अपने लेख की शुरुआत करने से पहले..मैं बता देना चाहता हूं कि "एक चीज़ मिलेगी वंडरफुल" महज़ मेरे लेख का टाइटल नहीं है अपितु यह एक बेहतरीन डाक्युड्रामा हिन्दी फ़िल्म हैं...जिससे संभवतः काफी लोग अपरिचित हैं लेकिन मैं उन सबसे इसे अवश्य देखने की गुज़ारिश करता हूँ..फ़िल्म को ऑनलाइन देखने के लिये या डाउनलोड करने के लिये नीचे कुछ लिंक भी दे रहा हूँ जहाँ आप इसे देख सकते हैं- ये फ़िल्म निश्चित ही आपको दुनिया और अपने बारे में समझने का एक खूबसूरत अवसर मुहैया करायेगी-
सुख की चाह। ये इस विश्व के संपूर्ण चराचर प्राणी जगत की प्राथमिक चाह है...इसके अतिरिक्त तमाम ख्वाहिशें, उस मूलभूत चाह को पूरा करने के लिये हैं। इंसान चाहे नौकरी करे, शादी करे, पढ़ाई-लिखाई करे, खाना-पीना या सोना हो अथवा फिह ज़हर खाके मर ही क्यों न जाना हो...इन तमाम क्रियाओं में सिर्फ एक मूलभूत चाहत यदि कोई है तो वो है..सुख की उपलब्धि। जन्म से लेकर मृत्यु तक के तमाम उपक्रमों में हमने जो कुछ भी इस दुनिया में गढ़ा है वो सिर्फ और सिर्फ सुख-शांति या सुकून पाने के लिये ही किया है। हमारे उत्सव, हमारा सामाजिक ढ़ाचा, रीति-रिवाज़ या फिर हमारी सृजनात्मकता एवं कल्पनाशक्ति ये सारी चीज़ें सुख को हासिल करने के लिये हैं लेकिन प्रश्न यही है कि क्या उन तमाम प्रयासों में हमने ऐसा सुख पाया है जो सार्वभौमिक हो, सार्वकालिक हो या जिसे हासिल करने के बाद हम ऊब न जाये...और ये कहना बंद कर दें कि ये 'दिल मांगे मोर'। और अगर अब तक उन तमाम उपक्रमों के बावजूद हमारी भागमभाग बंद नहीं हुई है तो फिर निश्चित ही हमारे प्रयास विपरीत दिशा में काम कर रहे हैं और हमें सतही धरातल पे सुख खोजने के बजाय, समस्या के मूल में जाना होगा और अपनी कोशिशों की दिशा परिवर्तित करना होगा। बस इसी कथ्य को लेकर आगे बढ़ने वाली ये बेमिसाल फ़िल्म, इंसान की तथाकथित बौद्दिकता से कई प्रश्न करती हुई..हमें हमारी तलाश करने को ही मजबूर करती है।
इंसान अपने ज्ञान और अपने आविष्कारों पे आज जमकर इतरा रहा है और खुद को इस प्रकृति की नायाब रचना बताने पर आमादा है लेकिन प्रश्न यही है कि हमारी वो कौन सी क्रियाएं हैं जिसके चलते हम खुद को प्रकृति की दूसरी रचनाओं से बेहतर मानते हैं...वनपस्पति से लेकर कीड़े-मकोड़ों तक और कुत्ता-बिल्ली जैसे थलचरों से लेकर मछली-मगर और गिद्ध-कव्वौ जैसे नभचर व जलचरों तक सभी अपने Survival और सुख के लिये अपने-अपने स्तर पर वही क्रियाएं कर रहे हैं जिन्हें इंसान बेहद बुद्दिजीवी होने के बाद कर आ रहा है। आहार, मैथुन, संग्रह और माया अथवा छल ये वे क्रियाएं हैं जिनकी पूर्ति हो जाने पर हम खुद को सुखी सा महसूस करते हैं..लेकिन ये आहार-मैथुन-संग्रह आदि की वृत्ति के तमाम उपक्रम तो जानवरों मे भी जस के तस हैं हमारे ज्ञान का विस्तार भी यदि इन्ही चीज़ों की प्राप्ति के लिये होगा...तो हमने प्रकृति की अनमोल रचना होकर क्या किया? यदि संग्रहवृत्ति की बात की जाये तो शायद हम जानवरों से भी निकृष्ट हैं क्योंकि कोई जानवर तो महज़ अपनी भूख को पूरा करने के लिये कुछ समय तक को संग्रह करता है और सिर्फ जीवनोपयोगी चीज़ें ही एकत्रित करता है किंतु मानव की हवस सिर्फ अपनी भूख को शांत करने तक नहीं अपितु अपनी अगाध तृष्णा को संतुष्ट करना है और इंसान तो उन चीज़ों के संग्रह में भी बेसुध हुआ जा रहा है जिनका ज़िंदगी के Survival से कोई लेना देना नहीं है...इस शरीर की भूख तो तृप्त की जा सकती है किंतु तृष्णा रूपी गड्ढा तो इतना भयंकर है कि इसमें संपूर्ण पृथ्वी के संसाधन भी एक तिनके के समान हैं...लेकिन कदम-कदम पर अपनी तृष्णा को पूरा करने के बाद भी असंतुष्टि जस की तस बनी रहती है..और हमारी सुख के लिये दौड़ हमेशा जारी रहती है।
भोजन के सुख के लिये भूख का दुख होना ज़रुरी है, मैथुन के सुख के लिये कामवासना की पीड़ा होना ज़रूरी है, पानी का सुख प्यास के दुख पर आधारित है, सोने का सुख अनिद्रा के दुख पर आश्रित है...इस तरह अपने तमाम सुखों की एक लिस्ट बनाईये आप पायेंगे की हमारे दुख पर ही हमारा सुख आश्रित है। हमारा दुख जितना बड़ा होगा, हमें बाह्रा संयोगों से उतना ही ज्यादा सुख मिलेगा...और क्षुधा के तृप्त होने के बाद भोजन का अधिक संयोग दुख का कारण बन जाता है, वीर्यस्खलन के बाद संभोग कष्टकर हो जाता है यही हाल हमारे तमाम संयोग आश्रित सुख के साथ है। तो इस तरह जो कुछ वक्त पहले तक सुख का कारण था वही अब दुख की वजह बन गया है। लेकिन प्रश्न ये है कि इस सबमें सुख कहाँ है? दरअसल हम दुःखों के पर्वत पे खड़े होकर भ्रम से ही कुछ संयोगों की उपलब्धि को सुख मानने की भूल कर रहे हैं...और हमारा ये भ्रम इतना मजबूत और सजीव हो चुका है कि अब दूसरी किसी बात को या किसी और रास्ते को हम अपनाना ही नहीं चाहते...प्रत्यक्षवाद और तथाकथित वैज्ञानिकता की ओट में हमने इन चर्म चक्षुओं से दिखाई देने वाली चीज़ों के परे देखना ही बंद कर दिया है। और अपने संपूर्ण इंद्रियज्ञान को वृद्धिंगत व संतुष्ट करने के प्रयास में सहज-अनंत ज्ञान को अनदेखा कर दिया है। अल्फाज़ो को कहने की वजह अहसास तक पहुंचाना था पर हम अल्फाज़ों में ऐसा उलझे की अहसास कहीं दफन ही कर दिये गये।
यहाँ मैं जिस बात को करने की कोशिश कर रहा हूँ उसे इस फ़िल्म को देखे बगैर समझना मुश्किल है..क्योंकि भौतिकवाद की सुनामी ने हमारी मानसिकता को कुछ इस तरह अपनी गिरफ्त में लिया है कि इस तरह की बातों में हमें महज़ कोरी दार्शनिकता और पोंगापंथी ही नज़र आती है। लेकिन 'एक चीज़ मिलेगी वंडरफुल' हमारे तमाम पूर्वाग्रहों-दुराग्रहों और बौद्धिकता के अभिमान पर तमाचा मारने का प्रयास करती है जहाँ वर्तमान में मौजूद उद्धरणों और अक्सर व्यक्त किये जाने वाले तर्कों को उठाकर ही हमें पुनः-पुनः सोचने पे मजबूर करने की कोशिश की गई है...निर्देशक ने बेहतरीन कथ्य का प्रयोग कर अपने लक्ष्य तक पहुंचने का प्रयास किया है...और सिनेमा की इस जीवंत कला का प्रयोग बेहतरीन अर्थ के संप्रेषण के लिये किया है। भले ही इस फ़िल्म को हमारी सिनेमा इंडस्ट्री की बाकी फ़िल्मों की तरह दर्शक नहीं मिलेंगे..लेकिन ये फ़िल्म भविष्य के लिये सिनेमा की बेहतरीन धरोहर है और साथ ही ये अपनी तरह की कथा कहने वाली बेमिसाल दस्तावेज साबित होगी।
और ज्यादा यहाँ कुछ नहीं कहना चाहुँगा बस इतनी गुज़ारिश है कि इस फ़िल्म को ज़रूर-ज़रूर-ज़रूर देखें। अपनी व्यस्ततम ज़िंदगी में से महज ढाई घंटे का वक्त निकालकर, शांतचित्त हो इस फ़िल्म का दीदार करें... ये साहित्य या किसी पुराण से कमतर नहीं है। गर आपमें संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदना है तो ये फ़िल्म आपके लिये एक बेहतरीन अहसास कराने वाली साबित होगी...हाँ कुछ मनचलों और भौतिकवादिता के उपासकों के लिये ज़रूर ये एक बोझिल अनुभव हो सकता है। लेकिन ब्लॉग्स के इस साइबर संजाल पर मौजूद सभी लेखकों और पाठकों को मैं सामान्य बुद्धिजीवियों से काफी ऊपर, तह में जाकर विचार करने वाला मानता हूँ इसलिये मेरी उनसे तो प्रार्थना ही है कि आप ज़रूर देखें- एक चीज़ मिलेगी वंडरफुल।
हमारा ये भ्रम इतना मजबूत और सजीव हो चुका है कि अब दूसरी किसी बात को या किसी और रास्ते को हम अपनाना ही नहीं चाहते...प्रत्यक्षवाद और तथाकथित वैज्ञानिकता की ओट में हमने इन चर्म चक्षुओं से दिखाई देने वाली चीज़ों के परे देखना ही बंद कर दिया है।.............................ये वाक्य तो ऐसे हैं जैसे मेरे दिमाग से निकले हों। मूवी तो चलो जैसी होगी पर आपने उसके बहाने क्या गहरा विश्लेषण किया है भौतिक-अभौतिक के बीच में झूल रहे मानवीय अनुभवों, संवेगों का। बहुत अच्छा। वैसे मूवी देखने का प्रयास करूंगा।
ReplyDeleteशुक्रिया विकेश जी...वैसे इस फ़िल्म को ज़रूर देखें निश्चित ही ये आपको स्वयं के विचारों से मेल खाती प्रतीत होगी।
Deleteसुन्दर विशलेषण ......फ़िल्म देखने का प्रयास होगा
ReplyDeleteजी धन्यवाद..ज़रूर देखें इस अद्भुत सिनेमा को।
Deleteइतनी सशक्त सबल संस्तुति के बाद भी कोई न देखने की कैसे हिम्मत कर सकता है ?
ReplyDeleteसमय मिलते ही। । आपने अबहुत प्रभावपूर्ण लिखा है ! पूरी संवेदनात्मक प्रज्ञा के साथ!
आभार आपका..वैसे आपसे गुज़ारिश है ये फ़िल्म ज़रूर देखें।
Delete*बहुत
ReplyDeleteआपने इतना गहरा विश्लेषण किया है ... अब तो देखनी ही पड़ेगी ये फिल्म ...
ReplyDeleteशुक्रिया नासवाजी..जरूर देखें।
Deleteसमीक्षा की प्रबलता फिल्म की सटीकता को दर्शाती है।
ReplyDeleteउस फ़िल्म के कथ्य के समक्ष ये समीक्षा कुछ भी नहीं..आभार आपका।
Deleteगहन विश्लेषण...सुख की चाह प्रत्येक मंनुष्य के अन्दर होती है पर यह सुख स्थायी नहीं... समीक्षा ने फ़िल्म देखने की उत्सुकता जगा दी है...
ReplyDeleteहिमकर जी धन्यवाद..फिल्म अवश्य देखें।
Deleteगहन विश्लेषण,धन्यबाद आपका।
ReplyDeleteशुक्रिया आपका।।।
Deleteअपील भी मिली है वंडरफुल तो देखना ही है .
ReplyDeleteअपील ही की है अमृताजी... :)
Deleteआपकी बात शब्दशः सच है। देखते हैं यह फिल्म।
ReplyDeleteशुक्रिया प्रवीणजी..आप जैसे गहन बौद्धिक दार्शनिक मानस वाले व्यक्ति के लिये तो ये सिनेमा अद्भुत अनुभव होगा।।।
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ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रेर्णाणादायी ।
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