Monday, March 10, 2014

परिवर्तन : ज़रुरी या मजबूरी

वक्त के पहियों पे अनायास ही जीवन रथ को हांकते-हांकते हम विविध परिवर्तनों से दो-चार होते हुए आगे बढ़ते रहते हैं..ज़िंदगी जिंदादिली से ज्यादा मशक्कत के थपेड़े झेलती है और हर एक मुश्किल दौर के बाद कुछ रुह को सुकून पहुंचाने वाली ठंडी हवाओं से भी सामना होता है...लेकिन चाहे सकारात्मक हो अथवा नकारात्मक, पर जब-जब बदलाव होता है हम थोड़े से विचलित ज़रूर हो जाते हैं। हर एक बदलाव जहाँ एकरसता को चीरता हुआ जीवन को तनिक उद्वेगपूर्ण बनाता है वहीं पुराने बिन्दु के छूटने से चित्त में भांत-भांत के व्यग्रता एवं आशंका के बादल मंडरा उठते हैं।

बहरहाल, माजरा कुछ युं है कि अपनी ज़िंदगी में ही बदलाव के सुनहरे दौर की दस्तक हुई है...युं तो उपलब्धि कोई बड़ी नहीं पर हाँ एक नज़र ऐसी भी है जो इसे विगत के प्राप्य से बेहतर होने का अहसास कराती है। अब चुंकि परिवर्तन है तो उत्कंठा, उत्साह, उद्वेग के साथ ही साथ भय, आशंका और ऊहोपोह की स्थिति भी बनी हुई है..इसलिये मन का हिरण जहाँ-तहाँ छलांगें मार रहा है। दरअसल अपने पुराने संस्थान को छोड़कर अब एक नये संगठन के साथ अपने जीविकोपार्जन के कृत्य को अंजाम देने का वक्त आ रहा है...दूरदर्शन जैसे सरकारी एवं बड़े मीडिया संस्थान से जुड़ना निश्चित ही गौरव की बात है इसलिये बधाईयों का तांता भी लगा हुआ है लेकिन जैसे-जैसे अपने पुराने संस्थान और साथियों से विदाई लेने का वक्त निकट आ रहा है तो एक घबराहट सी भी हो रही है। तकरीबन तीन वर्षों से जिस संस्थान के साथ अपना रुहानी रिश्ता जोड़ रखा था उसे झट से छोड़ देना निश्चित ही कष्टकर है...एक सहज आसक्ति अपने मौजूदा कार्यस्थल व वहाँ के लोगों से हो गई थी। पद, पहचान, और रुतबा कायम हो चुका था लेकिन ये सब छोड़ अब पुुनः शुरुआत शून्य से करना होगी...और जब तक अपने अग्रिम संस्थान से मित्रवत् हो पाउंगा तो हो सकता है इसे छोड़ फिर किसी नयी शुरुआत में निकल जाना हो..इस बदलाव, इन रास्तों या इस संपूर्ण सफ़र के ज़रिये जाना कहाँ है ये समझ नहीं आता।

लगातार किसी एक जगह पे बने रहने के बाद, मन चाहता है कि ज़िंदगी में कुछ नया और बेहतर हो..पर वो चीज़ जिसे हम अब तक बेहतर मान रहे थे उसकी उपलब्धि होती है तो लगता है क्या जीवन को बस इसकी ही तलाश थी? असंतुष्टि और आशंका का आलम तो जस का तस विद्यमान रहता है। लोगों की बधाईयां लेते हुए हम धन्यवाद ज्ञापित किये जाते हैं पर ये समझ नहीं आता कि जिस ख़ुशी का इज़हार जो हम युं लफ्ज़ों में कर रहे हैं उसका कितना प्रतिशत हमारे ज़हन की वास्तविक सच्चाई है। औपचारिक बधाईयों के साथ उन पर व्यक्त की गई कृतज्ञता भी महज़ औपचारिक ही होती है...इस सबमें सच्ची प्रसन्नता कहाँ है ये ढूंढ पाना ख़ासा मुश्किल है।

हम रिश्ते चाहते हैं, सम्पत्ति, ऐश्वर्य और प्रतिष्ठा चाहते हैं पर जीवन के हर एक पड़ाव पर जब-जब ये तमाम चीज़ें हमें मिलती जाती है आकांक्षाऐं और वृद्धिंगत होती जाती हैं...और जिसे पाने के लिये हम अब तक बेचैन थे उसकी उपलब्धि के बाद जब उससे भी कोई उत्कृष्ट चीज़ हासिल होती है तो हम बड़ी ही आसानी से पुराने प्राप्य को ठुकरा देते हैं। पुरानी समस्त उपलब्धियां अब राह का रोड़ा लगने लगती है...सच ही है महत्वकांक्षाएं बड़ी ही स्वार्थी होती हैं...इनकी तासीर बस बढ़ते जाना है और इस बढ़ने के क्रम में यदि अपने अजीज़ रिश्तों का भी क़त्ल करना पड़े तो इंसान बड़ी आसानी से कर देता है।

किंतु इस संपूर्ण परिवर्तन के चक्र में समझ नहीं आता कि परिवर्तन ज़रूरी है या मजबूरी..न हमें मौजूदा वक्त की एकरसता रास आती है और न ही अनचाहा बदलाव। भय, आशंका, उकताहट, घबराहट और असंतुष्टि का माहौल सदैव व्याप्त रहता है और जब इतनी सारी नकारात्मक भावनायें व्याप्त हों तो समझ नहीं आता कि इस सबमें सुख कहाँ मिलेगा..पर मजे की बात ये है कि चाहे इंसान बदलाव की आकांक्षा करें या मौजूदा संयोगों को बरकरार रखना चाहे..इस सबमें एकमात्र खुश होने की, सुखी होने की ख्वाहिश ही व्याप्त है पर अफसोस, हमारे संपूर्ण उपक्रम बस बेचैनियों में ही इज़ाफा करते हैं। परिवर्तनों के साथ एक दिन ज़िंदगी ख़त्म हो जाती है पर तलाश बरकरार ही रहती है.................

10 comments:

  1. इस नकारात्मकता में एक किरण के सहारे बढ़ते जाना है हमको।

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    1. बिल्कुल सही कहा..उस किरण के सहारे ही तो बढ़ रहे हैं।।।

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  2. आपके पोस्ट पर निर्मल वर्मा की एक लाइन याद आती है बड़ा सुख हमेशा हमारे साथ रहता है छोटे सुख जीवन में आते-जाते हैं। आपके लिए बड़ा सुख रचनात्मकता का है जो हमेशा आपके साथ है।

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    1. बहुत ही शानदार बात कह दी सौरभ जी...मैं शुक्रगुज़ार हूं प्रकृति का जिसने मुझे इस हुनर से नवाज़ा..अपनी इस रचनात्मकता का उत्तमोत्तम प्रयोग करना चाहता हूँ।।।

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  3. सौरभ शर्मा जी की बात सही लगी।

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    1. मुझे भी सही लगी :)

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  4. परिवर्तन तो जीवन में जहाँ आवश्यक हो करने ही पड़ते हैं ,महत्त्व आकान्शाओं पर लगाम लगाना भी उतना ही ज़रूरी हैं अन्यथा बैचेनियाँ और उलझने बढ़ती ही हैं ,शेष जिस काम को करने में सुख मिले सकारात्मकता का अनुभव हो उसे करना ही चाहिये.

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    1. सही कहा अल्पना जी...बाकी आपकी सीख का अनुपालन किया जायेगा..शुक्रिया।।।

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