महज मानवता के लिये लौटाने की बात करता है...और किसी की मदद के लिये अपनी तमाम सुख-सुविधाओं का उपभोग छोड़ दर-दर भटकने पे भी अंत में अभीष्ट की सिद्धि न होने पे निराश हो कहता है कि 'वो कुछ न कर सका'। जिसपे उसकी नानी का कहना कि 'जो कुछ भी किया..बस उसने ही किया, और बस इतना ही होता है..महान् प्रयासों के बाबजूद भी सब कुछ कभी भी हासिल नहीं होता'। इंसान की मानवता के इन कतरा-कतरा सहेज के किये जाने वाले प्रयासों की सार्थकता साबित करती है।

जितना मैं कह रहा हूं वो बहुत थोड़ा है। इसे देखने पे जितने भाव उमड़ते हैं और देखके आने के लंबे समय बाद भी, हम इस फिल्म को जिस भांति अनुभूत करते हैं उसे ज़रा भी बयाँ कर सकना मुमकिन नहीं है। इसी वजह से किसी दार्शनिक पुराण के पढ़ने जैसी अनुभूति होती है जिसमें क्लिष्टता भी है और आनंद भी। इसके अलावा एक फिल्म के अन्य पक्षों की दृष्टि से गर इसे देखें..तो एक्टिंग, सिनेमेटोग्राफी, निर्देशन सब अव्वल दर्जे का है। और एक बारगी तो इस फिल्म की कहानियाँ ऐसी प्रतीत होती हैं मानो कि सच्ची घटनाओं की कोई डॉक्युमेंट्री देख रहे हों। 

सिनेमा के लिये हिन्दी सिनेमा के जनक दादासाहेब फाल्के की उक्ति भी कहना चाहुंगा कि 'यद्यपि सिनेमा मनोरंजन का प्रमुख माध्यम हैं किंतु इसका उपयोग ज्ञानवर्धन और विचारणा के लिये भी सशक्तता से किया जा सकता है'। ये फिल्म उनकी इस उक्ति को भलीभांति सही साबित करती है। निश्चित ही मनोरंजन गौण है किंतु विचारने के लिये उपलब्ध कराने वाला कथ्य असंख्य है। इसलिये इस सिनेमा को देखने का नहीं पढ़ने का प्रयत्न करें....

8 comments:

  1. हम जो भी समझते हैं उसमें बहुत कुछ हम अपने पूर्वाग्रह और समझक्षमता के अनुसार ही समझ पाते हैं.......................यह रोड़ा न हो तो बहुत अच्‍छा हो। अद्वितीय समीक्षा की है आपने इस सिनेमा रील की। एक प्रकार से सिनेमा के शीर्ष मानदण्‍डों को विचारणीय शब्‍दों के वस्‍त्र ओढ़ा दिए गए हैं, ऐसा प्रतीत होता है।
    अन्तिम से दूसरी पंक्ति में (गौढ़) को (गौण) कर लें श्रीमान।

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    1. धन्यवाद आपका..तथा गलती सुझाने के लिये भी शुक्रिया।।

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  2. लाजवाब समीक्षा है ... अब तो उत्सुकता बड गई है इसे देखने की ... फिर सिनेमा के दिग्गज भी कह रहे हैं ... देखते हैं कैसे मिलेगा इसका डी वी डी ... दुबई सिनेमा में तो ऐसी फिल्में देकने को शायद ही मिलें ...

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    1. जरूर देखें नासवा जी...निश्चित ही आप इसे पसंद करेंगे।।।

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  3. ज्ञान भी मनोरंजन के माध्यम से परोसा जा सकता है।

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    1. सही कहा प्रवीणजी...

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  4. बहुत सुंदर समीक्षा ..

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    1. धन्यवाद अमृताजी..

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