Saturday, January 18, 2014

गपोढ़ अल्फाज़ और अधेड़ अहसासों की 'डेढ़ इश्किया'

'हर किसी को आज़ादी पसंद होती है लेकिन उस आज़ादी के लिये किसी न किसी को तो कीमत ज़रूर चुकानी होती है'...लगभग ऐसे ही किसी गंतव्य तक पहुंचने का प्रयास करती अभिषेक चौबे निर्देशित और विशाल भारद्वाज निर्मित 'डेढ़ इश्कियां' देखी। हालांकि विशाल भारद्वाज की छाया इस फ़िल्म पे पड़ी हुई है इसलिये किसी सार्वभौमिक कथ्य तक पहुंचने की आशा आप नहीं कर सकते...क्योंकि मासुमियत और गहन बौद्धिकता के बीच फंसे इस फ़िल्मकार के कथानक को देख लोग इसे अपने-अपने ढंग से विश्लेषित करते हैं..और विश्लेषण के पश्चात सबके अपने-अपने ही निष्कर्ष होते हैं। वैसे ये विशाल से ज्यादा अभिषेक की फ़िल्म हैं इसलिये आप मनोरंजन और अर्थों की कुछ नई परतें इस सिनेमाई कलेवर से उखाड़ सकते हैं। मनोरंजन के लिये इस फ़िल्म की गपोढ़ संवादगी और अर्थों की खोज के लिये इसके अधेड़ पड़ चुके जज्बातों की उधेड़बुन की जा सकती है..कुछ इन्हीं वजहों से ये सिनेमा के पारंपरिक मनोरंजन से दूर हो ऑफबीट फ़िल्म होने का दंभ भर सकती है...किंतु फिल्म का ट्रीटमेंट, सिनेमेटोग्राफी और कुछ ऐसी ही दूसरी चीज़ें इसे मुख्यधारा के सिनेमा में धकेल देती हैं।

इंसान के रुहानी जज़्बातों की विविध परतों और तकरीबन बूढ़े हो चुके अहसासों को..समाज की रिवाज़ी बंदिशों से आज़ाद कर एक नया आसमान देने की कोशिश अभिषेक चौबे ने की हैं...यूं तो फ़िल्म का मनोरंजन पक्ष ज्यादा मुखर है इसलिय फ़िल्म के कुछ कंट्रोवर्सियल मायने चुप्पी साधे रहते हैं। खासतौर से वर्तमान के इस दौर में जहाँ देश की एक कोर्ट द्वारा समलैंगिकता को बड़ा अपराध बताया गया है, धारा-377 पर राजनीतिक गहमागहमी ज़ारी है.. उसी दौर में ये फ़िल्म बड़ी खामोशी से उन रिश्तों की पैरवी करती नज़र आती है। निर्देशक ने फिल्म में बेहद संवेदनशील दृश्यों को इस चतुराई से फिल्माया है कि अंत तक उस रिश्ते के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता...पारा ज़ान(माधुरी) और मुनिया(हुमा कुरैशी) के आपसी संबंधों को जिस असमंजसपूर्ण स्थिति के साथ फिल्मकार ने प्रस्तुत किया है वो भारतीय समाज के अंदर बहुत बड़े विवाद की वजह माने जाते हैं किंतु फिल्मकार के प्रस्तुतिकरण का तरीका इतना ज्यादा डिप्लोमेटिक है कि विवाद करने की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती। जबकि इसी रिश्ते के बिंदास प्रस्तुतिकरण के चलते मीरा नायर की 'फायर' विवादास्पद बन जाती है। 

पारा और मुनिया के रिश्ते की पृष्ठभूमि निर्मित करने की जो वजह फिल्मकार ने दी है उसके चलते दर्शकों को भी इस रिश्ते के साथ हमदर्दी हो जाती है। इस रिश्ते की वजह भी पारा के शौहर का समलैंगिक होना बताया गया है...और अपने शौहर की इन अय्याशियों के चलते ही पारा की ज़िंदगी में तन्हाई है और पारा ज़ान को उस तन्हाई को दूर करने का ज़रिया किसी मर्द के नहीं बल्कि एक औरत के प्रेम में ही नज़र आता है। अपने पति की अय्याशियां और उनके समलैंगिक संबंध पारा के मन में सारे मर्द समाज के लिये ही नफ़रत का बीज़ बो देते हैं और पुरुष की इन स्वछंद हरकतों के खिलाफ ही उसकी जंग है..उसका बदला किसी मर्द को ठगने से पूरा होगा जिससे वो अपने स्वछंद आनंद के पैमाने निर्धारित कर सकें, उस आनंद को जी सके।

एक खास बौद्धिक वर्ग को  ये रास्ता महिलासशक्तिकरण के दरबाजे पे दस्तक की तरह नज़र आयेगा..जहाँ ये स्त्री द्वारा अपनी आजादी और आनंद के लिये किये गये संघर्ष का ही एक रूप माना जायेगा...और इसे वे स्त्री का तिरियाचरित्र न कह 'Survival of Fittest' कहना ज्यादा पसंद करेंगे। एक स्त्री अपने शरीर को मर्द को सौंपते वक्त भी अपना ही उल्लु सीधा कर रही है और संभोग उपरांत उस मर्द को भी ये संशय बना हुआ है कि उसने स्त्री का इस्तेमाल किया है या वो खुद स्त्री द्वारा इस्तेमाल किया गया है...अबसे पहले औरत की इज़्जत को दैवीय रूप देकर हमेशा उसे पुरुष के समक्ष दबाने की कोशिश की गई है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि औरत, चाहकर भी पुरुष की आबरु नहीं लूट सकती किंतु पुरुष ऐसा कर सकता है।

एक औरत द्वारा अपने भ्रम का आभामण्डल रचा जाता है और उस आभामण्डल की चमक के चलते ही कई नवाब अपने हुनर की पेशगी उसे पाने के लिये करते हैं...एक अधेड़, बीमार और अवसाद ग्रस्त महिला अपनी चालाकियों से दिग्गज मर्दों को बेवकूफ बनाती है..और उन अधेड़ मर्दों के बुढ़या चुके अहसासों को भी जवान बनाती है, उनमें नये अरमान जगाती है। इन तमाम कारगुज़ारियों के दरमियां परदे पे हमें मर्दों की विशाल महफिल के बीच सिर्फ एक औरत ही इंटेलीजेंट नज़र आती है अन्यथा हिन्दी सिनेमा का सुर तो हमेशा से औरतों को 'क्यूट' कह कर उनकी बेवकूफी की बिक्री करने वाला ही रहा है। वास्तव में पुरुष अपनी कमतरी को छुपाने के लिये ही साहित्य-सिनेमा और समाज में उन रिवाज़ों को जन्म देता है जिससे स्त्री अबला नज़र आती है अन्यथा प्राकृतिक तौर पे स्त्री, परुष की तुलना में अधिक मजबूत और हुनरमंद रही है। 'डेढ़ इश्किया' कहीं-कहीं नारी की उस सशक्तता का ऐलान करते नज़र आती है। एक अन्य अहम् बात जो इस सिनेमा में देखी जा सकती है कि फ़िल्म में तकरीबन तमाम किरदार अधेड़ उम्र के हैं लेकिन उनमें मोहब्बत के जज़्बात और इश्क पाने की हसरत अब भी जवां बनी हुई है..इन अहसासों की लुका-छिपी के बीच ही आला दर्जे की मूर्खता पैदा होती है और यही मूर्खता दिल को बच्चा बनाये रखती है। जिस बात को इस फ़िल्म के पिछले संस्करण में एक गीत के ज़रिये दर्शाया गया था।

बहरहाल, बेहतरीन अभिनय, शानदार संवाद एवं शायरियां, उम्दा निर्देशन, बढ़िया सिनेमेटोग्राफी और नवाबी कल्चर के दीदार करने की आरजू है तो डेढ़ इश्कियां एक अच्छा विकल्प है। हालांकि इस फ़िल्म की टारगेट ऑडियंस बहुत ज्यादा युनिवर्सल नहीं हैं पर आप थोड़ा भी शायराना और आशिकाना मिज़ाज रखते हैं तो 'डेढ़ इश्कियां' आपको निराश नहीं करेगी..और जैसा कि बताया कि ये विशाल भारद्वाज के बैनर तले बनी फिल्म है तो विशाल की फ़िल्मों में आपको ऐसी एक-आध चीज़ मिल ही जाती है जो आपके पैसे वसूल करवा देती है। लेकिन साथ ही ये भी याद रखें कि चुंकि ये भारद्वाज बैनर की फ़िल्म हैं तो आप बिना किसी निष्कर्ष के ही सिनेमाघरों से बाहर आयेंगे...क्योंकि दर्शकों को निश्कर्ष तक पहुंचाने से विशाल की यूएसपी प्रभावित होती है और अपनी यूनिकनेस के साथ समझौता करना विशाल को कतई पसंद नहीं आएगा........

19 comments:

  1. कलात्मक समीक्षा ....

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  2. सारगर्भित समीक्षा |आभार अंकुर जी |

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    1. धन्यवाद तुषार जी...

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  3. यही रचा गया आभामण्डल ही आकर्षण की आधारशिला है।

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    1. सही कहा प्रवीणजी...

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    1. शुक्रिया आपका...

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  5. film badi hi gandi thi, aapne iski bebaki se khinchai ki hai.

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    1. जी नहीं...मैंने सिर्फ खिंचाई नहीं की शायद आपने समीक्षा को ठीक से नहीं पढ़ा....

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  6. इस चलचित्र का नाम 'इश्‍क छिछोरा' हो तो यूनिकनेस भी प्रभावित होगी और निष्‍कर्ष पर भी पहुंचा जा सकता है। जो भी है लेकिन आपने जबर्दस्‍त तरीके से इसके बारे में बताया है।

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    1. धन्यवाद विकेशजी....

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  7. नसीर और विजय राज की बेहतरीन अदाकारी का ज़िक्र अलग से करना लाज़िमी था.. और हमरी अटरिया.. और वो जो हममें तुममें... से बने एक ख़ास माहौल का भी।

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    1. जी आप सही कह रही दीपिकाजी..मुझे ये ज़िक्र करना था..पर मैनें अलग नज़रिये से फिल्म का ब्यौरा प्रस्तुत किया है इसलिये नसीर-विजयराज बगैरा का विशेष ज़िक्र करना मुझे अप्रासंगिक लगा...

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  8. सुब्दर कलात्मक समीक्षा ... अभी देखि नहीं फिल्म पर अब लगता है देखनी पड़ेगी ...

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    1. शुक्रिया नासवाजी..

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  9. आपकी समीक्षा पढ़ कर ही फिल्म का मज़ा ले लेते हैं ......
    आभार!

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    1. जी शुक्रिया इन समीक्षाओं को इस काबिल मानने के लिये....

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  10. आप की नज़र से फिल्म के विभिन्न पहलूओं को देखना रुचिकर लगा.

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