Tuesday, February 25, 2014

ज़िंदगी के 'हाईवे' पे जज़्बातों का ओवरटेक कराता फ़िल्मकार : इम्तियाज़ अली

उसे रास्ते पसंद हैं..और उन रास्तों से ही कुछ ऐसी मोहब्बत है कि मनमर्जी से जहाँ-तहाँ, जब-तब वो रिश्तों या जज़्बातों का ओवरटेक करते हुए मस्तमौला बन बस चलते रहना चाहता है...और उसकी फ़िल्मों की हर नायिका 'हाईवे' की वीरा की तरह वहाँ नहीं लौटना चाहती जहाँ से वो आई है और वहाँ भी नहीं जाना चाहती जहाँ उसे ले जाया जा रहा है..गोया सफ़र ही रास्ता है और सफ़र ही मंजिल...और इन्हीं वजहों से इम्तियाज़ अपनी फ़िल्मों में एकआध ऐसा गाना भी रख देते हैं जिसमें इरशाद क़ामिल को कुछ ऐसा लिखना होता है..'हम जो चलने लगे, चलने लगे हैं ये रास्ते..मंजिल से बेहतर लगने लगे हैं ये रास्ते'।

इम्तियाज़ के पात्र बड़े मनमौजी हैं..खासतौर से उनकी नायिकाएं और वे आज की चौका-चूल्हा में उलझी व बच्चे पैदा करने की मशीन बनी हुई महिलाओं को एक जवाब हैं जहाँ उनकी हस्ती इन पारंपरिक क्रियाओं से परे भी बहुत कुछ है...वे आजाद रहना चाहती हैं, कदम-कदम पे अपनी हसरतों को रौंदते रहना उन्हें पसंद नहीं, सिर्फ ज़मीन ही नहीं वे आकाश में अपना अस्तित्व खोजती है, वे नटखट हैं, बड़बोली हैं. प्यार करती है और जब-तब अपने जज़्बातों का ओवरटेक करवाती हैं...पर अपनी मर्यादाएं नहीं भूलती, उनका प्यार उद्दंता नहीं है, उनकी स्वतंत्रता कभी भी स्वच्छंदता में नहीं बदलती..आजाद रहते हुए भी उन्हें पता है कि अकेली लड़की खुली हुई तिजोरी की तरह है और पुरुष वर्चस्व वाले भौंडे समाज में उनकी नायिका खुद को प्यार करने वाले मर्द की निगाह को पहचानती हैं जिसकी नीयत साफ है...जो वाकई मर्द है।

सदियों से नारी को चारदीवारी में दबोच कर रखने वाले समाज के अंदर.. इम्तियाज़ की महिलाचरित्रों द्वारा जो स्त्री विमर्श प्रस्तुत किया है वो अति बौद्धिक लोगों के कोरे उपदेशों से बहुत ऊपर बड़ा ही प्रेक्टिकल है। एक आदर्श स्त्री की तथाकथित भारतीय व्याख्या से दूर इम्तियाज़ की नायिका पूरे दम के साथ अपने प्रेमी के साथ भागने का दम रखती है(जब वी मेट)..ब्रेकअप पार्टी को इंज्वाय करती है और अबला नारी के तरह आंसू नहीं बहाती(लव आजकल), अपने कुछ दिनों के पुुरुष मित्र के साथ बिंदास हो जंगली जवानी जैसी फि़ल्म देखती है(रॉकस्टार) और आधीरात को चुपके से अपने मंगेतर के साथ कुछ प्यार भरे पल भी ढूंढना चाहती है...और अपने ही जज़्बातों की परख में जब उसे ये अहसास होता है कि उसका दिल क्या चाहता है तो बेखौफ हो वो अपने मंगेतर को छोड़, रास्ते में मिले अनजान साथी को चुनती है या शादी के बाद भी अपने पूर्वप्रेमी के मिलने पर उसे चूमती है उसका आलिंगन करती है। गोया कि हरजगह किसी बने-बनाये सिद्धांत को थामें आगे नहीं बढ़ती, वो आज में जीती है और जो भी वर्तमान का सच होता है बस उसे अपनाती है और इस बदलाव में हरबार होता है उसके मौजूदा जज़्बातों द्वारा पुराने अहसासों पर ओवरटेक। और इसी वजह से इम्तियाज़ अपनी 'हाइवे' की नायिका से बुलवाते भी है कि 'इस दुनिया में पता ही नहीं चलता कि क्या सही है और क्या ग़लत..सब कुछ मिक्स-मिक्स सा हो गया है'

इम्तियाज़ को समाज और समाज के रिवाज़ों से भी ऐतराज़ है..जहाँ शिष्टाचार सिर्फ टिशु पेपर की तरह महज़ खुद को सभ्य दिखाने का हथियार बनके रह गया है...उनके नायक-नायिका की आजादी को समाज के इस शिष्टाचार और रिवाज़ों ने ही ख़त्म किया है और उनकी फ़िल्में खासतौर पर हाइवे ये बताती है कि सबसे ज्यादा असभ्य लोग आलीशान मकानों, ऊंचे पदों और शहर के पॉश इलाकों में ही निवास करते हैं..नारी का क्यूट और शालीन की तथाकथित परिभाषा में बांधकर सबसे ज्यादा हाईप्रोफाइल लोगों ने ही शोषण किया है उसे बंधक बनाया है...घर के बाहर वाले लोगों से उसे बचने को कहा जाता है पर घर के अंदर उसे मर्यादा और संस्कारों की नसीहत देकर चुप्पी साधे हुए सारे जुल्म सहने को मजबूूर किया जाता है। पिता के हिसाब से उसे अपना जीवनसाथी चुनना होगा, माँ के हिसाब से उसे अपनी सोच रखनी होगी, भाई के हिसाब से उसे पहनना-ओढ़ना और दोस्ती करना होगा, पति के हिसाब से उसे माँ बनना होगा-घर संभालना होगा या काम करना होगा...और कभी-कभी अपने निकटतम रिश्तेदारों की हवस का शिकार भी बनना होगा। इन सबमें नारी का अपना वजूद कहाँ हैं? लेकिन इस सबके बावजूद उसे चुप्पी साधे रहना होगा क्योंकि यदि मूँह खोला तो वो असंस्कारी साबित कर दी जायेगी।

इम्तियाज़ की बाकी फ़िल्मों की तरह 'हाईवे' में भी पात्र अपना अस्तित्व खोजते नज़र आते हैं..और जज्बातों का ओवरटेक कराते हुए प्रेम की मासूम संवेदनाओं को भी उन्होंने बखूब जगह दी है। नायिका, खुद की सगाई होने के बावजूद अपने अपहरणकर्ता से प्रेम करती है..और अपनी हाईप्रोफाइल सोसायटी से दूर उसे एक किडनेपर में ही सभ्य इंसान नज़र आता है..उसकी ख़ुशी आलीशान बंगला, मोटरकार या लग्जरीस् में नहीं है बल्कि उसे दूर कहीं पर्वत पे एक कच्चा-सा पर अपना-सा घर चाहिए, प्यार करने वाला हमसफ़र चाहिये। इम्तियाज़ की इन कथाओं के सार को तहलका के फिल्म समीक्षक गौरव सोलंकी कुछ यूं बयाँ करते हैं "इम्तियाज के पास हमारे समय की सबसे ईमानदार प्रेम कहानियां हैं और वह होना बड़ी बात नहीं हैं क्योंकि वे और भी बहुत से लोगों के पास है. लेकिन इम्तियाज़ के पास उनका सबसे ईमानदार ट्रीटमेंट भी है..उनके पास युवाओं की भाषा है जिससे वे गज़ब के रोचक डॉयलाग गढ़ते हैं और बचपना है जो तालाब में कूदने से पहले  उसकी गहराई का अंदाज लगाने वाली तहजीब में यकीन नहीं रखता।"

बहरहाल, भले ही 'हाइवे' का प्रस्तुतिकरण व रोचकता इम्तियाज़ की बाकी फ़िल्मों की तुलना में कमजोर है पर फ़िल्म की मूल आत्मा में इम्तियाज़ का हृदय ही नज़र आता है और इम्तियाज़ की ये फ़िल्म कई मामलों में 'रॉकस्टार' की उन्हीं संवेदनाओं को छूकर आने की कोशिश करती है जिसमें कहानी, संवाद या प्रस्तुतिकरण ज्यादा मायने नहीं रखता, बस आप हर फ्रेम के साथ अहसासों की चासनी को अपने ज़हन में जाने का मौका देते जाईये..और वैसे भी इम्तियाज़ की ही फ़िल्म का सुर है "जो भी मैं कहना चाहूं, बरबाद करें अल्फाज़ मेरे" इसलिये लफ्ज़ों से बहुत दूर जाकर इस फ़िल्म को देखना होगा...जिसमें इंसान के दिल की अमूर्त तड़प को साकार करने की कोशिश इम्तियाज ने की है। खासतौर से नायक-नायिका द्वारा एक-दूसरे को आलिंगन करने वाला दृश्य जहाँ नायक अपने बनावटी रौबदार रूप से बाहर निकल एक बच्चा बन जाता है और नायिका स्त्री के स्वभावाविक रूप माँ के किरदार में आ जाती है...ओशो रजनीश की बात याद आती है कि प्रेम की गहराई पुरुष और स्त्री को उनके सर्वोत्तम और स्वाभाविक रूप में ला देती है जहाँ पुरुष में पुत्रत्व और स्त्री में मातृत्व का भाव आ जाता है और यही स्त्री-पुरुष का उत्कृष्टतम व सच्चा रूप है..इस रूप में आने के बाद स्त्री-पुरुष का आपस में किया गया आलिंगन, संभोग की परिधि से बाहर निकल जाता है अन्यथा इस संपूर्ण विश्व में प्रेम के नाम पे अपने हवस की पूर्ति और रस्म अदायगी ही हो रही है।

खैर, एक दर्शनीय फ़िल्म...कथा के परे यदि विधा के स्तर पर बात की जाय तो भी भले महानतम न हो पर बदतर भी नहीं है..ए आर रहमान का संगीत उनकी प्रतिष्ठा के अनुरूप। सिनेमैटोग्राफी और लोकेशन्स बेहतरीन और आपका पैसा वसूल करने की ताकत तो इसकी खूबसूरत लोकेशन्स में ही काफी है, सिनेमाई कथ्य की गुणवत्ता तो मुफ्त है..आलिया भट्ट का अभिनय लाजवाब है उन्हें देख लगता नहीं कि ये उनकी महज़ दूसरी फ़िल्म है..रणदीप हुड्डा का चुनाव एक किडनैपर के किरदार अनुसार एकदम फिट बैठा है..स्वाभाविक और उत्कृष्ट अभिनय। कुल मिलाकर कंपलीट पैकेज पर आप इसे सिर्फ मनोरंजन की उथली सतह से परे जाकर देखिये..ये आपको खुद के अहसासों का बोध कराने वाली प्रतीत होगी। एक आम इंसान की कथा..जहाँ कोरा आदर्शवाद नहीं बस स्वाभाविक आजादी की माँग है..जो प्रैक्टिकल है पर स्वार्थी नहीं। आपाधापी से घिरे किरदार बस मांगते है रत्ती भर प्यार..हमारी आपकी तरह। लेकिन समाज और रिवाज़ उन्हें काट देना चाहते हैं हमेशा की तरह सभ्य बनकर और प्यार करने वालों को असभ्य बनाकर..लेकिन फिर भी इन नायक-नायिकाओं का प्यार, नजदीकियों का मोहताज़ नही हैं..इरशाद कामिल 'रॉकस्टार' के लिये लिखते हैं 'जितना महसूस करुं तुमको, उतना मैं पा भी लूं' वैसा ही कुछ हाईवे में कहते हैं "हर दूरी शरमाये, तू साथ है हो दिन-रात है..साया-साया माही वे"। बंधनों के बावजूद प्रेम का सदियों से चला आ रहा अंतिम रिसोल्युशन- दूरियों के बावजूद बस एक अहसास...बिल्कुल हमारी-तुम्हारी तरह।

11 comments:

  1. चलिये देख आते हैं।

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  2. अंकुर ...आप की समीक्षा पढ़ कर ही लुत्फ़ आ जाता है ...जैसे पूरी पिक्चर देख ली ;;;;;
    कितना कडवा सच है ये और शर्मनाक भी .....
    अकेली लड़की खुली हुई तिजोरी की तरह है.............................
    शुभकामनायें !

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    1. आभार सलूजा जी... आपकी महानता है ये जो आप मुझे इस काबिल मानते हैं... :)

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  3. बढ़िया समीक्षा....
    "इम्तियाज के पास हमारे समय की सबसे ईमानदार प्रेम कहानियां हैं और वह होना बड़ी बात नहीं हैं क्योंकि वे और भी बहुत से लोगों के पास है. लेकिन इम्तियाज़ के पास उनका सबसे ईमानदार ट्रीटमेंट भी है.
    सहमत हूँ....
    शुभकामनाएं
    अनु

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    1. शुक्रिया अनुजी...

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  4. बहुत सुंदर समीक्षा ....पूरा फ़िल्म का निचोड़ आ जाता है सामने....

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    1. आभार आपका रंजना जी :)

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  5. बहुत सुन्दर समीक्षा ..

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    1. शुक्रिया महोदय।।।

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  6. धन्यवाद आपका..आता हूं आपके सरोवर में।।।

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