Friday, July 11, 2014

मानव पूंजी का निकास और लड़खड़ाती भारतीय अर्थव्यवस्था

देश की नई सरकार का पहला बजट हाल ही में जारी हुआ है। कई बड़े-बडे़ सपने और दूरगामी लक्ष्यों को पूरा करना इस बजट का ध्येय है। शिक्षास्वास्थ्य और रोजगार के लिये सुदृढ़ अवसंरचना निर्माण के वायदे हैं तो कहीं न कहीं देश के युवाओं में राष्ट्रवाद की भावना जागृत करने के लिये कई मूल्यपरक बेहतर काम करने की पहल भी प्रदर्शित की गई है। लेकिन बावजूद इसके हिन्दुस्तानी युवा या जिसे मैंने अपनी इस पोस्ट के शीर्षक में मानव पूंजी कहकर संबोधित किया है वो यूरोपसिंगापुरदुबई और अमेरिका के सपने आँखों में संजोये हुए महज़ खुद के विकास को प्राथमिकता देता है और हिन्दुस्तानी अर्थव्यवस्था और तमाम राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था को गरियाने में खुद को गौरवान्वित महसूस करता है। 

उन्नीसवीं सदी के अंत में दादाभाई नैरोजी ने ड्रेन ऑफ वेल्थ (धन का निकास) सिद्धांत प्रतिपादित कर देश को ये बताने की कोशिश की थी कि किस तरह देश का अमूल्य खजाना विभिन्न माध्यमों के जरिये ब्रिेटेन  जा रहा है। अब बीसवीं शताब्दी के अंत या इक्कीसवीं सदी की समस्या ड्रेन ऑफ ह्युमन वेल्थ की निकासी है। लाखों की तादाद में आईआईटी, आईआईएम और एम्स जैसे संस्थानों से शिक्षा प्राप्त होनहार युवा अपने करियर को नई ऊंचाई देने के लिये विदेश पलायन कर रहे हैं और इससे उनका योगदान देश और अर्थव्यवस्था के विकास पर उचित ढंग से नहीं हो पा रहा है। देश को आज चिकित्सा, शिक्षा, अभियांत्रिकी, प्रबंधन जैसे हर क्षेत्र में मानव पूंजी की बेहद आवश्यकता है किंतु युवाओं की स्वार्थपरक वृत्तियां उन्हें अपने देश की बजाय दूसरे देशों में काम करने को बाध्य कर रही हैं। निश्चित ही कई मायनों में बाहर कार्यरत भारतीयों के कारण देश के अंदर पैसा भी आता है पर वो अपने देश में रहकर ग्रास रूट लेवल पर काम करने की तुलना में कम कार्यकारी है और देश की खोखली पड़ चुकी अर्थव्यवस्था की मजबूती के लिये उन युवाओं की ज़रूरत देश में रहकर ज़मीनी स्तर पर काम करने की ज्यादा है।

आज सरकार युवाओं की प्राथमिक और बुनियादी उच्च शिक्षा को गुणवत्तापरक बनाने के लिये अनेकों जतन कर रही है पर वही युवा सरकार से समुद्रपारीय शिक्षा हेतु छात्रवृत्ति लेकर विदेश जाते हैं औऱ फिर कभी लौटकर नहीं आते। एक अध्ययन के अनुसार एम्स से साढ़े पाँच वर्ष की एमबीबीएस पढाई कर 53 फीसदी चिकित्सक स्टडी लीव के नाम पर विदेश जाते हैं और फिर वापस नहीं आते। जबकि एम्स संस्थान में शिक्षा के लिये सरकार एक विद्यार्थी पर करोड़ो का खर्च करती है। वहीं यदि देश की बात की जाये तो वर्तमान में हमारे यहाँ डेढ़ लाख उपकेन्द्रों पर एक भी चिकित्सक नहीं है और हम अपनी मानव पूंजी का धड़ल्ले से निकास होते हुए देख रहे हैं। यही हालत दूसरे संस्थानों की और अर्थव्यवस्था के दूसरे क्षेत्रकों की भी है। 

आज सरकार शिक्षा और स्वास्थ्य पर जो बेहिसाब खर्च कर रही है उसका लक्ष्य एक कुशल मानव पूंजी का निर्माण करना है और इन आधारभूत खर्चों के माध्यम से मानव की श्रम उत्पादकता में वृद्धि करना है। अकेले शिक्षा पर सरकार जीडीपी का लगभग 6 प्रतिशत हिस्सा खर्च करती है। लेकिन सरकार का ये सारा निवेश उस समय बेकार चला जाता है जब निजी स्वार्थों के लिये ये युवा अपनी इस उत्पादकता का प्रयोग अपने देश के बजाय अन्य देशों में करते हैं। यकीनन इससे वे अपनी लाइफ को लग्जरी सुविधाओं से संपोषित करते हैं किंत इसका कोई सहभागी उपयोग अपने देश की आवाम के लिये नहीं हो पाता। इन्फोसिस के संस्थापक नारायणमूर्ति का एक महत्वपूर्ण कथन याद आ रहा है, वे कहते हैं- 'प्रतिभा और पैसे का सर्वोत्तम उपयोग यही है कि वो दूसरों के काम आये' लेकिन बाहर गयी हुई मानव पूंजी की न तो प्रतिभा से देश लाभान्वित हो पाता है और न ही पैसे से।

इस सबके अलावा सबसे बड़ी परेशानी ये है कि इन पलायन किये हुए युवाओं में अपने देश के प्रति हीनता का भाव भी आ जाता है और अपने देश की प्रणाली को ये बड़े ही दरिद्रता के भाव से देखते हैं जिसके प्रति इन्हें सहानुभूति तो होती है पर इसकी बेहतरी के लिये सहभागिता निभाने पर जोर नहीं होता। मैं यहां डॉक्टर एपीजे अब्दुल कलाम का एक वक्तव्य उल्लिखित करना चाहूंगा- "हम अमेरिका जाकर उनकी प्रशंसा करते हैं और उनके सम्मान में क्या-क्या कहते हैं और जब न्यूयार्क असुरक्षित हो जाता है तो हम लंदन भागते हैं। जब इंग्लैण्ड में बेरोजगारी की स्थिति पैदा होती है तो हम अगली फ्लाइट से खाड़ी देश पहूंच जाते हैं। जब खाड़ी में युद्ध छिड़ता है तब हम भारत सरकार से खुद को वहां से निकालने की गुहार लगाते हैं। प्रत्येक व्यक्ति देश को गाली देने व दुर्व्यवहार करने के लिये मुक्त है पर कोई भी इस व्यवस्था को पूर्णता प्रदान करने के बारे में नहीं सोचता। हमारी अंतरात्मा धन की गिरवी हो गयी है"। इस कथन में युवाओं की संपूर्ण सोच को रेखांकित किया गया है।

जितनी आत्मीयता और आदर हम अन्य देशों के कानूनों और व्यवस्थाओं के प्रति दिखाते हैं उतना यदि हम अपने देश के प्रति दिखाये तो बात ही अलग हो सकती है। मुंबई के पूर्व निगमायुक्त श्री टिनाइकार ने एक बार कहा था कि 'धनी व्यक्ति अपने कुत्तों के साथ सड़को पर घूमने निकलते हैं उनके कुत्ते सड़कों पर जगह-जगह मलत्याग देते हैं। दुूबारा वही व्यक्ति फिर सड़कों पर आते हैं और अधिकारियों तथा कर्मचारियों को उनकी तथाकथित अक्षमता के लिये गाली देते हैं। अमेरिका में कुत्ता मालिकों को फुटपाथ पर खुद ही कुत्ते का मल साफ करना पड़ता है। जापान में भी ऐसा ही है। पर क्या भारत में भारतीय नागरिक ऐसा करेंगे? "वाशिंगटन में 55 मील प्रतिघंटा से अधिक गति पर कार ड्राइव करने पर आपको यातायात पुलिस को यह कहने की हिम्मत नहीं होगी कि 'तुम्हें पता है कि मैं अमूक नेता या अधिकारी का बेटा हूं।' पैसा लो और भागो"। 

दरअसल, खराबी हमारे जिन्स में ही आ चुकी है यही वजह है कि हम वर्षों से चली आ रही अपनी छद्म स्वार्थपकर वृत्तियों के चलते पूर्णतः सद्भावना और जनहितपरक सोच से शून्य हो चुके हैं। सिस्टम को गाली देना..और खुद को पदपैसा और प्रतिष्ठा से लवरेज़ करके हम महात्मा होना चाहते हैं पर वैश्विक संस्कृति में महात्मा होने के लिये संग्रहवृत्ति नहीं बल्कि त्यागवृत्ति वाञ्छित है...महज मरने से कोई शहीद नहीं हो जाता, आपकी मौत की वजह शहादत को तय करती है। महानता का पैमाना भी कुछ-कुछ ऐसा ही है..............

3 comments:

  1. सवाल ये भी है कि नेता के बेटे को ये कहने की जरूरत क्‍यों हुई कि मैं अमुक नेता का बेटा हूं...................इस देश नहीं कहूंगा, इस भारतीय शासन व्‍यवस्‍था में सच कहूं तो बॉस दम घुटता है। व्‍यवस्‍था है कहां। प्राइवेट स्‍कूल या प्राइवेट हास्पिटल का क्‍या मतलब है? लोकतन्‍त्रत के साथ या प्राइवेट व्‍यवस्‍था मजाक नहीं है तो अौर क्‍या है। इसीलिए तो मैंने अपनी एक उक्ति में कहा है--मानव का मानव पर सबसे बड़ा उपकार यही होगा कि वो मानव को जन्‍म देना ही छोड़ दे। यह वेदना भारतीय व्‍यवस्‍था में घुट रहे जीवन के कारण ही उभरी है बॉस। चलो हम मानते हैं कि कुछ लोग विद्वान व योग्‍य हैं तो उन्‍हें समाज में मौजूद सुविधाएं और संसाधन उपलब्‍ध हो जाते हैं, पर वे विद्वान व योग्‍य किसलिए हैं, जब वे समाज या देश या व्‍यवस्‍था की दुर्व्‍यवस्‍थाएं बदल ही न पाएं या सभी दुर्व्‍यवस्‍थाएं यथावत रहें। क्‍या उनकी योग्‍यता संसाधनों व सुविधाओं का भोग करके मर-खप जाने के लिए ही हैं।

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  2. बेहद उम्दा और सटीक पोस्ट...विचारणीय भी ! एक अच्छी सोच ! :)

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  3. बेहद सार्थक एवं सटीक विचारों से युक्‍त एक बेहतरीन आलेख

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