Wednesday, May 4, 2016

कालीन के नीचे छिपी सार्थकता के "फैन" बनाम चौंधियाती सफलता का "सन्नाटा"

बीती तीन मई को हिन्दी सिनेमा ने अपने एक सौ तीन वर्ष पूरे कर लिये हैं। एक सौ तीन वर्ष के हिन्दी सिनेमा में सफलता का प्रतिशत भी महज तीन ही होगा और सार्थक फिल्में भी बमुश्किल तीन फीसदी ही होंगी। इनमें ऐसी फिल्में जो सफल और सार्थक दोनों ही हों वे तो एक-आध प्रतिशत ही ढूंढने से मिल पायेंगी। लेकिन इन एक-दो फीसदी फिल्मों में ही सिनेमा की श्वांसे हैं और इन्हीं की दम पर सार्थक सिनेमा का हिरण व्यवसायिकता के जंगल में दौड़ पा रहा है।

सिनेमा के जनक दादा साहेब फाल्के कहा करते थे कि "यकीनन सिनेमा मनोरंजन का एक सशक्त माध्यम हैं लेकिन इसका उपयोग ज्ञानवर्धन और सामाजिक सरोकार के लिये भी किया जा सकता है" पर आज इस सिनेमा की सफलता और उद्देश्यों को नापने का एक मात्र जरिया इसकी व्यवसायिकता है। फिल्में रिलीज होने के कुछ घंटों बाद ही ये अटकलें शुरु हो जाती हैं कि अमुक फिल्म सौ करोड़ कमा पायेगी या नहीं...और कुछ घंटों बाद ही फिल्म की कमाई के ब्यौरों के आधार पर उसे सफल या असफल करार दे दिया जाता है। व्यवसायिकता के इस व्यामोह ने सिनेमा से कलापक्ष को बाहर निकाल फेंका है और उसे महज एक दुकान में तब्दील कर दिया है।

पिछले दो-तीन हफ्तों में रिलीज़ हुई कुछ फिल्में इस बात का बखूब उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। जय गंगाजल, फैन, बाग़ी जैसी फ़िल्में अपनी चमक का झूठा आभामंडल रचकर पहले तीन दिन में तीस-चालीस करोड़ का व्यवसाय करती हैं और अपनी भव्यता के फरेब़ में दर्शक को ठगती है जिससे दर्शक कालीन के नीचे खामोशी से श्वांस ले रहीं कई सार्थक फिल्में देखने की हिम्मत भी नहीं जुटा पाता। यही वजह है कि अलीगढ़, जुबान, निल बटे सन्नाटा जैसी फिल्में दर्शकों के अभाव में एक सप्ताह भी सिनेमाघरों में टिकी नहीं रह पाती। बड़े बजट की सितारा सज्जित फिल्मों से इन सार्थक फिल्मों को इस मायने में भी नुकसान है कि प्रायः मल्टीप्लेक्स में बड़ी बजट फिल्मों के साथ लगी इन ऑफबीट फिल्मों के लिये सिनेमाघरों में टिकट दरें कम नहीं की जातीं और इन्हें भी बहुसितारा-बड़ी फिल्मों की टिकट दरों पर ही देखना होता है। जिससे आम दर्शक डेढ़ सौ, दो सौ रुपये खर्च कर इन फिल्मों को देखने का रिस्क नहीं लेना चाहता।

ऐसा सिर्फ इस वर्ष की इन कुछेक फिल्मों के साथ ही नहीं हुआ है इससे पहले भी डोर, उड़ान, दसविदानिया, चलो दिल्ली, लंचबॉक्स, इंग्लिश-विंग्लिश, बीए पास, क्वीन, मसान जैसी फिल्मों को भी अपेक्षाकृत सफलता नहीं मिली। मजेदार बात ये भी है कि उपरोक्त वर्णित इन फिल्मों की सफलता के बाद इनके निर्देशकों को फिल्म इंडस्ट्री ने नोटिस किया...इन फिल्मों को कई अवार्ड समारोहों में सराहा गया... बाद में इन तमाम फिल्मों के निर्देशकों को उनकी अगली फिल्म के लिये पिछली फिल्मों के दम पर बड़ा स्टार्ट मिला लेकिन उनमें से कई फिल्में एक बार फिर दर्शकों की उम्मीदों पर खरी न उतर सकीं। इसका सबसे बड़ा कारण यही रहा कि पहले वाली फिल्मों की सार्थकता को गौढ़ कर इन निर्देशकों ने अपनी अगली फिल्म को मसाला मनोरंजन के साथ पेश किया। इस व्यावसायिकता के आग्रह ने भले इन फिल्मों पर रुपयों की बरसात करवाई हो पर सार्थकता का पिपासु दर्शक एक बार फिर छला गया। इसके उदाहरण हमने बीते वर्ष काफी देखे जब पिछली फिल्मों से उम्मीद जगाने वाले निर्देशकों ने ऑल द बेस्ट, शानदार, बॉम्बे वेलवेट जैसे डिब्बों का निर्माण किया।

ये सारा दुख हालिया रिलीज़ 'निल बटे सन्नाटा' फिल्म में सूने पड़े सिनेमाघरों को देख पैदा हुआ है। बॉलीवुड की मौलिकता और इसके अपने खालिश अंदाज की प्रतिनिधि ये फिल्म, विदेशी फैक्ट्री के चुराये मसाला मनोरंजन "बाग़ी" से कमाई के मामले में पिछड़ गई। इस फिल्म को कई शहरों में सिनेमाघर ही नसीब नहीं हुए और जहाँ नसीब हुए भी वहां इसे दो-तीन दिन में ही या तो अपने शो कम करने पड़े या बाहर ही निकल जाना पड़ा। इस तरह से इन ऑफबीट फिल्मों का व्यवसायिकता में पिछड़ जाना कई दूसरे मायनों में भी घातक होता है। इससे इनके निर्देशक हतोत्साहित होते हैं और निर्माता भी ऐसी फिल्मों पर दाव नहीं खेलना चाहते। जिससे हम सिनेमा में सार्थक परंपरा को पनपने से पहले ही ख़त्म कर देते हैं।

बहरहाल, इस तमाम नकारात्मकता के बावजूद वे लोग बधाई के पात्र हैं जो इस रचनात्मकता के लिये अवकाश रखते हैं। 'निल बटे सन्नाटा' आज से सालों बाद भी हिन्दी सिनेमा का एक अहम् दस्तावेज माना जायेगा जबकि 'फैन' या 'बाग़ी' पर वक्त की धूल ज़रूर जमा होगी। नवोदित निर्देशक अश्विनी अय्यर तिवारी में अपार संभावना हैं उम्मीद करेंगे कि वे इस सार्थकता को आगे भी लेकर जायें। इस फिल्म के निर्माता और रांझणा, तनु वेड्स मनु जैसी फिल्मों के निर्देशक आनंद एल राय को भी बधाई जिन्होंने ऐसी फिल्म के निर्माण में सहयोग किया। साथ ही स्वरा भास्कर, रत्ना पाठक, पंकज त्रिपाठी को भी उनके शानदार अभिनय के लिये बधाई तथा ऐसी फिल्म के चुनाव के लिये साधुवाद।

एक बात समझना बहुत जरुरी है कि भारतीय सिनेमा प्रेम रतन धन पायो, दिलवाले, फैन या सिंह इस किंग टाइप अरबी क्लब (सौ करोड़ का क्लब) की फिल्मों से जीवंत नहीं रह सकता...इसे मसान, लंचबॉक्स और निल बटे सन्नाटा जैसी फिल्में ही ऑक्सीजन देती हैं और यही इसे जिंदा रखे हुए हैं।

6 comments:

  1. खरी कही है सौ फ़ीसदी !

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  2. सही कहा। अलीगढ तो देखी अब निल बटे सन्नाटा भी देखेंगे।

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