Sunday, February 8, 2015

हंसी-खुशी का है राज़ फ़िल्लम, फुल्ली फिल्लम है सांस भी : शमिताभ

हिन्दुस्तान..एक ऐसा देश जो अपनी रग़ों में हुल्लड़याई का पूरा समंदर लिये घूमता है। जिसके अतीत की तमाम इबारतें अपने ज़हन में अनंत कथा-कहानियां समेटे बैठी हैं। किस्सागोई जिस देश का प्रमुख शग़ल है और दादी-नानी की कहानियां जहाँ लोगों के लिये प्राथमिक विश्वविद्यालय। इस देश में मेले हैं, मदारी हैं, सपेरे हैं, नाच-गाना-नौटंकी है और ये देश कला की ऐसी अनेक विधाओं, अनेक रंगों को अपने में समेटे है। इन सब चीज़ों के कारण कभी ये उपहास का केन्द्र बनता है तो कभी इस कला-संस्कृति की वजह से ये देश अपना सिर फ़क्र से ऊंचा करता है। चाहे डांस, ड्रामा जैसी परफार्मिंग आर्ट हो या पेन्टिंग, डिजाइनिंग जैसी नान-परफार्मिंग आर्ट, हमारे देश में हर कला को लेकर पागलपन है और ऐसे में इन तमाम आर्ट्स को अपने में समाने वाले सिनेमा की बात की जाये तो दीवानगी अपने चरम पर होती है।

शमिताभ। तकरीबन सौ सालों से इस देश के लोगों के मनोरंजन और पागलपन का पर्याय बन चुके भारतीय सिनेमा के प्रति आदरांजलि की तरह प्रस्तुत की गई है। लेकिन हमारे सिनेमा के महिमामंडन करने के साथ ही साथ ये फ़िल्म ऐसी कई शिकायतों को बड़ी बेबाकी से प्रस्तुत करती है..जो अरसे से हर सिने प्रेमी के दिल में उठता चली आ रहे हैं। मसलन,  भारतीय फ़िल्म उद्योग को बॉलीवुड कहना...फ़िल्मों में व्याप्त प्लेगिआरिज़्म पर चुटकी लेना..कुछ ऐसे ही इस इण्डस्ट्री के झूठ और दिखावे की चकाचौंध को प्रस्तुत करना। निर्देशक आर. बाल्की की ये महज़ तीसरी फ़िल्म है लेकिन अपनी पिछली दो फ़िल्मों की तरह इस फ़िल्म में भी वे सिनेमाई खूबसूरती के चरम पर नज़र आते हैं।

मनोरंजक कथानक और बेहतरीन प्रस्तुति के बीच फ़िल्म में कई सारे अर्थ भी छुपे हुए हैं..फ़िल्म के संवाद बाल्की की पिछली फ़िल्मों की तरह नयापन और विट (हास्य पैदा करने की कला) लिये हुए हैं। संवादअदायगी होती तो बड़ी गंभीरता से हैं पर दर्शक द्वारा ग्रहण होने के बाद ज़बरदस्त गुदगुदी पैदा करते हैं। ये संवाद हंसाने के लिये किसी तरह की लफ्फाज़ी का सहारा नहीं लेते..बल्कि इन्हें कहने और समझने के लिये खास विद्वत्ता की दरकार होती है। बाल्की द्वारा प्रस्तुत कॉमेडी उन तमाम निर्माता-निर्देशकों के मूंह पर तमाचा है जो कहते हैं कि आज के दौर में हास्य सिर्फ अश्लीलता की गलियों से होकर ही आ सकता है।

फ़िल्म की महानता में बाल्की के निर्देशकीय कौशल के साथ साथ अमिताभ, धनुष और अक्षरा की एक्टिंग का भी अहम् योगदान है। अमिताभ अपने अभिनय और ताजगी से ये संशय पैदा कर रहे हैं कि वे अब 72 वर्ष के हो गये हैं। इस उम्र में वे बिना सुर छोड़े बेहतरीन गाना भी गाते हैं और लगता है कि इस साल बेस्ट सिंगर के कई सारे अवार्ड वे अपने खाते में न जोड़ लें। वहीं धनुष के लिये ये किरदार किसी चुनौती से कम नहीं था। एक मूक व्यक्ति का अभिनय, जो किसी भी बोलने वाले व्यक्ति से ज्यादा वाचाल लगता है और बॉलीवुड के शिखर सितारे की आवाज पर उसी तरह के भाव लेकर लाना, उन्हें अभिनय के शीर्ष पर ले जाता है। फिल्मों के लिये गली-मोहल्लों में दिखने वाली एक आम आदमी की दीवानगी को धनुष ने बखूब प्रस्तुत किया है। अक्षरा की यह पहली फ़िल्म है पर हिन्दी और तमिल के सुपरसितारों के सामने वो कतई फीकी नज़र नहीं आती। उन्हें देखना उतना ही मोहक लगता है जितना अमिताभ या धनुष को।

'शमिताभ' दो के मेल का नाम है...और ये मिलकर सौ वर्ष पुराने सिनेमा के दो प्रमुख अंगों का प्रतिनिधित्व करते हैं। ऑडियोविसुअल। जी हाँ इन दो चीज़ों के कारण ही सिनेमा खुद को जनमानस का प्रमुख मानसिक भोजन बना सका है। यदि एक भी कमतर हो तो सिनेमा कभी भी अपना समग्र प्रभाव नहीं स्थापित कर सकता। धनुष दृष्याभिव्यक्ति का प्रतीक है तो अमिताभ श्रव्याभिव्यक्ति के। जब दोनों अपने-अपने अहंकार में पागल हो खुद को श्रेष्ठ साबित करते हैं तो जनता द्वारा उन्हें नकार दिया जाता है। फ़िल्म एक बहुत बड़ी सीख देते हुए ख़त्म होती है कि  सफलता समग्र प्रयासों का प्रतिफल है। जहाँ व्यक्ति सबको भूलकर सिर्फ 'मैं' पर अड़ बैठता है बस वही पतन की वजह बन जाती है। व्यक्ति का सबसे बड़ा अभिमान, जीवन में एक न एक दिन ज़रुर टूटता है। अहंकार को हम जितने चरम पर ले जाते हैं उसके टूटने पर दर्द भी उतना गहरा होता है। फिल्म इण्डस्ट्री ने सफल व्यक्ति के लिये स्टार शब्द इजाद किया है उसका कारण यही है कि सितारे चाहे कितने ही चमक लें पर टूटते ज़रूर हैं।

बहरहाल, कहने को बहुत कुछ है पर कहने-सुनने से बेहतर है इसे फ़िल्म को देखा जाये...ये हंसायेगी-गुदगुदायेगी और रुलायेगी भी पर गहन दार्शनिकता को संजोये कई प्रतीक भी फ़िल्म में देखे जा सकते हैं। कई सालों पहले मैंने अपना ये ब्लॉग 'साला सब फ़िल्मी हैं' बनाया था..जिसके परिचय के तौर पर मैंने कहा था कि अब हर जज़्बात, हंसी-खुशी, संवेदनाएं फ़िल्मी सी हो गई हैं..बस इस बात को चरितार्थ होते ही फ़िल्म में देखा जा सकता है। फ़िल्मों में नया और कुछ हटकर देखने के हिमायती लोगों के लिये ये फ़िल्म एक बेहतरीन अनुभव साबित होगी। शमिताभ..बॉलीवुड को अपनी मौजूदा श्रेणी से कुछ सोपान और ऊपर ले जाने वाली फ़िल्मों में से एक है।

2 comments:

  1. खुबसूरत लफ्जों में खुबसूरत समीक्षा ......अच्छा लगता है आपको पढना ..शुभकामनायें |

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  2. आपकी कलम से एक और बेहतरीन समीक्षा ... बधाई

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