(*मेरा लघु उपन्यास "दो ख़तों के बीच सिमटी एक प्रेम कथा" लंबे समय बाद पूर्ण हुआ..इस उपन्यास का पहला ख़त तेरे जाने के मायने तकरीबन दस महीने पहले आपके साथ साझा किया था अब दूसरा ख़त पेश कर रहा हूँ..चुंकि उपन्यास की घटनाएं अवरोही क्रम में प्रस्तुत हैं इसलिये जुदाई का ख़त पहले साझा किया था और अब मिलन का ख़त प्रस्तुत कर रहा हूँ...प्रेम में होने वाले जज़्बातों के बदलाव को ये दोनों ख़त बयाँ करने की कोशिश करते हैं..प्रस्तुत है अापके समक्ष..तेरे होने के मायने-)
कुछ
बातें हैं जो आज तुमसे कहने का दिल कर रहा हैं और बताना चाहता हुं कि तुम्हारा
होना क्या है इस दिल के लिए, मेरे लिए। वैसें तो कई बड़ी-बड़ी बातें तुम्हारे सामने बना लेता हुं
और ये तो तुम भी जानती ही हो जो अक्सर मुझ पर ये जुमला मारते देर नहीं लगाती कि “बातें बनाना कोई तुमसे सीखे”। पर उन तमाम बातों को करने के बाद भी मैं कहां बयां कर पाता हुं
तुम्हें।
तुम, हां तुम
ही हो वो जो हो वजह मेरी परेशानी की, मेरी नादानी की, लापरवाह कोशिशों की, गुस्ताख़ चाहतों की...यकीनन गुस्सा आ रहा होगा न, ये सब सुनकर? लेकिन हर
वक्त कोई परेशान हुए बिना, समझदार बनकर, सतर्क, गुस्ताख़ियों के बिना कैसे रह सकता है भला। गर
इंसान है तो परेशानी, नादानी, लापरवाहियां
और गुस्ताखियां भी तो ज़रुरी है। तो तुम, हां तुम ही हो जो अहसास कराती हो कि मेरे अंदर भी एक इंसान का
दिल है। जो अहसास कराती हो कि परेशानियां, नादानियां, गुस्ताख़िया, लापरवाहियां कितनी खूबसूरत होती है और कितनी
ज़रुरी होती है जीने के लिए। जो बताती हो कि कितनी अधूरी है ज़िन्दगी इन
गुस्ताख़ियों के बगेर।
दोस्ती, क्या है? क्युं
हैं? कैसे है? ये वो
प्रश्न है जिनके उत्तर मैं देता भी हूं तो उनमें कतरा भर भी दोस्ती के भाव को नहीं भर पाता। लेकिन तुम्हें
सामने रख मैं दोस्ती को समझ भी सकता हूं और समझा भी सकता हूं, लेकिन
सिर्फ खुद को। शायद ही ज़िंदगी में मेरा कोई दोस्त होगा जिसके सामने लगातार कई बार मैं
अकड़ता रहूं, लड़ता रहूं, ज़िद
करता रहूं, उसका दिल
दुखाता रहूं, और वो
मेरा हाथ थामे रहे...जिसकी आंखों में आंसू हों मेरी वजह से और वो
फिर भी मेरे मुस्काने का, उसे मनाने का इंतज़ार करता रहे...और गर फिर भी मैं
अपने अहम् के कारण या किसी और वजह से उससे दूर भागूं पर फिर भी वो
अपने सारे दर्द भुलाके खुद मान जाए और मुझे अपने रूप में लाने की ज़द्दोज़हद
में लग जाए....पर तुम, हां तुम
ही हो जो अपनी सारी कोशिशें मुझ पे लगा देती हो, मेरी मुस्कान वापस लाने के लिए...क्या तुमसे बड़ा और बेहतर दोस्त हो
सकता है? नहीं, क्योंकि तुम, तुम ही हो जो इस पैमाने पे ख़री उतरती हो...दोस्ती
का मतलब तुमसे अलग कैसे हो सकता है मेरे लिए.......
दोस्ती
की ही तरह प्यार को समझने में भी मैं अनजान हूं...लेकिन तुम्हारे होने का मतलब
सिर्फ तुम्हारा होना है। मैं कैंसे कह दूं कि तुम्हारे होने का मतलब ख़ुशी का होना है, मस्ती का
होना है या चांद, तारे या
रोशनी का होना है....नहीं जितने अच्छे से मैं तुम्हें समझता हूं उतने अच्छे से न
मैं ख़ुशी को समझता हूं, न मस्ती
को, न
चांद-तारे या रोशनी को ...फिर जिसे मैं समझता ही नहीं हूं उन्हें मैं कैसे तुमसे
जोड़ दूं...तो तुम्हारे होने का मतलब बस तुम्हारा ही होना है। तुम ख़ुशी, मस्ती, चांद-तारे, रोशनी की
भरपाई कर सकती हो मेरे लिए, पर ये सब बेचारे तुम्हारी भरपाई कैसे कर सकते हैं मेरी ज़िंदगी में।
तुम्हारा मेरे लिए इतना खास होना ही शायद मेरे लिए प्यार होगा...तुमसे अलग मैं
प्यार को कैसे समझा दूं और तुमसे अलग प्यार को कैसे मैं समझ लूं क्योंकि मैं
तुम्हें जानता हूं प्यार-व्यार को नहीं...
कोई पूछे
मुझसे कि तुममें ऐसा क्या है जो मेरे लिए तुम ही तुम्हारी जगह हो कोई और नहीं..भला
कैसे मैं उसे समझा दूं कोई और तो कोई और की जगह है तुम्हारी जगह तो तुम ही हो सकती
हो। यकीनन तुम रब़ नहीं मैं तुम्हें उस जगह रखुंगा भी नहीं...क्योंकि रब़ तो रब़
की जगह हो सकता है और तुम तुम्हारी...और इंसान भक्ति भले फ़रिश्तों की करते हैं पर
प्यार तो इंसानों से ही होता है...और किस इंसान से प्यार करना है ये हमें ढूंढना
नहीं पड़ता, कमबख़्त
प्यार खुद हमें ढूंढ लेता है..और प्यार ने तुम्हें ही मेरे लिए ढ़ुंढा है तो फिर
कैसे मैं जमाने से बता दूं कि क्यूं तुम ही तुम्हारी जगह हो कोई और नहीं।
तुमसे
कुछ चाहूं, या सोचु
कि तुम मेरे लिए क्या करती हो...ऐसी गुस्ताख़ी की इज़ाजत ये दिल मुझे नहीं
देता...न ही मेरे वहीखाते में ये हिसाब होता है कि मैं तुम्हारे लिए क्या-क्या
करता हूं...मेरा दिमागी हिरण जहां उछल-कूद करता है वहां सिर्फ इस सोच के वृक्ष लगे
हुए हैं कि मैं क्या कर सकता हूं अपनी क्षमताओं के आखिरी हिस्से तक से तुम्हारे
लिए...
हो सकता
है मेरी ये सारी बातें आज तुम्हें मेरी उस छवि से परे लग रही होंगी जो छवि तुमने
अपने दिलो-दिमाग में बसा रखी है और लग रहा होगा कि मेरी बुद्धिजीविता को क्या हो
गया जो युं दिवानों की तरह बात कर रहा हूं...पर यकीन मानों दिवानगी का मज़ा
बुद्धिमत्ता में कतई नहीं है और इस आवारगी और दीवानगी की खूबसूरती को तुम्हारे
कारण ही समझ पाया हूं मैं।
तुम, हां तुम
ही हो वो जिसके लिए इतना कुछ कह देने के बाद भी बहुत कुछ कहना बाकि रह जाता है...कहे
हुए शब्दों की पीठ पीछे छुपके बैठे शब्दों को शायद तुम न देख पाती हो पर उन छुपे
हुए शब्दों का दायरा बहुत बड़ा है...इतना बड़ा कि उनके लिए अक्षरों के लिबास छोटे
पड़ जाते है....और वैसे भी अहसासों के लफ़्ज नहीं होते...और तुम तो सभी शब्दों से
परे बस तुम ही हो...तुम में ये सारे शब्द समा सकते हैं शब्दों में तुम नहीं......
तुम्हारा-
………………
मन में भरे भरे अंबार को व्यक्त करने में शब्द कम पड़ जाते हैं, सुन्दर और संप्रेषण से भरा पत्र।
ReplyDeleteशुक्रिया प्रवीणजी...
Deleteउम्दा .. गहरे जज्बात .. दिल को छू गए ..शुभकामनाये | उपन्यास कैसे प्राप्त कर सकती हु ?
ReplyDeleteआभार आपका..उपन्यास अभी अप्रकाशित पाण्डुलिपि के रूप में सुरक्षित है प्रकाशित होने पर सूचित किया जायेगा।।।
Deleteउफ़ ... कितना गहरा लिखा है ... शब्द, भाव, एहसास, संवेदनाएं ... क्या क्या न कहो ...
ReplyDeleteबहुत ही लाजवाब और बहुत बहुत बधाई ...
आप सुधी है जो इन जज़्बातों को इतना तवज्जों दे रहे हैं...शुक्रिया आपका।।।
DeleteBeautifully written ankur...left tears in my eyes..
ReplyDeleteThank you anonymous ji, aap jo koi bhi hai, apne khat me likhe jazbato ko samjha uske liye shukriya :)
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