अगर आप विशाल भारद्वाज की फ़िल्म देखने जा रहे हैं तो एक बात के लिए आपको तैयार रहना चाहिए कि आप कुछ ऐसी विषयवस्तु से रुबरु होने वाले हैं जो आपके ख्यालों से परे हैं...उनकी फ़िल्मों का नाम सुनकर तो कभी फ़िल्म की अवधारणा के विषय में कयास लगाए ही नहीं जा सकते...पर फ़िल्म देखते हुए भी ये समझ पाना मुश्किल होता है कि आखिर विशाल क्या, क्युं और किस नज़रिए से ये सब हमें दिखाने जा रहे हैं। फ़िल्म का अंत भी अक्सर कल्पनाओं से परे होता है।
कुछ फ़िल्मकारों को बनी-बनाई धाराओं में से मनोरंजन के पानी को बहाने में मजा नहीं आता वे पानी को पठारों पर से चढ़ाकर गंतव्य पर ले जाना पसंद करते हैं...विशाल ऐसे ही फ़िल्मकारों की जमात का प्रतिनिधित्व करते हैं और संभवतः अपने समय के इकलौते फ़िल्मकार है। विशाल के सिनेमाई मनोविज्ञान को समझ पाना बहुत टेढ़ा काम है। एक तरफ ये 'मकड़ी' और 'ब्लु अम्ब्रेला' जैसी मासूम सी दिखने वाली फ़िल्में बनाते हैं तो दूसरी तरफ 'मकबूल', 'ओमकारा' और 'सात खून माफ' कि अति बौद्धिकता के बहाने क्लिष्टता की पराकाष्ठा को भी छूते है। लेकिन विशाल की फ़िल्में तथाकथित बौद्धिकता और मासूमियत के बीच कहीं उलझी हुई सी नज़र आती है। गोया 'मकड़ी' के कुछ दृश्य या 'ब्लु अम्ब्रेला' के संवाद आपको अपने दिमाग पर जोर डालने पर मजबूर करेंगे...और 'मकबूल', 'ओमकारा' के कुछ दृश्य बड़े बचकाने नज़र आएंगे। एक दर्शक या समीक्षक के नाते फ़िल्म देखने पर आप विशाल की फ़िल्मों से जो निश्कर्ष निकालते हैं वो निश्कर्ष आपके अपने दृष्टिकोण या समझ पर आधारित होते हैं नाकि फ़िल्म में प्रस्तुत दृश्यों पर...क्योंकि विशाल उस दृश्य विशेष से क्या बताना चाहते हैं ये सिर्फ विशाल ही जानते हैं।
हालिया प्रदर्शित 'मटरु की बिजली का मंडोला' भी विशाल की इस प्रवृत्ति से अछूती नहीं है। फ़िल्म का नाम सुनते ही एक पारंपरिक हास्य फिल्म का अनुमान दर्शक लगाता है...और अपने यथार्थ से थका-हारा एक आम दर्शक वर्ग सिनेमाई मसालों की कल्पना कर ही सिनेमाहॉल में जाता है...पर उस दर्शकवर्ग को विशाल अपनी बौद्धिकता से छल लेते हैं। वो दर्शक अपनी अजीब सी शक्ल लिए थियेटर से बाहर आके सोचता रह जाता है कि आखिर फ़िल्म में था क्या? यकीनन माओ के कम्युनिस्म, औद्योगिकीकरण या स्पेशल इकोनॉमी जोन के लिए होने वाली राजनीति जैसे विषयों पर जब आप सिनेमा गढ़ते हैं तो ऐसा सिनेमा पारंपरिक मसाला फ़िल्मों की नस्ल से बाहर चला जाता है। यद्यपि भारद्वाज अपनी फ़िल्मों में मसालों का भी भरपूर उपयोग करते हैं जिसमें उनकी फ़िल्मों का बेमिसाल संगीत शामिल है...पर वे मसाले भी खालिस विशालनुमा होते हैं और उन मसालों में समाए कुछ दृश्य अपने अर्थ खोजते नज़र आते हैं। गोयाकि एक ऐसा मुहावरा हमारे सामने होता है जिसका अर्थ हर कोई अपने-अपने हिसाब से लगाता है पर उस मुहावरे के मायने का असली राजदार मुहावरा पुछने वाला ही होता है। वहीं कुछ दृश्य इतने सशक्त और अद्भुत होते हैं कि उन्हें देख ही हमें अपना समय और पैसो की कीमत मिल जाती है। अब चाहे वो 'सात खून माफ' की सुसैना का अपने तीसरे पति वसीउल्लाह खां (इरफान खान) के साथ संभोग के दरमियां की प्रताड़नाएं हों या 'मकबूल' में तब्बू और इरफान खां के बीच की संवादअदायगी जिसमें जहांगीर खां(पंकज कपूर) को मारकर डॉनमाफिया बनने के षड़यंत्र की रूपरेखा निर्मित होती है। 'मटरू की बिजली का मंडोला' में भी विशाल अपनी कलात्मक अभिव्यक्ति को पेश करने से नहीं चूकते...जब 'मंडोला' के सपनों में दैत्यनुमा मशीनों, चिमनीयों से निकलने वाले धूंए के बादलों और आलीशान औद्योगिक इमारतों के दृश्य अचानक लहलहाती फसलों के खेतों में से उभरकर आते हैं तो विशाल वहां अपनी सृजनात्मकता के शिखर पर होते हैं।
ये फ़िल्म जहां गहन सामाजिक-राष्ट्रीय मुद्दों की पड़ताल करती है तो वहीं दूसरी तरफ प्रेम की मासूमियत भी चासनी की तरह फैली नज़र आती है। मटरू और बिजली का प्रेम फ़िल्म की मुख्य कथा का ताना-बाना बुनता है..बिजली के किरदार में अनुष्का शर्मा भावना की तीव्रता के साथ अपनी चाहत को जताती हैं पर उन दृश्यों को गढ़ने में विशाल ने किसी भी तरह का अतिरेक नहीं होने दिया..जिससे ये प्रेमकथा, मूलकथा पर अतिक्रमण कर सके...नाजुक अहसासों के दृश्यों को नाजुक ही रहने दिया है पर कमजोर नहीं पड़ने दिया। संवेदना की ये बानगी विशाल की 'ओमकारा' और 'कमीने' में भी देखी जा सकती है। युंकि ये तो ज़ाहिर है कि रोमांसकिंग शेक्सपियर के प्रति विशाल का मोह तीव्रतम रहा है जहां अपनी पिछली दो फ़िल्में उन्होंने शेक्सपियर के उपन्यास पर ही गढ़ी है तो वहीं इस फ़िल्म में भी वे कब माओ के साम्यवाद से शेक्सपियर के प्रेमसंवादों पर आ जाते हैं पता ही नहीं लगता।
कुल मिलाकर जैसाकि उनकी हर एक फ़िल्म के साथ हैं कि सिर्फ एकबार विशाल की फ़िल्मों को देखकर उसे सांगोपांग समझ पाना मुमकिन नहीं है वैसा ही 'मटरु की बिजली का मंडोला' के साथ भी है। लेकिन इस घोर बौद्धिकता से परे भी अगर फ़िल्म को देखा जाए तो ये कई सारे ऐसे मुद्दों पर भी प्रकाश डालती है जिन्हें हम सिर्फ शब्दों में पढ़ते-सुनते रहते हैं। चाहे वो किसानों द्वारा कर्ज के बोझ से की जाने वाली आत्महत्याओं की बात हो, चाहे जमीनों पर दिया जाने वाला सरकारी मुआवजा हो, राजनैतिक महत्वकांक्षाओं के कारण होने वाले घोटाले हों, या फिर आर्थिक-राजनैतिक फायदों के लिए बनने वाले रिश्तों के निराले खेल हो...तमाम छोटी-छोटी सी चीजों को हास्य के मनोरंजनात्मक कलेवर और बौद्धिक विमर्श की पैकिंग के साथ विशाल ने दिखाया है...हालांकि मुझे बहुत सी चीजें अब भी समझ में नहीं आई हैं पर मुझे ये विशाल की अब तक की सर्वोत्तम फ़िल्मों में से एक लगी...आपने गर न देखी हो तो देख आएं या फिर झेल आएं। इसे देखने या झेलने की दोनो ही स्थितियों में से चाहे कुछ भी आपके साथ बीते..पर एक-आध दृश्य तो आपकी रुह पर दस्तक ज़रूर करेगा.............
गुलजार ने उन्हें यूँ ही नहीं अपनाया, विशाल अपनी तमाम कमजोरियों के बावजूद हिंदी सिनेमा के हमारे दौर के सबसे विशिष्ट निर्देशकों में से एक हैं।
ReplyDeleteसुन्दर प्रयास.सार्थक भावनात्मक अभिव्यक्ति करें अभिनन्दन आगे बढ़कर जब वह समक्ष उपस्थित हो .
ReplyDeleteआप भी जाने कई ब्लोगर्स भी फंस सकते हैं मानहानि में .......
आपके कहने से देख आयेंगे...
ReplyDeleteयूँ भी विशाल मेरे पसंदीदा निर्देशक हैं....
अच्छी और सार्थक पोस्ट...
अनु
संभवतः इन्ही दोनों के बीच छिपी है जिन्दगी..
ReplyDeleteफिल्म देखने को प्रेरित करती सुंदर समीक्षा,,,,
ReplyDeleterecent post: गुलामी का असर,,,
इनकी नयी फिल्म नहीं देखी आप ने अच्छी समीक्षा लिखी है और पोस्ट को शीर्षक एक दम सटीक दिया है.विशाल भरद्वाज एक कुशल फिल्मकार हैं .
ReplyDeleteबहुत सुन्दर विश्लेषण...
ReplyDeleteउम्दा प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत बधाई...६४वें गणतंत्र दिवस पर शुभकामनाएं...
ReplyDeletevery impressive post .... very well written & fabulous as always
ReplyDeleteplz . visit -http://swapniljewels.blogspot.in/2013/01/a-kettle-of-glitters.html