(***ये फिल्म समीक्षा दिल्ली से प्रकाशित मासिक पत्रिका "हिन्दुस्तान ओपिनियन" के जनवरी-फरवरी 2019 के अंक में प्रकाशित हुई, इसलिये प्रकाशन होने तक इसे ब्लॉग पर डालना संभव नहीं हो सका।)
सिनेमा के जनक दादासाहेब फाल्के का एक कथन था “फिल्में निश्चित ही मनोरंजन का सशक्त माध्यम हैं।
लेकिन इनका सार्थक प्रयोग ज्ञानवर्धन और जागरुकता के लिये भी किया जा सकता है।” सीमा पर अपने साहस का परिचय देते हमारे वीर
जवानों की कर्तव्यनिष्ठा एवं शौर्य के बारे में सुनना और उसके जीवंत रूपांतरण को
रुपहले परदे पर देखना एकदम भिन्न अनुभूति का संचार हमारे ज़ेहन में करता है।
‘उरी- द सर्जिकल स्ट्राईक’ सिनेमा
की हमारे जवानों को दी गई एक ऐसी आदरांजलि का नाम है जिसे दशकों बाद भी एक सशक्त
दस्तावेज की तरह प्रस्तुत किया जा सकता है। ये एक ऐसी फिल्म है जिसने सिनेमाई
मानदंडों की पारंपरिक रीत के परे एक ऐसे कथ्य की प्रस्तुति पेश कर सफलता पाई जो
अमूमन सिनेमा में विरले ही देखने को मिलती है।
जहां न कोई पारंपरिक प्रेम कहानी है, न कोई आइटम
नंबर और न नायिका के बदन से सरकता लिबास... ये सब वे चीज़ें हैं जिन्हें सिनेमाई
कामयाबी का मूलतत्व कहा जाता है लेकिन इन सबसे हटकर ‘उरी- द सर्जिकल स्ट्राईक’ अपने पहले फ्रेम से अंतिम फ्रेम तक सेना का
शौर्य, साहस, समर्पण और अनेक कठिनाईयों के बावजूद अपनी कर्तव्यनिष्ठा का निर्वहन
करते जवानों की कहानी है।
फिल्म के केन्द्र में सिंतबर 2016 में भारतीय
सेना द्वारा उरी में हुई आतंकी वारदात के बाद पाकिस्तान पर की गई जबावी कार्रवाई
है लेकिन फिल्म का ट्रीटमेंट कुछ ऐसा है कि फ्रेम दर फ्रेम आप ज़ेहन में देशभक्ति
का जज़्बा महसूस करते हुए कई मर्तबा हमारे सैनिकों के लिये तालियां बजाते हैं और
उनकी निष्ठा को सलाम करते हैं।
फिल्म के कथानक के जरिये निर्देशक आदित्य धर
दर्शकों को पेट्रिऑटिज्म का जबरदस्त डोज़ देते हैं। फ्रेम दर फ्रेम फिल्म चीख
चीखकर ये बताती है कि आप पेट्रियोटिक सिनेमा देख रहे हैं। युद्ध पर आधारित
फ़िल्में यूं भी भारतीय सिनेमा में कम ही बनी है लेकिन जो चंद फिल्में हमें याद
हैं उनमें हम उरी- द सर्जिकल स्ट्राईक को
भी याद रखेंगे। निर्देशक का जबरदस्त ट्रीटमेंट और काफी क्लीशेड स्क्रीनप्ले उरी को
क्लास फिल्म बनाने के साथ साथ मास फिल्म भी बनाती है। यही वजह है कि क्रिटिकली और
कमर्शियली दोनों पहलुओं पर फिल्म सफल साबित हुई है। बेहद कम बजट की बनी होने के
बावजूद करीब 200 करोड़ रुपये का बॉक्स ऑफिस कलेक्शन कर फिल्म ने यह साबित भी कर
दिया है।
फिल्म की अदाकारी की बात की जाये तो विक्की कौशल
अपनी कम्पीटेंट एक्टिंग के चलते दर्शकों के दिलों में अपनी खास जगह बनाने में
कामयाब होते हैं। उनकी अदाकारी देख ये यकीन करना मुश्किल होता है कि ये वही विक्की
कौशल हैं जिन्हें हमने मसान फिल्म में एक कम्पेल्ड युवक के रूप में देखा था। कहना
गलत नहीं होगा कि उरी के लाउड स्क्रीनप्ले को भी अपनी बढ़िया अदाकारी से विक्की
कौशल ने बैलेंस किया है। फिल्म देखने के बाद विहान का किरदार दर्शकों पर अपनी खास
छाप छोड़ता भी है। विक्की कौशल के अलावा दूसरे किरदार भी अपनी- अपनी भूमिकाओं में
काफी सजे हैं। परेश रावल, मोहित रैना, स्वरूप सम्पत, यामी गौतम और कीर्ति कुलहरि
आदि सभी ने अपने अपने किरदारों के साथ न्याय किया है।
फिल्म की जबरदस्त एक्शन कोरियोग्राफी, जोश भर
देने वाले संवाद, वॉर सीन्स का पिक्चराईजेशन और कॉस्ट्युम फिल्म के घटनाक्रम को
यकीन करने वाला बनाते हैं। कुछ लोगों को पैट्रियॉटिज्म को ओवरडोज फिल्म में दिख
सकता है लेकिन यही ओवरडोज एक बड़े मास के लिये फिल्म की यूएसपी भी है। चुंकि ये
फिल्म बहुत पुराने घटनाक्रम को पेश करने के बजाय हाल ही में हुई वारदात पर आधारित
है लिहाजा दर्शक खुद को फिल्म से बेहतर ढंग से जोड़ पाते हैं।
अपने मिशन पर जाने से पहले विक्की कौशल जब जवानों
में ऊर्जा का संचार करते हुए सवाल करते हैं हाउज् द जोश... तो सिनेमाघर में बैठा
दर्शक भी उसी ऊर्जा को महसूस करते हुए जबाव देता है हाई सर। ये नारा उरी फिल्म का
ही सुर नहीं रह गया है बल्कि नये भारत के युवा की भी गर्जना बन गई है और इसे कई
अवसरों पर इन दिनों सुना जा सकता है।
बहरहाल, सिनेमा के ट्रेंड बन चुके मसाला मनोरंजन से
इतर इन दिनों लीक से हटकर बनने वाली ये कुछेक फ़िल्में भारतीय सिनेमा की प्रतिष्ठा
में जबरदस्त इजाफा करने वाली साबित हुई हैं। बीते वर्ष रिलीज़ हुई फिल्म ‘राज़ी’ के बाद
हाल ही में प्रदर्शित ‘उरी- द सर्जिकल
स्ट्राईक’ सिनेमा में राष्ट्रवाद का बेहतरीन शंखनाद है।