फराह ख़ान की फिल्म 'ओम शांति ओम' का संवाद है "हमारी जिंदगी भी हिन्दी फ़िल्मों की तरह होती है जहां फ़िल्म ख़त्म होते-होते सब ठीक हो जाता है और गर सब ठीक न हों तो समझना, पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त"। यथार्थ के धरातल पर ये चीज कितनी सही बैठती है कहना मुश्किल है पर हमारे हिन्दी सिनेमा का दर्शन 'हैप्पी एंडिंग' वाला ही रहा है...और यही चीज हिन्दी सिनेमा की प्रेम कहानियों के साथ हैं। नायिका का अंततः आदर्श नायक की बांहों में समा जाना ही प्रयोजनीय है उससे पहले का सारा तामझाम कथा को खींचने के जतन मात्र है...बाधाएं और संघर्ष रास्ते के सेतु मात्र हैं मंजिल तो मिलन ही है और सिनेमा का यही दर्शन उसकी सफलता की कुंजी है। दरअसल, बाधा और संघर्ष जितने विशाल और जटिल होंगे उनसे संभलकर निकली कहानी ही सर्वाधिक सफल मानी जाती है।
जिंदगी का दर्शन सिनेमा के दर्शन से काफी अलग है। यहां हैप्पी एंडिंग के प्रश्न ही नहीं खड़े होते क्योंकि जिंदगी अंतरहित होती है...थमना जिंदगी नहीं, चलना जिंदगी है... और युं भी एंडिंग तो हमेशा दुखदायी ही होती है...मजा तो पड़ावों को पार करने में आता है। लक्ष्य कभी अंतिम नहीं हो सकता और होना चाहिए भी नहीं...बस हम धीरे-धीरे पडा़वों को पार करके लक्ष्य की ओर बढ़ते जाते हैं और जैसे-जैसे पड़ाव पार होते जाते हैं लक्ष्य भी बढ़े बनते चले जाते हैं। लक्ष्य की राह में सफलता जितना बड़ा सच है असफलता उससे भी बड़ा सच है। माना कि सफलता का कोई अंत नहीं पर असफलता भी तो अंतिम नहीं होती...लेकिन इन सबसे परे सिनेमा ने जो दर्शन तैयार किया है वो जिंदगी का दर्पण बनने में नाकामयाब है। समानांतर सिनेमा तो एकबारगी असफलता, लाचारी और दर्द को स्वीकार कर लेता है पर व्यवसायिक सिनेमा को ये सब पचा पाना मुश्किल है। गोया ये माना कि राज का संघर्ष सिमरन को पाने तक था पर सिमरन को पाने के बाद ऐसा तो नहीं की संघर्ष ख़त्म हो जायें...क्या सिमरन को पाने के बाद जब राज हनीमून पर युरोप जाएगा..तब उस वक्त की रुमानियत भी वैसी ही होगी, जैसी कि इन दोनों के मिलन से पहले वाले टूर की थी।
सिनेमा में एक आम इंसान वही चीजें खोजता है जो उसके सपनों में होती है..पर उन्हें वो अपने यथार्थ में नहीं जी पाता। एक सफल प्रेम को यथार्थ में ढूंढ पाना बहुत मुश्किल है यहां इश्क में आबादियां कम बरबादियां ज्यादा हुआ करती हैं। प्रेम में दर्द का ग्राफ हमेशा सुकून से ऊपर रहता है पर न तो इश्क पे विराम लगता है नाही दर्द पे। तड़प से पैदा हुए ये जज़्बात तड़प को ही तलाश आसरा पाते हैं..और गर इश्क के ये जज्बात न मिले तब भी अधूरेपन की तड़प बनिस्बत बनी रहती है। सिनेमा ने इश्क की इस तड़प को भी महिमामंडित किया है...'वीरज़ारा' का वीर बाईस सालों से नायिका की पायल हाथ में थामें खामोश दर्द सहता है उसकी चुप्पी नायिका की इज्जत को सलामत बनाए हुए है तो ज़ारा ने अपनी जिंदगी वीर के सपने के नाम कर दी है। इनकी इस दूरी को वकील का किरदार अदा कर रही रानी मुखर्जी कुछ युं बयां करती है कि ये इंसान के रूप में फरिश्ते हैं या फरिश्ते के रूप में इंसान...पर अंत में यहां भी हैप्पी एंडिंग है।
'कयामत से कयामत तक' के नायक-नायिका मरना पसंद करते हैं.. फ़िल्म में परिस्थितियां ऐसी हैं कि दोनों का मरना ही दर्शक को रास आता है कुछ और हुआ तो वो एंडिंग अनहैप्पी हो जाएगी। तो दूसरी ओर करण जौहर अपनी 'कुछ-कुछ होता है' प्रेम की हैप्पी एंडिंग के लिए टीना के मर जाने के हालात रचकर अंजली को राहुल से मिला देते हैं। 'कभी-कभी' के अमिताभ और राखी अपने मां-बाप की इच्छा के लिए अपने प्रेम की बलि चढाते हैं पर आखिर में अपने बच्चों (ऋषि कपूर और नीतु) को मिलाकर हैप्पी एंडिंग का अहसास कराते हैं। तो सूरज बड़जात्या की दैवीय आदर्श से सजी फ़िल्मों में 'प्रेम' को आखिर अपना प्रेम मिल ही जाता है फिर वो चाहे अपने प्यार के लिए ऐशोआराम का जीवन छोड़के कोयले की खदानों मे काम करे या फिर आग से झुलसी नायिका से 'विवाह' कर अपने आदर्श को प्रस्तुत करे। 'बॉडीगार्ड' की नायिका खुद को इंतजार की आंच पर तपाती है और आखिर में लंबे इंतजार के बाद नायक आता है और अपनी छाया को ले जाता है।
सिनेमा में प्रेम का रसायन ऐसा ही है यहां या तो नायक-नायिका परिस्थितियों से जूझते रहेंगे या फिर नायक, नायिका के लिए.. या नायिका, नायक के लिए बेकरार रहेगा। मामले के सुलझने के लिए हमें अंतिम फ्रेम तक इंतजार करना पड़ता है। 'नमस्ते लंदन' की नायिका को अपने हमवतन आशिक के लिए प्यार का अहसास तब होता है जब वो अपने विदेशी मंगेतर की उंगली में 'मैरिज रिंग' डालने से बस एक कदम दूर है तो ऐसा ही कुछ संजय लीला भंसाली की 'हम दिल दे चुके सनम' में है जब नायिका को अपने पति की निगाहों का प्यार तब दिखता है जब वो अपने पूर्वप्रेमी की बांहों में समाने से बस कुछ दूरी पर ही होती है। 'मन' के आमिर ख़ान अपनी अपंग हो चुकी प्रेमिका को गोद में लेकर शादी करते हैं तो 'दाग' में राजेश खन्ना अपनी प्रेमिका के लिए सालों इंतजार करते हैं और इस बीच हालातों के जरिए ब्याही अपनी पत्नी (राखी) को स्पर्श करना उनके उसूलों के खिलाफ है। अंत में शर्मिला और राजेश का मिलन दर्शक को फीलगुड देता है...कुल मिलाकर हैप्पी एंडिंग।
लेकिन क्या हकीकत में परिस्थितियां इतनी आदर्श सभी के लिए होती है...क्या इतनी आसानी से यथार्थ के धरातल पर धर्म, जाति, क्षेत्र और आर्थिक असमानताओं के भेदों को तोड़ा जा सकता है और यदि समस्त विषमताओं को तोड़कर जो रिश्ते बनते हैं क्या वे उतनी ही खुशहाली से आगे जी पाते हैं जिस खुशहाली से उन्हें मिलते हुए दिखाया जाता है? क्या समाज इन विषमताओं के बाद उन रिश्तों को मुख्यधारा में जोड़कर स्वीकार कर पाता है? इन सारे सवालों के जबाब हमें सिनेमा में नहीं मिलते और जो जबाव मिलते हैं वे यथार्थ की जमीन से काफी अलग होते हैं। क्या समाज 'अमर प्रेम' की पुष्पा और आनंदबाबू की तरह एक विवाहिता स्त्री के प्रेम को किसी अन्य मर्द के साथ स्वीकार करेगा जबकि पुष्पा अपने पति के द्वारा निष्कासित जीवन बिताने को मजबूर है...या फिर 'प्रेमरोग' के ऋषिकपूर के एक विधवा स्त्री से विवाह को लेकर समाज का उदारवादी नजरिया रह पायेगा? जबाव मिलना मुश्किल है...अगर नायक को परंपराओं से परे जाकर काम करना है तो उसे ज़हन में यही रखना पड़ेगा कि 'कुछ तो लोग कहेंगे लोगों का काम है कहना'...क्योंकि इश्क की चिंगारी कुछ ऐसी ही है उसे बुझाने के लिए दिल में आग ही होना चाहिए, पानी से काम नहीं चलता।
कुल मिलाकर सिने संसार की हकीकत ऐसी ही है जहां प्रेम कहानियों को यथार्थ के पैमाने पर तौलने के बजाय व्यवसायिकता के धरातल पर ही तौला जाता है..और सिनेजगत की व्यवसायिकता सफल प्रेम कहानियों पर निर्भर है। जिस तरह से सिनेमा की सफल प्रेम कहानियों का कारण व्यवसायिक बुद्धि है उसी तरह यथार्थ की असफल प्रेम कहानियों का कारण भी व्यवसायिक बुद्धि है...क्योंकि यथार्थ में रिश्ते लाभ के दृष्टिकोण से तय किये जाते हैं। इसी कारण संबंध कम और समझौते ज्यादा होते है। सार यही है कि सिनेमा के फसाने हों या समाज की हकीकत...यहां 'आदर्श' एक स्वपन है और 'व्यवसायिकता' यथार्थ।
जनाब! 'हैप्पी एंडिंग' जैसी कोई चीज ही नहीं होती... ये तो हमारी नज़र होती है जो एंडिंग को हैप्पी या अनहैप्पी करार देती है.........
सिनेमा से भावुक रिश्ता रखने वाले लोगों को अनहैप्पी एंडिंग नहीं भाती, मुझे अब भी दुख होता है कि कयामत से कयामत तक में अनहैप्पी एंडिंग क्यों हो गई? यद्यपि उस फिल्म की नियति उसमें ही थी, फिर भी फिल्म की सफलता के पीछे जूही का मासूम सौंदर्य और आमिर की कशिश थी।
ReplyDeleteयह बिल्कुल सच है कि फिल्मों की कहानी तय करने में व्यावसायिकता की अहम भूमिका होती है लेकिन अक्सर इसे एंगल को लेकर चलने वालों की फिल्म फ्लॉप हो जाती है जो कहानी की नियति के अनुसार दिशा तय करते हैं वे फिल्में ही दर्शकों तक संप्रेषणीय होती हैं।
सार्थक एवं विचारणीय पोस्ट के लिए आपका आभार
This comment has been removed by a blog administrator.
Deleteसिनेमा देखने के बाद कोई भारी मन से नहीं जाना चाहता है..मनोरंजन दुख कैसे दे भला।
ReplyDeleteसब कुछ व्यावसायिक ही होता है ... इतने पैसे लगाने वाला सोच समझ कर ही खेल खेलता है ... फिर उसकी किस्मत होती है ...
ReplyDeleteवैसे दुखदाई एंडिंग से मन भारी तो हो जाता है ...
यहां 'आदर्श' एक स्वपन है और 'व्यवसायिकता' यथार्थ,,,,,,
ReplyDeleteRECENT POST बदनसीबी,
बहुत सुन्दर व्याख्या !
ReplyDeleteआभार !
कुछ कहानियां कुछ ऐसे ही रची जाती हैं..... सुखद अंत तो सबको भाता है....
ReplyDeleteअंकुर जी ...फिल्मो में हर एक के लिए कुछ न कुछ है ...जिसे जो चाहिए वो मिलता है ....यह आप पर निर्भर करता है की आप किस मूड में आप अपने लिए क्या लेने जा रहें हैं ....
ReplyDeleteआपके यहाँ आकर अच्छा लगा ....बचपन से नाता रहा है फिल्मो से पहले देखते थे ...आजकल पढ़ कर खुश हो लेते हैं !
खुश और स्वस्थ रहें !
Nice post about hindi love-stories :) Actually we all love happy endings,,,,But still I think the evergreen DDLJ was too much DRAMATIC ,, but yeah love KUCH KUCH HOTA HAI , That has some elements of real life too :) And If my bubbly KAJOL ends with Salmaan in that movie , Then I think no-one would love that sad ending !!!!!
ReplyDeleteजनाब! 'हैप्पी एंडिंग' जैसी कोई चीज ही नहीं होती... ये तो हमारी नज़र होती है जो एंडिंग को हैप्पी या अनहैप्पी करार देती है.........
ReplyDeleteThis line is very much true :)