प्रेम का महीना बसंत गतिमान है..साथ ही पाश्चात्य संस्कृति प्रदत्त विभिन्न प्रेम के प्रतीक स्वरूप 'डे' भी सेलीब्रेट किये जा रहे हैं..प्रेम कम और तमाशा ज्यादा नज़र आ रहा है और सबसे ज्यादा इस सप्ताह को एक अवसर के तौर पे केश करने का काम बाज़ार कर रहा है..जहाँ ग्रीटिंग कार्ड, गुलाब और विभिन्न गजैट्स गिफ्ट के तौर पे देने का काम प्रेमी कर रहे हैं बस इसी वजह से बाजार में रौनक है।
बहरहाल, बात दूसरी करना है..प्रेम, एक ऐसी अनुभूति जिसका साम्राज्य संपूर्ण विश्व पे छाया हुआ है, जिस पर सबसे ज्यादा पन्ने काले किये गये हैं किंतु अब तक ये अपरिभाषेय और अव्यक्त मनोभाव ही रहा है और सिर्फ अनुभूतियों में ही सम्यक् तरीके से बसर करता है..किंतु फिर भी इसपे कुछ न कुछ कहने का जतन हर कवि, लेखक और चिंतक करता ही रहता है। मैं भी इसी कड़ी में एक व्याख्या करने के लिये उद्धृत हुआ हूँ...यकीनन मेरा प्रयास सफल हो इसकी संभावना कम ही हैं पर एक सच्ची कोशिश का कुछ न कुछ उत्तम आउटपुट आने की उम्मीद तो कर ही सकता हूँ...ये मेरे व्यक्तिगत विचार है जो मैंने साहित्य, सिनेमा और अपने आसपास के माहौल से अवलोकन कर निर्मित किये हैं साथ ही इन विचारों में मेरी स्वयं की कुछेक अनुभुतियां भी स्वभावतः सम्मिलित होंगी ही...और इस लेख के ज़रिये अब वे अमूर्त अनुभूतियाँ, मूर्त रूप लेने का प्रयास कर रही हैं।
मनोविज्ञान ने मानवमन के विचारों को सात भागों में विभाजित किया है..इनमें प्रथम से शुरु कर आगे-आगे का विचार उत्तमोत्तम कहा जाता है..तथा सप्तम विचार तक पहुंचना अंतिम ध्येय है और उस अंतिम विचार की निरंतरता के जतन में ही सारे धर्म-दर्शन बौद्धिक आलाप कर रहे हैं। ये सात विचार है- विषाक्त विचार (Toxic Thought), नकारात्मक विचार (Negative Thought), व्यर्थ विचार (Waste Thought), आवश्यक विचार (Necessary Thought), वास्तविक विचार (Real Thought), सकारात्मक विचार (Positive Thought) तथा उन्नत विचार (Elevated Thought)। प्रेम इस दुनिया की संभवतः ऐसी इकलौती अनुभूति है जिसमें ये संपूर्ण विचार एक साथ कम या ज्यादा मात्रा में हो सकते हैं। इन्ही वजहों से प्रेम इंसान को अधमाधम मनुष्य से लेकर एक दिव्य मनुष्य तक बनाने में कार्यकारी हो सकता है।
ईर्ष्या, क्रोध, अहंकार, लोभ और द्वेष जैसे प्रथम श्रेणी अर्थात् विषाक्त विचारों का सर्वाधिक बोलबाला वर्तमान में प्रेम के चलते देखने को मिलता है और इन्ही वजहों से प्रेम में नकारे जाने पे हत्या, बलात्कार, तेजाब फेंकना और आत्महत्या जैसी दुर्दांत हरकतें देखने को मिलती हैं। कई लोग इन तमाम चीज़ों के घटित होने के बाद ये कहते देखे जाते हैं कि ये कोई प्यार नहीं था..उन लोगों की नज़र में प्रेम का मतलब सिर्फ त्याग ही होता है पर ये एक अधूरा सच है क्योंकि उपरोक्त तमाम घटनाओं के पीछे प्रेम से उपजा आकर्षण अवश्य होता है...प्रेम जब अपनी हदों से बाहर निकल स्वछंद वृत्तियों का आलिंगन करता है तब यही मनोभाव हवस बन जाता है और हवस अपने आप में एक अति विषाक्त विचार है।
इसके साथ ही जहाँ प्रेम होता है वहाँ अनिष्ट की आशंका सदैव विद्यमान होती है..ये हम प्रति समय अपने रिश्ते-नातों और निकटवर्ती लोगों के बीच अनुभव करते हैं। इस अनिष्ट की शंका से जन्म लेते हैं द्वितीय श्रेणी के विचार अर्थात् नकारात्मक विचार..प्रतिसमय हमें अपने प्यार के खो जाने का डर सताता है और दिमाग की ऊहापोह तमाम चीज़ों से परे सिर्फ उन संशययुक्त नकारात्मक विचारों में उलझी रहती है। इन नकारात्मक विचारों के साथ ही दिमाग कुछ व्यर्थ के अनावश्यक विचारों को भी आसरा देता है..जिसमें व्यक्ति अपने प्रेमी के विषय में अनावश्यक चिंतन करता हुआ, कभी अनायास ही प्रसन्न रहता है तो कभी यूंही अवसाद में चला जाता है।
प्रेम में पाये जाने वाले उपरोक्त प्रथम तीन तरह के विचारों के अलावा, जो अन्य ऊपर-ऊपर के विचार है वे अपेक्षाकृत अधिक उत्तम है। चौथी श्रेणी में वर्णित आवश्यक विचारों का संबंध उन विचारों से है जो प्रेम को जिंदा रखते हैं..ये विचार उन कतिपय प्रयासों के प्रतिनिधि हैं जिनके सहारे व्यक्ति अपने रिश्ते को लंबा बनाता है। अपने प्रेमी को प्रसन्न रखने की कोशिशें, उसकी ज़रूरतों को समझना, अपने परिवेश को देखते हुए अपने रिश्ते के साथ योग्य समन्वय बनाये रखना। इन सभी प्रयासों के लिये चिंतनशील रहना आवश्यक विचारों के अंतर्गत शुमार है। इसके अतिरिक्त जो पंचम श्रेणी की विचार श्रंख्ला है वह अधिक प्रैक्टिकल और कल्पनालोक से दूर यथार्थपरक विश्व का प्रतिनिधित्व करती हैं..जिनमें भ्रमजनित प्रसन्नता और भ्रामक अवसाद नहीं बल्कि यथार्थपरक परिपक्वता और साम्यता निवास करती है। यहाँ किसी तरह के चाँद-तारों को तोड़ने वाले झूठे वादे या शेखचिल्ली के ख़याली पुलाव नहीं होते बल्कि अपनी परिस्थितियों को भलीभांति समझने वाला विवेक होता है..किंतु इस तरह की यथार्थपरक सोच प्रेम के आभामंडल को कहीं न कहीं कमजोर बनाता है क्योंकि प्रेम की चमक तो उसके पागलपन और एक मीठी सी सनक से ही ज़ाया होती हैं। लेकिन फिर भी पागलपन के साथ किसी प्रेम में डूबे व्यक्ति का सामना इन वास्तविक विचारों से भी होता ही है।
इस क्रम की अगली सीढ़ी है सकारात्मक विचार..प्रायः व्यक्ति के सकारात्मक होने को बेहतर माना जाता है और यह उसकी आंतरिक मजबूती का परिचायक भी होता है। सकारात्मक विचार हमेशा वास्तविक और आवश्यक विचारों के सम्मिश्रण से बनते हैं। इन विचारों में कल्पनाओं की अनावश्यक ऊछलकूद नहीं होती और न ही ये पूर्णतः प्रैक्टिकल ही होते है। इन विचारों में बस एक सच्ची उम्मीद होती है लेकिन उस उम्मीद के पूरे किये जाने का हठ नहीं होता। इन विचारों मे साहस होता है किंतु अपनी सीमाओं का भलीप्रकार ज्ञान भी पाया जाता है...इनमें अनावश्यक प्रसन्नता की चमक नहीं होती और न ही ये विचार बेबुनियाद के अवसाद से ग्रस्त होते हैं। एक उचित उम्मीद, सम्यक् प्रयास और विवेक की आधारशिला पे सकारात्मक विचारों की इमारत खड़ी होती है और यही विचार प्रेम को दैवीय स्वरूप तक पहुंचाते हैं अर्थात् ये अंतिम श्रेणी के विचारों से पहले वाली अवस्था के परिचायक हैं..इन विचारों के सोपान पर कदम रखकर ही व्यक्ति उन्नत विचारों की कक्षा में प्रवेश कर पाता है।
अंतिम प्रकार के विचार या कहें कि व्यक्ति को पारलौकिक श्रेणी में ले जाने वाले विचार..जो निर्मित होते हैं व्यक्ति के त्याग, समर्पण, निर्वाँछक, निस्वार्थ, निर्लोभ और क्रोध व अहंकार से रहित विचारों की सहायता से। प्रेम इन दिव्य विचारों की ओर ले जाने का भी एक महत्वपूर्ण माध्यम है..जहाँ व्यक्ति अपनी मानवीय कमियों से दूर हठ स्वयं में दैवीय गुणों की प्रतिस्थापना करता है..और प्राणीमात्र के प्रति करुणा व त्याग से लबरेज़ होता है जहाँ व्यक्ति का सबसे बड़ा सुख दूसरों के लिये किये गये स्वयं के त्याग से शुरु होता है..जहाँ पाने की नहीं सिर्फ देने की भावना प्रबल होती है...और इस तरह प्रेम व्यक्ति को संपूर्णता देने वाला एक महत्वपूर्ण अस्त्र बन जाता है।
इन तमाम विचारों में से ऐसा नहीं है कि प्रेम में डूबे किसी व्यक्ति को किसी एकआध विचार का ही सामना करना पड़े..ये सभी तरह के विचार अलग-अलग अवस्थाओं में एक ही व्यक्ति के अंदर आ सकते हैं। प्रेम में डूबा हुआ एक ही इंसान त्याग की मूर्ति भी हो सकता है और स्वार्थ व ईर्श्या का पुतला भी। ये विभिन्न तरह के विचार व्यक्ति की अपनी इच्छाशक्ति एवं संस्कारों पे निर्भर करते हैं प्रेम तो सिर्फ एक उदासीन निमित्त का कार्य ही करता है...क्योंकि व्यक्ति के मानस में उठने वाले विचार भिन्न-भिन्न भले हों पर प्रेम से जन्मा आकर्षण इतना विविध नहीं हो सकता...प्रेम एक नैसर्गिक प्रक्रिया है जिसपे काबू कर पाना आसान नहीं किंतु उस प्रेम से पैदा विचारों की दिशा निर्धारित करने का कार्य व्यक्ति कर सकता है। अन्यथा सिर्फ बाहरी संयोगों पर ही माथापच्ची और जोड़-घटाना चलता रहेगा..किंतु अंतर में प्रतिक्षण होने वाले नये-नये जुड़ाव एवं बिखराव से व्यक्ति अनभिज्ञ ही बना रहेगा।
प्रेम जब अपनी हदों से बाहर निकल स्वछंद वृत्तियों का आलिंगन करता है तब यही मनोभाव हवस बन जाता है और हवस अपने आप में एक अति विषाक्त विचार है।
ReplyDeleteलाजबाब,सटीक आलेख ..!
RECENT POST -: पिता
आभार आपका...
Deletenice post.......
ReplyDeleteमगर प्रेम की इतनी मनोवैज्ञानिक व्याख्या करोगे तो प्रेम करने के लिए वक्त ही कहाँ रह जाएगा :-)
enjoy valentine day !!
anu
व्याख्या करने के अलावा भी टाइम निकाल लेते हैं अनुजी..शुक्रिया आपकी आत्मीय प्रतिक्रिया के लिये।।।
Deleteप्रेम के विभिन्न आयाम हैं, उत्तरोत्तर विकास।
ReplyDeleteशुक्रिया प्रतिक्रिया हेतु।।
Deletesunder alekh badhai
ReplyDeleterachana
धन्यवाद आपका....
Deleteप्रेम एक नैसर्गिक प्रक्रिया है और सत्य यह है कि इसे भी सीमा में ही जिया जाना होता है .
ReplyDeleteइस विषय पर एक अच्छा आलेख .
सही कहा अल्पना जी...
Deleteआभार प्रतिक्रिया हेतु।।।
आपने तो एक नई थ्योरी दे डाली ।
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