Friday, February 22, 2013

क्या इस हिंसा के ताण्डव का कोई अंत है....?


हैदराबाद दहल रहा है। आतंक के राक्षस ने इस हाईटेक होते शहर को मूंह चिढ़ाया है "कि बेटा देखते है तरक्की की कौन-सी इबारत तुम्हें दर्द से बचा सकती है"। 2008 के सिलेसिलेवार हमलों की यादें आज भी जहन में करवटें बदलती रहती हैं...तब हैदराबाद को बख्श दिया गया था..पर आतंक ने इस बार अपनी वापसी के लिए इस आधुनिक होते और सांस्कृतिक ढंग से जीने वाले शहर को चुना है। शायद ये मुंबई के ताज होटल पे हुए हमले से बड़ा नहीं है..और नाही इसे संसद के हमले के समतुल्य आंका जाएगा। लेकिन फिर भी इन हमलों की आवाज देश के और सत्ता के गलियारों में गूंजती जरूर है..ये बात अलग है कि उस गूंज को भुलाने में ज्यादा वक्त नहीं लगता। अफजल और कसाब को फांसी दी तो क्या हुआ..आतंक के मोहरे अभी और भी है। मोहरों को मार गिराने से उस विचार का क़त्ल नहीं होता..जो जिंदगी की बिसात पे इन मोहरों का प्रयोग करता है।

विकास चौमुखी नहीं है, पर इस देश में आतंक के तमाचे चारों ओर बरस चुके हैं। धर्म, संस्कृति, जाति, भाषाओं में बंटे इस देश की आतंक के दर्द से निकली आह एक है। सामाजिक असमानताओं के बावजूद सभी के आंसु समान है..विषमताओं की सरहदें अनेक हैं पर त्रासदियों के जख्म एक हैं। सच, अनेकता में बंटी इस दुनिया में आंसु और खुशी कितने धर्मनिरपेक्ष और साम्यवादी होते हैं। 

मीडिया आंक रहा है कि संसद, ताज या मुंबई लोकल ट्रेन जैसे कई हमलों में से ज्यादा शर्मनाक कौन सा है...पर अफसोस इसका जबाव तलाश पाना बहुत मुश्किल है, क्योंकि हमने भुकंप को, बरसात को, तापमान को या शरीर के ज्वर को नापने वाला स्केल तो बना लिया है पर भावनाओं को नापने वाला स्केल अभी विकसित कर पाना बाकी है। त्रासदी और दर्द को आखिर किस थर्मामीटर से नापें? 

लगातार होने वाले ये आतंकी हमले इंसानों के साथ-साथ हमारी संवेदनाओं को भी मार रहे हैं। अब धमाकों की ख़बर हमें विचलित नहीं करती, न दिल में कोई टीस उठती है इन ख़बरो को सुनना अब हमारी आदत बन चुका है। हर हमले के बाद वही नेताओं के भाषण, न्यूज चैनल के रिपोर्टरों द्वारा अलग-अलग एंगल से लोगों का दर्द दिखाना, अखबार के प्रख्यात स्तंभकारों द्वारा संपादकीय लिख देना या मेरे जैसे लेखन रुचि वाले लोगों द्वारा ब्लॉग या डायरी का कुछ स्पेस घेर लेना जस का तस होता है। हालात नहीं बदलते। बौद्धिक बयानबाजियों, तिकड़मी आरोप-प्रत्यारोपों के कलेवर बदलते हैं भौगोलिक परिवेश में फर्क नहीं आता। कुछ समय बाद धमाके की गूंज वायुमण्डल में कहीं खो जाती है और इंतजार होता है अगले बवण्डर का....

बड़े-बड़े जुलूस निकालकर, चौराहों पर प्रदर्शन कर नेताओं को गाली दी जाती है...लोगों को जागने के लिए कहा जाता है...पर सवाल ये है कि बेचारा आम आदमी जागकर कर क्या लेगा, उसके पास वोट डालकर नेता चुनने के अलावा और अधिकार ही क्या है...उसे मेहनत-मजदूरी कर दो वक्त की रोटी और अपने बच्चों की मांग पूरी करने से फुरसत मिले तो वो सड़कों पर आए। वो बेचारा इन मजबूरियों के साथ अपनी जिंदगी को चलाने की जुगत में ही लगा होता है और ये आतंक उसकी जिंदगी को ही थाम देता है...यहां सिर्फ उस एक इंसान की जिंदगी में ही भूचाल नहीं आता..फर्क उस पूरे परिवार पर पड़ता है जो जिंदा होकर भी जिंदा नहीं रह जाता।

उस आम आदमी की समस्या महंगाई, बेरोजगारी या गरीबी से भी बड़ी है उसके सामने अपनी मूलभूत सुरक्षा का प्रश्न है। जिंदगी का प्रश्न है। वो अपनी इस असुरक्षा के लिए किसे उंगली दिखाए ये उसकी समझ से परे है। दीमक कहीं लगी है और खोखला कोई और हो रहा है। आतंकवादियों को क्या नसीहत दी जाए, उन्हें जहां से नसीहत मिलती है वो चीज बहुत बड़ी है। उनकी मगरमच्छ की खाल को शब्दों से नहीं भेदा जा सकता। उनका ज़मीर ही उन्हें नसीहत दे सकता है।

सुना था कि कलयुग का रूप बड़ा भयावह होगा पर इतना भयावह होगा ये अंदाजा नहीं था। इस समस्या को सुलझाने की तरकीब हमारे पास नहीं है, इस समस्या का समाधान भी उन दहशतगर्दों के पास है। यहां हमारी नहीं उनकी समझदारी से रास्ता निकलेगा, लेकिन वो दिन कब आएगा ये बता पाना असंभव है। दरअसल, जलना इस देश की फितरत बन चुका है..गर इस आतंकवाद की आग थोड़ी ठंडी पड़ती है तो हम दूसरी आग सुलगा देते हैं कहीं धर्म के नाम पर, कहीं क्षेत्र के नाम पर या फिर आरक्षण, नक्सलवाद और जाने क्या-क्या। इस आग मे वो इंसान हताहत होता है जिनसे उस बेचारे का कोई लेना-देना ही नहीं था। इस सबके कारण जीवन की दूसरी समस्याओं से हमारी नज़र ही हट जाती है, क्योंकि मूल समस्या ही जीवन की बन चुकी है।

खैर, ये दौड़ते-भागते शहर थमना नहीं जानते। आतंक के राक्षस के इन तमाचों से वो गिर तो जाते हैं पर उठकर फिर भागने लगते हैं...लेकिन दौड़ते-दौड़ते ये यही सवाल करते हैं कि मेरे दौड़ने से किसी को क्या तकलीफ है। धमाके में मरे लोगों को श्रंद्धांजलि। घायल लोगों पे संवेदना। इसके अलावा कुछ और किया भी नहीं जा सकता..पीड़ित लोगों का दर्द बांट पाना संभव नहीं पर उनके लिए दुआ जरूर कर सकता हूं। कुछ समय बाद आंख के आंसु सूख जाएंगे, दिल का दर्द भी चला जाएगा, जुवाँ खामोश हो जाएगी पर ये खामोश जुवाँ हमेशा यही पूछेगी कि मौत के इस ताण्डव का कोई अंत है.........?????

Monday, February 18, 2013

प्रेम : प्रसन्नता एवं प्रताड़ना का मिश्रित रसायन

"यह भ्रम है केवल भ्रम..कि प्रेम मनुष्य को अमर बनाता है। मनुष्य को अमर बनाती है निर्ममता, निरीहता- अमर होते हैं सिर्फ पत्थर के देवता! दुःख, सुख, वेदना, आनंद, जीवन और मृत्यु से उदासीन...इनकी पथरीली आंखों में आंसु नहीं आते- ऐसा अमृतत्व देवताओं के लिए है मनुष्य के लिए नहीं...मनुष्य के लिए है प्रेम। जिसमें मृत्यु है और मृत्यु जीवन की प्रेरणा है, विरह प्रेम की उत्तेजना है और यही है मानव जीवन के दुःख-सुख का विधाता" धर्मवीर भारती की ये पंक्तियां प्रेम का सटीक विवरण प्रस्तुत करती है जहां प्रेम में अफसोस करने की समस्त गुंजाइशों की मनाही है...जो प्रेम जीवन में प्रसन्नता भरता है उसी प्रेम को ये पूरा हक़ है कि वो प्रताड़ित करे। प्रेम का आकांक्षी जब प्रसन्नता को न्यौता देता है उसी वक्त उसका मौन निमंत्रण प्रताड़नाओं के लिए भी होता है।

जीवन को दिशा, हमेशा अमूर्त चीजों से ही प्राप्त होती है और यही नियंता होती है हमारी ख़ुशी और ग़म की। चाहे प्रेम हो, प्रेरणा हो, कल्पना हो या फिर हो उम्मीद...ये तमाम चीजें हमारे ईर्द-गिर्द एक भ्रम का आभामण्डल रचती है और इन्हीं से हासिल किए जज्बातों से लबरेज हो इंसान बहुत-कुछ कर गुजरता है। इन अमूर्त चीजों से ही मिली हुई मूर्त चीजों को देख इंसान की सफलता और असफलता के मानक निर्धारित किए जाते हैं...पर कभी भी होता वो नहीं जो दिखता है और यहीं आकर वे समस्त चीजें जो दिखती है वो भ्रम हो जाती है और न दिखने वाली चीजें यथार्थ। इंसान अपने सुख-दुख का निर्धारक स्वयं होता है और स्वयं ही उसे भोगता है। खलील जिब्रान की एक उक्ति है "इंसान इस दुनिया में नितांत अकेला है, प्रेम और दोस्ती उसे किसी के साथ होने का भ्रम पैदा करते हैं"। जब तक ये भ्रम जिंदा है तब तक ही प्रसन्नता है, भ्रम टूटा और प्रताड़नाएं प्रारंभ। कल्पनाओं के लोक में ही अतीव आनंद विचरण करता है...वास्तव में कुछ अभीष्ट के पाने से ज्यादा प्रसन्नता, उसे पाने की कल्पनाओं में है इसी तरह कुछ प्रियवस्तु को खोने से ज्यादा दुख, उसे खोने के ख्याल में है।

कहते हैं प्रेम, सीमाएं निर्धारित करता है किंतु मनुष्य के व्यक्तित्व का आकाश असीम है। अगर चन्दन पवन के झोंको के साथ सुगन्ध रूप में न बिखरकर उन्हीं मलय-शिखाओं में सीमित रह जाए तो संसार में कौन उसे जान पाएगा। ऐसे ही प्रेम गर मनुष्य के असीम व्यक्तित्व में समाकर अनंत की यात्रा न करें तो संसार में उसकी पहचान समाप्त हो जाएगी। लेकिन आज प्रेम का संसार सीमित है कुछेक व्यक्तियों में, कुछेक जज़्बातों में, कुछेक दिनों और कुछेक वस्तुओं में..बस यही कारण है कि प्रेम सीमित है और मोहताज हो चुका है कुछ हासिल करने के लिए...जिसमें से मिट चुका है देने का भाव, त्याग और समर्पण। खड़ी हो चुकी है जिसके सामने कई सीमाएं, बन चुके हैं तमाम बंधन और खो दी है इंसान ने वो संवेदनाएं जो प्रेम को समझ सके। यही वजह है कि घुट रहा है प्रेम रिवाज़ों और समाजों के बीच...प्रेम के साथ ही घुट रहा है इंसान, उन प्रताड़नाओं के कारण जो प्रेम को न समझने के कारण पैदा हुई है। इस प्रताड़ना ने पैदा की है असीम पीड़ा, असीम क्रोध और असीम दुर्वासनाएं...जो कभी भी प्रेम का मक़सद नहीं थी।

इन प्रताड़नाओं से प्रेरित होकर प्रेम कब नफ़रत में बदल जाता है पता नहीं चलता...कोसता है उस शख़्स को जिसे दिलो-जान से ज्यादा चाहता था और मोहब्बत को कहता है बदनसीबी। प्रेम हो जाती है उस ओस के बूंद के समान जिसे सूरज की किरणें हर लेती है...और व्यक्ति बन जाता है उन जमीन में लहलहाने वाली दूर्वाओं के समान, जो तरसती है ओस की बूंद को पाने के लिए और तकती है प्यासी दृष्टि से नीलाकाश की ओर। गर किरणों को चाहा होता तो मिलता अनंत प्रकाश और आकाश से होती दिल्लगी तो मिलता असीम आश्रय। लेकिन प्रश्न ये है कि क्या ओस की नमी, कभी किरणों से मिल सकती थी...भले कुछ देर को ही सही या फिर मिल सकती थी आकाश की शुन्यता में जीवन की हरियाली? प्रेम और जीवन का कोई पर्याय दुनिया में नहीं हो सकता। लेकिन इंसान इन दोनों को ही छोड़कर भाग रहा है 'कुछ और' की तलाश में..पर वो 'कुछ और' क्या है ये शायद उसे ही पता नहीं।

प्रसन्नता और प्रताड़नाएं मिलकर प्रेम को जीवन देती है किसी भी एक के साथ चलते हुए प्रेम में कभी भी नवीनता नहीं आ सकती। प्रताड़ना के प्रत्येक आघात में प्रसन्नता  का आभास खोजना ही प्रेम है। रात्रि के अंधकार में ही ऊषा की किरण छुपी होती है...पत्थर के सनम ही मोहब्बत के खुदा होते हैं। भले वो सिर्फ कल्पनाओं में ही क्यों न हों और कल्पना का सौन्दर्य वास्तविकता से अधिक स्थायी होता है। प्रेम की लहरों के टकराने पर कल्पना के पत्थर टूट जाते हैं- कल्पना की जमीन पर प्रेम के पदचिन्ह अमर होते हैं। इन पदचिन्हों की आवाजें आती है गुजरे वक्त की यादों में। कल्पना प्रेम को नया जीवन देती है और यही मृत्यु में भी प्रेम का साथ देगी। जहां कल्पना है वहीं प्रेम होगा और वही होगी कोमलता और सरसता...लेकिन सिर्फ ये आनंद ही नहीं होगा वहां..इनके साथ ही निवास करेगी वेदना, प्रताड़ना।

आज की नवसंस्कृति के समझ से परे है ये विषय...नवसंस्कृति के लिए प्रेम है गुलाब के फूलों में,महंगे ग्रीटिंग कार्डस्, उपहारों और चॉकलेटों में, चुंबन और सेक्स में, वेलेंटाइन की विसेस में...और मैं भी इसी नवसंस्कृति का प्रतिनिधि हूं बस यही कारण है कि प्रेम को समझने की मुश्किल कोशिशों में लगा हूं............अंश


Wednesday, February 6, 2013

कुछ अनुभव की कलम से....

कुछ जिंदगी के अनुभव
   मेरी ज़िन्दगी के कडवे मिज़ाज, हालातों की बेरुखी और कई बार दूनियादारी की कम समझ होने के साथ ज़ज्बाती होने की जो सज़ा मुकर्रर की गई है उसी का फलसफा यहाँ हिस्सों मे पेश कर रहा हूँ यह मेरी शाश्वत भटकन का प्रतीक है और अपने जैसे किसी की तलाश का परिणाम भी...। ये मेरे द्वारा ईजाद किए गए कोई दिव्य वाक्य नहीं हैं पर जिस किसी के भी कहे गए लफ़्ज हैं उसने यथार्थ के गहन अनुभव से ही इन्हें कहा होगा, मैंने तो बस इन्हें अपनी जिंदगी में साकार होते देखा है। इन्हें मेरे द्वारा किसी व्यक्ति विशेष का चरित्र चित्रण अथवा व्यक्तिगत अनुभव का सारांश न समझा जाए बल्कि इसका अर्थ अधिक व्यापक एवं सम्रग है...मै ऐसा समझता हूँ....।

चलिए शुरु करते हैं-
  1. इस दुनिया में आपके अलावा कोई आपको सुखी नहीं कर सकता और नाही कोई दुखी बना सकता।
  2. समस्या अपना समाधान खुद खोज लेती हैं आपके हाथ सिर्फ सब्र करना होता है समाधान नहीं।
  3. दूनिया मे अपने जैसा कोई और भी होगा ऐसा सोचना सबसे बडी मूर्खता है लोग अपने जैसे प्रतीत होतें है लेकिन होता कोई नही।
  4. ऐसे आदमी से सदैव सावधान रहना चाहिए जिसके पास खोने के लिए कुछ भी न हो।
  5. किसी के लिए अपने सपनों के साथ समझौता किसी हालत मे नही करना चाहिए वरना ज़िन्दगी भर एक कसक बनी रहती है।
  6. 'विश्वास मत करो, संदेह करो' यह दर्शन ज्यादा प्रेक्टिकल है जिसे अक्सर भावुक लोग नकार देते है।
  7. प्यार और परिंदे को खुला छोड़ दीजिए, अगर लौट के आया तो आपका है और नहीं आया तो आपका था ही नहीं।
  8. अपने अतिरिक्त किसी से भी वफा की उम्मीद करना बेमानी है, सबकी अपनी-अपनी मजबूरी होती हैं।
  9. कच्ची भावुकता और परिपक्व संवेदनशीलता मे फर्क करना जितनी जल्दी सीख सको सीख लेना चाहिए वरना आप अक्सर रोते हुए पाए जाते हैं और हालात आप पर हँसते है।
  10. मित्रता के साथ कभी सामूहिक व्यवसायिक प्रयास की सोचना भी मूर्खता है अंत मे न दोस्ती नसीब होती है और न ही कुछ व्यवसायिक काम सिद्द होता है।
  11. इस दुनिया में हर इंसान रिश्तों के तवे पर अपने-अपने स्वार्थ की रोटियां सेंक रहा है फिर वो चाहे मां-बाप हों, भाई-बहन, पत्नि या प्रेमिका।
  12. अक्सर लोग आपका ज्ञान आपसे सीखकर आपके ही सामने बडी ही बेशर्मी के साथ बघार सकने की हिम्मत रखते है सो इसके लिए मानसिक रुप से तैयार रहना चाहिए।
  13. आप किसी के लिए सीढ़ी बन सकते हैं लेकिन मंजिल कभी नही, अक्सर लोग एक पायदान का सहारा लेकर उपर चढ़ जाते हैं और आप जड़तापूर्वक यथास्थान खडे हुए रह जातें है।
  14. रंज, मलाल, अपेक्षा और अधिकारबोध ऐसे भारी भरकम शब्दों को समझने की मैंटल फैकल्टी लोगो के पास होती ही नही है।
  15. रिश्तों मे अपनी जवाबदेही अक्सर कम ही लोग समझ पातें है दोषारोपण बेहद आसान है लेकिन किसी की कमजोरियों के साथ उसका साथ निभाना बहुत मुश्किल काम है।
  16. सफलता सम्बन्धों का फेवीकोल है असफल लोग अक्सर एक साथ नही रह पातें है।
  17. अतीत व्यसन से बडा कोई दूसरा व्यसन दूनिया मे हो ही नही सकता यह आपको रोजाना जिन्दा करता है और रोजाना मारता हैं।
  18. दूनिया की सबसे बडी सच्चाई यही है कि आदमी इस भरी दूनिया में नितांत ही अकेला है, सम्बन्धो का हरा-भरा संसार एक शाश्वत भ्रम है।
  19. दुनिया में इंसान की पहचान कभी उसके स्वतंत्र अस्तित्व और व्यक्तित्व से नहीं होती; बाहरी संयोग, शोहरत और सफलता अनिवार्य आईडी कार्ड है।
  20. आपका कोई भी फैसला कभी गलत नहीं होता, बस कुछ के नतीजे ग़लत निकल आते हैं।
   अभी बस इतना ही और भी बहुत सी बातें है लेकिन अगर मै सभी को लिखुंगा तो आपको लगेगा कि महान लोगों की उक्तियाँ टीप रहा हूँ। यह मेरा तज़रबा है ऐसे ही कुछ तज़रबे आपके भी हो सकते हैं यदि हैं तो अवगत कराएं। अगर आप इनसे कुछ सबक ले सकें तो मुझे खुशी होगी लेकिन यह सच है कि मैं आज तक नही ले पाया हूँ।.........अंश

Sunday, February 3, 2013

हिन्दी सिनेमा में सफल प्रेम कहानियों का दर्शन

फराह ख़ान की फिल्म 'ओम शांति ओम' का संवाद है "हमारी जिंदगी भी हिन्दी फ़िल्मों की तरह होती है जहां फ़िल्म ख़त्म होते-होते सब ठीक हो जाता है और गर सब ठीक न हों तो समझना, पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त"। यथार्थ के धरातल पर ये चीज कितनी सही बैठती है कहना मुश्किल है पर हमारे हिन्दी सिनेमा का दर्शन 'हैप्पी एंडिंग' वाला ही रहा है...और यही चीज हिन्दी सिनेमा की प्रेम कहानियों के साथ हैं। नायिका का अंततः आदर्श नायक की बांहों में समा जाना ही प्रयोजनीय है उससे पहले का सारा तामझाम कथा को खींचने के जतन मात्र है...बाधाएं और संघर्ष रास्ते के सेतु मात्र हैं मंजिल तो मिलन ही है और सिनेमा का यही दर्शन उसकी सफलता की कुंजी है। दरअसल, बाधा और संघर्ष जितने विशाल और जटिल होंगे उनसे संभलकर निकली कहानी ही सर्वाधिक सफल मानी जाती है।

जिंदगी का दर्शन सिनेमा के दर्शन से काफी अलग है। यहां हैप्पी एंडिंग के प्रश्न ही नहीं खड़े होते क्योंकि जिंदगी अंतरहित होती है...थमना जिंदगी नहीं, चलना जिंदगी है... और युं भी एंडिंग तो हमेशा दुखदायी ही होती है...मजा तो पड़ावों को पार करने में आता है। लक्ष्य कभी अंतिम नहीं हो सकता और होना चाहिए भी नहीं...बस हम धीरे-धीरे पडा़वों को पार करके लक्ष्य की ओर बढ़ते जाते हैं और जैसे-जैसे पड़ाव पार होते जाते हैं लक्ष्य भी बढ़े बनते चले जाते हैं। लक्ष्य की राह में सफलता जितना बड़ा सच है असफलता उससे भी बड़ा सच है। माना कि सफलता का कोई अंत नहीं पर असफलता भी तो अंतिम नहीं होती...लेकिन इन सबसे परे सिनेमा ने जो दर्शन तैयार किया है वो जिंदगी का दर्पण बनने में नाकामयाब है। समानांतर सिनेमा तो एकबारगी असफलता, लाचारी और दर्द को स्वीकार कर लेता है पर व्यवसायिक सिनेमा को ये सब पचा पाना मुश्किल है। गोया ये माना कि राज का संघर्ष सिमरन को पाने तक था पर सिमरन को पाने के बाद ऐसा तो नहीं की संघर्ष ख़त्म हो जायें...क्या सिमरन को पाने के बाद जब राज हनीमून पर युरोप जाएगा..तब उस वक्त की रुमानियत भी वैसी ही होगी, जैसी कि इन दोनों के मिलन से पहले वाले टूर की थी।

सिनेमा में एक आम इंसान वही चीजें खोजता है जो उसके सपनों में होती है..पर उन्हें वो अपने यथार्थ में नहीं जी पाता। एक सफल प्रेम को यथार्थ में ढूंढ पाना बहुत मुश्किल है यहां इश्क में आबादियां कम बरबादियां ज्यादा हुआ करती हैं। प्रेम में दर्द का ग्राफ हमेशा सुकून से ऊपर रहता है पर न तो इश्क पे विराम लगता है नाही दर्द पे। तड़प से पैदा हुए ये जज़्बात तड़प को ही तलाश आसरा पाते हैं..और गर इश्क के ये जज्बात न मिले तब भी अधूरेपन की तड़प बनिस्बत बनी रहती है। सिनेमा ने इश्क की इस तड़प को भी महिमामंडित किया है...'वीरज़ारा' का वीर बाईस सालों से नायिका की पायल हाथ में थामें खामोश दर्द सहता है उसकी चुप्पी नायिका की इज्जत को सलामत बनाए हुए है तो ज़ारा ने अपनी जिंदगी वीर के सपने के नाम कर दी है। इनकी इस दूरी को वकील का किरदार अदा कर रही रानी मुखर्जी कुछ युं बयां करती है कि ये इंसान के रूप में फरिश्ते हैं या फरिश्ते के रूप में इंसान...पर अंत में यहां भी हैप्पी एंडिंग है।

'कयामत से कयामत तक' के नायक-नायिका मरना पसंद करते हैं.. फ़िल्म में परिस्थितियां ऐसी हैं कि दोनों का मरना ही दर्शक को रास आता है कुछ और हुआ तो वो एंडिंग अनहैप्पी हो जाएगी। तो दूसरी ओर करण जौहर अपनी 'कुछ-कुछ होता है' प्रेम की हैप्पी एंडिंग के लिए टीना के मर जाने के हालात रचकर अंजली को राहुल से मिला देते हैं। 'कभी-कभी' के अमिताभ और राखी अपने मां-बाप की इच्छा के लिए अपने प्रेम की बलि चढाते हैं पर आखिर में अपने बच्चों (ऋषि कपूर और नीतु) को मिलाकर हैप्पी एंडिंग का अहसास कराते हैं। तो सूरज बड़जात्या की दैवीय आदर्श से सजी फ़िल्मों में 'प्रेम' को आखिर अपना प्रेम मिल ही जाता है फिर वो चाहे अपने प्यार के लिए ऐशोआराम का जीवन छोड़के कोयले की खदानों मे काम करे या फिर आग से झुलसी नायिका से 'विवाह' कर अपने आदर्श को प्रस्तुत करे। 'बॉडीगार्ड' की नायिका खुद को इंतजार की आंच पर तपाती है और आखिर में लंबे इंतजार के बाद नायक आता है और अपनी छाया को ले जाता है।

सिनेमा में प्रेम का रसायन ऐसा ही है यहां या तो नायक-नायिका परिस्थितियों से जूझते रहेंगे या फिर नायक, नायिका के लिए.. या नायिका, नायक के लिए बेकरार रहेगा। मामले के सुलझने के लिए हमें अंतिम फ्रेम तक इंतजार करना पड़ता है। 'नमस्ते लंदन' की नायिका को अपने हमवतन आशिक के लिए प्यार का अहसास तब होता है जब वो अपने विदेशी मंगेतर की उंगली में 'मैरिज रिंग' डालने से बस एक कदम दूर है तो ऐसा ही कुछ संजय लीला भंसाली की 'हम दिल दे चुके सनम' में है जब नायिका को अपने पति की निगाहों का प्यार तब दिखता है जब वो अपने पूर्वप्रेमी की बांहों में समाने से बस कुछ दूरी पर ही होती है। 'मन' के आमिर ख़ान अपनी अपंग हो चुकी प्रेमिका को गोद में लेकर शादी करते हैं तो 'दाग' में राजेश खन्ना अपनी प्रेमिका के लिए सालों इंतजार करते हैं और इस बीच हालातों के जरिए ब्याही अपनी पत्नी (राखी) को स्पर्श करना उनके उसूलों के खिलाफ है। अंत में शर्मिला और राजेश का मिलन दर्शक को फीलगुड देता है...कुल मिलाकर हैप्पी एंडिंग।

लेकिन क्या हकीकत में परिस्थितियां इतनी आदर्श सभी के लिए होती है...क्या इतनी आसानी से यथार्थ के धरातल पर धर्म, जाति, क्षेत्र और आर्थिक असमानताओं के भेदों को तोड़ा जा सकता है और यदि समस्त विषमताओं को तोड़कर जो रिश्ते बनते हैं क्या वे उतनी ही खुशहाली से आगे जी पाते हैं जिस खुशहाली से उन्हें मिलते हुए दिखाया जाता है? क्या समाज इन विषमताओं के बाद उन रिश्तों को मुख्यधारा में जोड़कर स्वीकार कर पाता है? इन सारे सवालों के जबाब हमें सिनेमा में नहीं मिलते और जो जबाव मिलते हैं वे यथार्थ की जमीन से काफी अलग होते हैं। क्या समाज 'अमर प्रेम' की पुष्पा और आनंदबाबू की तरह एक विवाहिता स्त्री के प्रेम को किसी अन्य मर्द के साथ स्वीकार करेगा जबकि पुष्पा अपने पति के द्वारा निष्कासित जीवन बिताने को मजबूर है...या फिर 'प्रेमरोग' के ऋषिकपूर के एक विधवा स्त्री से विवाह को लेकर समाज का उदारवादी नजरिया रह पायेगा? जबाव मिलना मुश्किल है...अगर नायक को परंपराओं से परे जाकर काम करना है तो उसे ज़हन में यही रखना पड़ेगा कि 'कुछ तो लोग कहेंगे लोगों का काम है कहना'...क्योंकि इश्क की चिंगारी कुछ ऐसी ही है उसे बुझाने के लिए दिल में आग ही होना चाहिए, पानी से काम नहीं चलता।

कुल मिलाकर सिने संसार की हकीकत ऐसी ही है जहां प्रेम कहानियों को यथार्थ के पैमाने पर तौलने के बजाय व्यवसायिकता के धरातल पर ही तौला जाता है..और सिनेजगत की व्यवसायिकता सफल प्रेम कहानियों पर निर्भर है। जिस तरह से सिनेमा की सफल प्रेम कहानियों का कारण व्यवसायिक बुद्धि है उसी तरह यथार्थ की असफल प्रेम कहानियों का कारण भी व्यवसायिक बुद्धि है...क्योंकि यथार्थ में रिश्ते लाभ के दृष्टिकोण से तय किये जाते हैं। इसी कारण संबंध कम और समझौते ज्यादा होते है। सार यही है कि सिनेमा के फसाने हों या समाज की हकीकत...यहां 'आदर्श' एक स्वपन है और 'व्यवसायिकता' यथार्थ।

जनाब! 'हैप्पी एंडिंग' जैसी कोई चीज ही नहीं होती... ये तो हमारी नज़र होती है जो एंडिंग को हैप्पी या अनहैप्पी करार देती है.........