कुछ दिनों पहले प्रदर्शित हुई फिल्म 'लंचबॉक्स' में, अर्थशास्त्र में पढ़ाई जाने वाली एक महत्वपूर्ण अवधारणा "सकल राष्ट्रीय खुशहाली(Gross National Happiness)" की चर्चा काफी महत्वपूर्ण अर्थ को संप्रेषित करने के लिये की गई थी। हालांकि विश्व के सारे देश अपनी उपस्थिति एक उन्नत राष्ट्र के रूप में दर्ज कराने के लिये..आज "मानव विकास सूचकांक(Human Development Index)" के ऊंचे नंबरों की तरफ ललचायी निगाहों से देखते हैं...लेकिन मानव विकास सूचकांक के बादशाहत के इस काल में लोगों की खुशी को, समृद्धि का पैमाना बताने वाली "सकल राष्ट्रीय खुशहाली" की ये अवधारणा आज अच्छे खासे विकसित राष्ट्रों को भी सोचने को मजबूर कर रही है।
एक बेहद छोटे से राष्ट्र भूटान ने स्वयं की समृद्धि का पैमाना उन चीज़ों को बनाया..जो असल में इंसान और प्रकृति के सामंजस्य के साथ खुशहाल जीवन का प्रतीक हैं। प्रकृति को रौंदते हुए, उसका चौतरफा शोषण करते हुए आगे बढ़ने की तमाम विकास की नीतियों को, इस छोटे से देश ने नकार दिया...और अपने मूल्यों की रक्षा करते हुए, सांस्कृतिक दायरे को बरकरार रखते हुए तथा प्रकृति और पर्यावरण की दैवीयता के संरक्षण के साथ, इस देश ने हर चीज़ से पहले मानवमात्र की खुशी को चुना। सकल राष्ट्रीय खुशहाली हेतु जो मानक तय किये गये हैं उन्हें देखकर ये कहा जा सकता है कि लंबे समय तक के लिये सतत् पोषणीय विकास (Sustainable Development) इस ही रास्ते पे चलकर संभव है।
एक तरफ जहाँ "मानव विकास सूचकांक(HDI)" लोगों की क्रय शक्ति में वृद्धि(Purchasing Power), साक्षरता दर(Literacy rate) और जीवन प्रत्याशा(Life Expectancy) जैसे मानकों को विकास का पैमाने मानता हैं...तो दूसरी तरफ "सकल राष्ट्रीय खुशहाली" में अच्छी आय के साथ अच्छा अभिशासन, पर्यावरणीय संरक्षण और सांस्कृतिक प्रोत्साहन जैसे मानक शामिल किये गये हैं। निश्चित ही HDI में सम्मिलित किये मानक विकास हेतु काफी अहम् है पर उन मानकों को हासिल कर लिये जाने के बावजूद भी मानव अपनी संतुष्टि से कोसों दूर है उल्टा वह अब कुछ ज्यादा ही असंतुष्ट हो गया है। अमेरिकन-यूरोपियन देश आज इंफ्रास्ट्रक्चर, शिक्षा, टेक्नॉलाजी, चिकित्सा जैसे क्षेत्रों में संपूर्ण विश्व से काफी आगे हैं पर बावजूद इसके इन देशों की जनता अपनी तीव्रतम आकांक्षाओं के चलते घोर असंतुष्टि का जीवन जीने को मजबूर है। भौतिकवादी आग की लपटों में ये देश इस कदर झुलसे हैं कि वे किसी आईफोन, आईपॉड के लांच होने पे अपने शरीर के अंग बेचने के लिये या फिर सैक्सुअल डिजायर की तीव्रतम ख्वाहिश के चलते हर निकृष्टतम तरीकों को अपनाने तक के लिये तैयार हैं।
पर्यावरण की बलि चढ़ाकर, इंफ्रास्ट्रक्चर को मजबूत किया जा रहा है...भावनाओं को कुचलकर तकनीक एडवांस हो रही है..रिश्तों का गला घोंट कर प्रति व्यक्ति आय और क्रय शक्ति भी बढ़ रही है...शिक्षा का प्रसार हो रहा है पर दुर्भावनाएं और विसंगतियां कम नहीं हो रही..चिकित्सकीय सुविधाएं जीवन प्रत्याशा को भी लंबा कर रही है पर वो श्वांसे कम होती जा रही हैं जिनमें खुशी बसर करती हो। लेकिन इन सभी चीज़ों को विसरा कर सिर्फ झूठे आंकड़ों के आधार पे हरकोई खुद को महान् साबित करने का राग आलाप रहा है।
सकल राष्ट्रीय खुशहाली (GNH) और मानव विकास सूचकांक (HDI) के अंदर जो सबसे बड़ा फर्क है वो यही है कि जहाँ GNH में सांस्कृतिक प्रोत्साहन का समावेश किया गया है तो दूसरी ओर HDI में इसके लिये कोई अवकाश नहीं है। सांस्कृतिक प्रोत्साहन के अंदर कई मूल्य आधारित (Value Based) बातों को शामिल किया गया है औऱ ऐसा कहा जाता है कि 'जीवन में नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों का समावेश किये बिना प्रगति वरदान के बदले एक अभिषाप बन सकती है।' बहुत हद तक कई पश्चिमी देशों में ऐसा देखने को भी मिल रहा है...जहाँ बच्चे अपने स्कूल-कॉलेज के बैग में किताबों के साथ पिस्तौल लेकर भी निकलते हैं, जहाँ शादी की तिथि के साथ ही तलाक की डेट तय हो जाती है, जहाँ परिवार जैसी संस्था का पूर्णतः अभाव है, जहाँ बच्चे लोगों के लिये शारीरिक सुख में एक बड़ी बाधा हैं...जहाँ धर्म-दर्शन की बातें आत्मिक शांति से ज्यादा सिर्फ स्टेटस सिंबल बनकर रह गई हैं। इंद्रियजनित सुख की तलाश में जहाँ आध्यात्मिक सुख और संस्कार हासिये पे फेंक दिये गये हैं...और इंसान गहन असंतुष्टि में रहने के बावजूद अपने विनाश को ही विकास मानकर तालियां पीटे जा रहा है।
भूटान जैसे छोटे से देश की इस अवधारणा के बारे में जब भी चिंतन करता हूँ बड़ा आनंद महसूस होता है और मैं खुद को और अपने आसपास के माहौल को भी HDI के बजाय GNH के मानकों पर आंकने का ही प्रयास करता हूँ..पर कई बार मुझे अपने आसपास चल रही पश्चिम की हवाओं को और लोगों को उसके प्रभाव में मस्त देख काफी निराशा सी महसूस होती है..लेकिन उसपे अपनी जुवां बंद ही रखनी पड़ती हैं क्योंकि अपने मूल्यों की समझाईश यदि मैं लोगों को दूंगा तो महफिल के अंदर सबसे ज्यादा हंसी का पात्र मैं स्वयं ही बनूंगा...और बस इसलिये होंठों पे एक दर्दभरी मुस्कान लिये आगे बढ़ जाता हूँ और लोग मुझे खुश मानकर मानव विकास सूचकांक के मानकों के अनुसार ज्यादा नंबर दे देते हैं...........
सुन्दर प्रस्तुति-
ReplyDeleteआभार आदरणीय-
जी शुक्रिया...
Deleteसही बात कही।
ReplyDeletethank you Akshay...
Deleteसही कहा अंकुर। हालात बुरे हैं। मानव विकास सूचकांक एक कम्प्यूटर की एचटीएमएल प्रक्रिया के अलावा कुछ नहीं है। निश्चित रूप से भूटान ने अच्छा उदाहरण प्रस्तुत किया है। मैं अपने आलेखों में संस्कृति, संजीवन की बात करता हूँ, आधुनिकता की उस अति का विरोध करता हूं जो आदमी को मात्र एक भ्रम बनाने पर तुली हुई है तो लोग उलटे मुझे ही समझाने लगते हैं कि समय के साथ बदलाव तो होगा ही। अरे भाई यह नकारा बदलाव देखकर ही तो मैं संस्मरण और संस्कृतिपरक आलेख लिख रहा हूँ। कम से कम समर्थन नहीं करना तो विरोध तो ना करो शाश्वत स्थिति का। लेकिन कौन समझाए पगलाए लोगों कों। आपने बहुत दूर तक मेरी दिशा में विचार प्रस्तुत किए हैं इसलिए अच्छा लगा। और सौंवी पोस्ट के लिए बहुत बहुत बधाई। भावी शुभकामनाएं। वर्तमान के सभी हिन्दू त्यौहारों की भी अनेकों शुभकामनाएं।
ReplyDeleteसही बात कही विकेशजी... आपके ब्लॉग के ज़रिये आपके विचारों से भी वाकिफ हूँ मैं इसलिये समझ सकता हूँ कि वर्तमान परिवेश पे आपके क्या मंतव्य हैं..आभार इस प्रतिक्रिया के लिये।।
Deleteये साला (सॉरी) कहाँ फ़िल्मी है ?? :-)
ReplyDeleteऐसे जटिल विषयों पर दाद देना मुश्किल काम है अंकुर....हाँ ज्ञानवर्धन हेतु आभार प्रकट कर सकती हूँ.
सौवीं पोस्ट की बधाई !!
शुभकामनाएं...नया साल खूब सारी सफलताएं लेकर आये!!
अनु
अनुजी जटिल विषयों की भी गहराई में ज़ाया जाये तो पता चलता है कि वे भी वाकई में फ़िल्मी ही हैं...हम फिल्मी होने को सतही मान बैठे हैं पर सच्चाई यह है कि फ़िल्में जटिलता का आसान प्रस्तुतिकरण मात्र ही होती हैं..आभार आपकी प्रतिक्रिया के लिये।।
Deleteभूटान ने एक नया दृष्टिकोण दिया है मानव विकास के सूचकांक को ... माप दंड एक से हों या नहीं ... ये तर्क का विषय होना जरूरी है ..
ReplyDelete१०० पोस्ट की बधाई ...
धन्यवाद आपका...
Deleteस्थानीयता में प्रसन्न रहने से मानव विकास को एक नया रूप दिया जा सकता है।
ReplyDeleteसही बात..शुक्रिया आपका।।।
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