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(अपने जीवन की यात्रा का विवरण प्रस्तुत कर रहा हूँ..बहुत हद तक स्वांतसुखाय लिखा गया ये स्मरण, वास्तव में स्वयं की प्रेरणा के लिये है पर कुछ संघर्ष ऐसे हैं जो शायद किसी ओर के लिये भी प्रेरक साबित हो सके...जिंदगी के कुछ हिस्सों में भरपूर लफ्फाजी है तो कुछ बेहद ट्रेजिक लम्हों से भी दो चार हुआ। जो लम्हें रंगीन हैं वो यकीनन आप के बचपन की नटखट हरकतों को ताज़ा करेंगे लेकिन जो यादें त्रासदियों से लबरेज़ हैं वो एक हौंसले का संचार करेंगी, ऐसी मेरी आशा है...गुजश्ता किस्तों में काफी कुछ कह चुका हूँ अब उन पलों से आगे बढ़ने का वक्त है। हालांकि जैसा में पहले भी कह चुका हूँ कि सब कुछ कह पाना नामुमकिन है पर कम कहे गये में सबकुछ को समेटा ज़रूर जा सकता है..बस आप अल्फाज़ की जगह अहसास पढ़ने की कोशिश कीजिये)
गतांक से आगे-
कक्षा आठ की परीक्षा देने के बाद हर बार की तरह इस बार भी नानी के यहाँ छुट्टी मनाने गया था...जैसा कि बता चुका हूँ नानी के यहां जाना बड़ा ही रोमांचक हुआ करता था पर वहाँ एक हद तक ही मन लगता था उसके बाद वापस अपने गाँव लौटने की तलब मचा करती थी...लेकिन कुछ नाटकीय घटनाचक्र के कारण इस बार कि मेरी छुट्टियां लंबी होने जा रही थी...दरअसल अब मैं छुट्टियों के बाद वापस अपने घर लौटने वाला नहीं था और कक्षा नवमी में मेरा प्रवेश मेरे ननिहाल मतलब छिंदवाड़ा में ही होने जा रहा था। यह एक अहम् परिवर्तन था इसलिये थोड़ी घबराहट थी पर कुछ एडवेंचरर्स जैसी अनुभूति भी थी इसलिये थोड़ा जोश भी था.. लेकिन ये जोश कुछ हफ्तों में ही फ़ना हो गया और फिर उस जगह रहना मेरे लिये बस एक भार जैसा लगने लगा..धीरे-धीरे आत्मविश्वास भी मुरझाने लगा। कल तक जो मैं अपने आपको गाँव का शेर मानता था पर अब इस शहर में आकर अपने यथार्थ का भान हुआ और खुद को सब से काफी पिछड़ा महसूस किया और शायद इसी वजह से अब यहाँ स्कूल जाना, दोस्त बनाना, उनसे मिलना, पढ़ाई करना सब कुछ एक बोझ की तरह महसूस होने लगा।
अपने आत्मविश्वास के कम होने का एक और कारण शायद नानी के घर के आर्थिक हालात भी थे जिसके कारण मैं अपने संगी-साथियों में खुद को दीन-हीन महसूस करता था..जबकि अपने पैतृक निवास पे मैंने आला दर्जे की संपन्नता देखी थी पर यहाँ एकदम उल्टा ही था। स्वयं के तत्कालीन अहसासों की समीक्षा करता हूँ तो समझ आता है कि आर्थिक-सामाजिक परिस्थितियां किस तरह से बालमन की बुनावट करती हैं और बचपन की उन अनुभूतियों के फलस्वरूप ही किसी व्यक्तित्व का निर्माण होता है...गोया कि बाहरी माहौल, आंतरिक वातावरण को आकार देता है जबकि ऐसा होना उचित नहीं माना जा सकता क्योंकि अंतर के वैचारिक परिवेश का निर्माण सद्ज्ञान और संस्कारों से होना चाहिये और उस आंतरिक परिवेश के अनुरूप हमें बाहरी वातावरण तैयार करना चाहिये।
छिंदवाड़ा की इस भूमि पे रहते हुए एक और दुखद वाक़या मेरे साथ हुआ जब एक खेल के दौरान पेड़ पे से गिरने के कारण मेरे दोनों हाथ फ्रैक्चर हो गये और तकरीबन डेढ़ माह तक हाथों पर चढ़े प्लास्टर के कारण मैं उन सारे कामों से महरूम था जिनमें हाथों की ज़रूरत पड़ती है। उन पलों की अनुभूति बयाँ कर पाना ख़ासा मु्श्किल है पर ये समझ लीजिये कि जब महीने भर बाद मेरे प्लास्टर के खुलने की तिथि आई और एक्सरा रिपोर्ट में गड़बड़ी के चलते, उस प्लास्टर के खुलने की डेट को जब एक हफ्ते बढ़ा दिया गया..तो उस आगे बढ़े एक हफ्ते का वक्त मेरे लिये एक सदी के बराबर जान पड़ा था। कई बार ये सोच के अफसोस होता है कि हमें उपलब्ध चीज़ों की कीमत कभी समझ नहीं आती...न हम हाथों की कीतत समझते हैं न आँखो की, यहाँ तक की इस अनमोल जीवन की महत्ता का ख़याल भी हमें कभी नहीं आता। लेकिन ज़िंदगी के उन पलों ने मुझे कम उम्र में ही काफी कुछ सिखाया...इस कारण मुझे उन लम्हों से कोई शिकायत नहीं है और कहीं न कहीं उन लम्हों का ही योगदान है कि मैं जीवन में आने वाली आगामी विषमताओं के सामने मजबूती से खड़ा रहा। इस दौरान मेरा संघर्ष जो था वो अपनी जगह है पर मेरी नानी का मेरे लिये किया गया संघर्ष भी कुछ कम नहीं था..उन डेढ़ माह तक उनका जीवन सिर्फ मुझ तक केन्द्रित हो गया था..क्योंकि मैं इस कदर लाचार और निहत्था था कि मैं अपनी दिनचर्या की मौलिक चीज़े करने के लिये भी नानी का मोहताज़ बन गया था। नानी का मेरे लिये किये गये उस दौर के बर्ताव और समर्पण का मूल्य मैं किन्ही शब्दों से बयां नहीं कर सकता।
बहरहाल, इन कुछेक त्रासद पलों के अलावा कुछ बड़े ही रंगीन और महत्वपूर्ण जज़्बातों से भी मैं दो-चार हुआ..जिसमें सबसे ज्यादा अहम् चीज़ जो इस भूमि से मुझे मिली वो थी सांध्यकालीन पाठशाला। जिसमें भाग लेने हम हर शाम मंदिर जाया करते थे..इसने सद्ज्ञान, सत्चरित्र और संस्कारों का ऐसा बीजारोपण मुझमें किया जो ताउम्र मेरे चरित्र की मजबूती का आधार बना हुआ है। दरअसल, यह पाठशाला अधिकारिक तौर पे मेरी पहली धार्मिक-आध्यात्मिक शिक्षा का सोपान थी...बाद में ऐसे कई सोपानों से गुज़रते हुए मैंने आध्यात्मिक शिक्षा के शिखर तक की सैर की किंतु उस प्रथम सोपान की नींव को भुला पाना बहुत मुश्किल है। इसके अलावा मेरे दोस्त के घर में स्थित छोटे से ग्राउंड में हर शाम चार बजे क्रिकेट खेलने जाने का अपना अनुभव था...हर रोज़ मैं चार बजने का इंतज़ार किया करता, किसी दिन यदि मामा मुझे अपनी दुकान पे बैठा के बाहर चले जाते और इसी बीच क्रिकेट का टाइम हो जाता तो मन में अपने मामा को भी भला-बुरा कहने से नहीं चूकता था। क्रिकेट की इनकी रंगीनियों के अलावा हर सुवह कोचिंग को जाना, गवर्नमेंट कॉलेज में दोस्तों के भद्दे और अश्लील चुटकुलों को सुनना, चाहे जिसकी शादी-विवाह के फंक्शन में जाके तरह-तरह के व्यंजन खाना, स्कूल बंक करके पार्क में बैठना और न जाने ऐसे कितने तरह के अनोखे और मजेदार अनुभव थे जिनसे मैं पहली बार गुज़र रहा था...लेकिन इन अनुभवों से गुज़रते हुए मेरे अंदर एक व्यक्तित्व का सतत् निर्माण हो रहा था।
ये दौर 2000-2001 के दरमियां का है...नई सदी में दुनिया प्रविष्ट हो चुकी थी और मैं भी अहसासों की नई कशिश को महसूस कर रहा था। मेरे लिये ये जीवन का वो दौर था जब बचपनें ने पूरी तरह मेरा दामन नहीं थामा था और जवानी ने अब तक दस्तक नहीं दी थी..लेकिन अंदर ही अंदर कुछ तो बदल रहा था..और उस बदलाव के चलते कुछ विद्रोही जज़्बात रुह में दस्तक दे रहे थे तो कई रुमानी ख़यालों से भी दो चार होने लगा था..लेकिन उन नादान जज़्बातों में भटकने की सर्वाधिक संभावना थी..ऐसे में संगति सर्वाधिक असर करती है। जो उन जज्बातों को अपने अनुरूप आकार देने का माद्दा रखती है..खैर इन जज़्बातों का विवरण आगे की किस्तों में दूंगा..फिलहाल इन्हें स्किप कर आगे बढ़ता हूँ।
भारत-आस्ट्रेलिया की ऐतिहासिक टेस्ट श्रंख्ला गतिमान थी..हरभजन की हैट्रिक और लक्ष्मण-द्वविड़ की शानदार पारियों की बदौलत आस्ट्रेलिया के विजयरथ को रोककर इंडिया चहुंओर कीर्ति अर्जित कर रही थी...लेकिन मैं इन खुशियों में डूबा हुआ होने पर भी वापस अपने घर लौटने को बेचैन था...अपने उसी गांव जहाँ घर के पीछे एक बूढ़ा आम का पेड़ है, जहां दादी के पलंग के पास सुलगती सिगड़ी है, जहां हरे-भरे खेत और उबड़-खाबड़ कच्चे रास्ते हैं, जहां कंचे, गिल्ली-डंडा और एक टूटा हुआ क्रिकेट का बल्ला है...मैं वहीं लौट जाना चाहता था...मेरे माँ-बाप के लिये मेरा वापस लौटना कहीं न कहीं मेरे उन्नत भविष्य के टूटने की तरह था..मेरे विकास की राह में रोड़ा था...पर बचपन कहाँ विकास चाहता है वो तो सिर्फ खुशी चाहता है..और वो खुशी यदि बैलगाड़ी, टूटे हुए खिलौनों और कच्ची पगडंडियों में मिल रही हो तो भला कौन हवाईजहाज, शॉपिंग मॉल और विदेश भ्रमण की आरजू करे???
ज़ारी............
आ० अंकुर भाई , बहुत हि सुंदर , धन्यवाद
ReplyDelete|| जय श्री हरिः ||
Information and solutions in Hindi
वाकई बचपन के अनुभव क्या कहने। अपने शरीर के अंगों की उपयोगिकता या कहें जीवन का होने का महत्व तभी मालूम होता है जब शरीर का कोई अंग क्षतिग्रस्त हो जाए या किसी गुणवत्तापूर्ण जीवन को हम अपने सामने संवेदना के साथ अवसान हुआ देखते हैं। रही आपके २००१ में भारत-आस्ट्रेलिया सीरीज की बात तो एकदम से लगा कि ये तो कल की ही बात थी मेरे लिए लेकिन देखतेदेखते २०१४-२००१=१३ साल बीत गए। यानि कि एक पीढ़ी ने किशोर से नौजवानी की सीढ़ी तय कर ली। खैर सबके अपने बचपन के अनुभव होते हैं उनकी कद्र की जानी चाहिए। खासकर आप जैसे लेखन कर्म में रत् नौजवानों की बचपन की बातें हमें अपने बचपन की बातों से तुलना करने का एक रुमानी अवसर देती हैं। और यह सोचते हुए लगता है कि मैंने जो बचपन जिया वह अब के नौजवानों के बचपन से परिस्थितियों के अनुरूप कितना भिन्न है! खैर बहुत बढ़िया।
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