Tuesday, October 18, 2011

'बोल' के लव आजाद है तेरे.....



पाकिस्तानी फिल्म 'बोल' देखने का अवसर मिला। हिन्दुस्तानी सिनेमा के इतर एक बेहद उम्दा और अर्थपूर्ण फिल्म जो व्यवस्था, रूढ़ीवाद एवं समाज की विसंगतियों के विरुद्ध एक उन्माद पैदा करती है। छद्म- धार्मिकता और पाखंड की तस्वीर दिखाती है।

निर्देशक शोएव मंसूर की एक और सार्थक फिल्म जो इंसानी हैवानियत और उसके असल रूप को बेनकाब करती है। परिवार नियोजन, महिला-सशक्तिकरण, धार्मिक अंधविश्वास, छद्मपुरुष मानसिकता, रूढ़िवादिता जैसे मुद्दों के खिलाफ जिस संजीदगी से स्वर मुखरित किया है वो सोचने पर विवश करती है। लगता है कैसे ये फिल्म पाकिस्तानी सेंसर बोर्ड से बचकर हम सब तक पहुच गई।

'बोल' ह़र उस औरत का स्वर हैं जो खुले आकाश में उड़ना चाहती है, जो पाक पवन में साँस लेना चाहती है या कहे जो असल में जीना चाहती है। जिसकी दुनिया चौके की चारदिवारी तक सीमित नहीं, या जिसका जिस्म बिस्तरों पे ही बयां नहीं होता वो इन सबसे परे अपनी एक अलग शक्सियत भी रखती है। उसके जज्बात-तमन्नायें कुछ और भी चाहते हैं। लेकिन पुरुष उन जज्बातों को नहीं सिर्फ जिस्म को देखते हैं। फिल्म में एक दृश्य है जब हकीम साहब अपनी बेगम से कहते हैं "खुदा ने आपको दो ही तो हुनर बख्शे हैं एक स्वादिष्ट खाना पकाना और खुबसूरत औलादें पैदा करना " औरत को देखने का प्राय: यही नजरिया समाज में हैं यही कारण है कि आज तक बड़े से बड़े चित्रकार औरत को जिस्म से परे नहीं देख पाए।

ये फिल्म पाकिस्तानी या मुस्लिम समाज की ही कहानी बयां नहीं करती बल्कि हर उस समाज, हर इन्सान, हर वर्ग को आइना दिखाती है जहाँ सारे कायदे, सारे कानून, रस्मों-रिवाज़, मर्यादाएं सिर्फ और सिर्फ महिलाओं पर ही लामबंद कर दिए जाते हैं। जहाँ पुरुष हर तरह से अपने चरित्र की धज्जियाँ उड़ाते हुए भी शरीफ बना रहता है। जहाँ बड़े-बड़े पढ़े-लिखे लोग रुढियों के गुलाम होते हैं भले ही वह दूसरों को कितने भी आधुनिक ख़यालात धारण करने के उपदेश दें। लेकिन जब बात खुद पर आती है तो परम्पराओं की आड़ में रुढियों को पनाह दी जाती है। ये देख लगता है साक्षरता सिर्फ कागजों पर बढ़ी है विचारों में नहीं।

लेकिन इन्सान भूल जाता है की औरत जब तक खामोश है तब तक ही पुरुष वर्चस्व कायम है यदि वो 'बोल' उठे तो जमीन कांप उठती हैं और आसमान झुक जाता है। मर्द की जुवान बंद हो जाती है और बाजुओं की जोर-आज़माइश शुरू। एक दृश्य में बेटी अपने रुढ़िवादी पिता से कहती है "अब्बा! आप मर्द हैं ना जहाँ वेजुवां हुए वहां हाथ चलाने लगे।" पुरुष की दरिंदगी और बेरहमी को हर फ्रेम में बखूबी दर्शाया है शोएब मंसूर ने।

यूँ तो इन्सान की निगाहें और हवस हर तरफ महिला को तलाशती है पर यदि औलाद की बात हो तो बेटा ही चाहिए, बेटी को कलंक समझा जाता है। बेटे की चाह में औलादों की कतार लगा दी जाती है और यदि बेटा न हो तो इसका दोष भी औरत के सिर मढ़ा जाता है। सदियों से धार्मिक मान्यताओं का सहारा लेकर या औलाद को खुदा का करम जानकर इसी तरह बच्चों की संख्या बढ़ाई जा रही है फिर भले उनकी परवरिश में बेरुखी बरती जाये। फिल्म अपने अंत में यही प्रश्न छोडती है कि "क्या मारना ही गुनाह है पैदा करना नहीं"। क्या पहले से ही इस धरती पे भूखे बेवश लोग कम थे जो और लोगों को तड़पने के लिए धरती पे लाया जाये। जब ढंग से पाल नहीं सकते तो पैदा करने का हक किसने दिया।

फिल्म न जाने कितने ऐसे संगीन मुद्दों को उठाती है जो समाज की नस-नस में बसकर उसे बीमार बना रहे हैं। चाहे किन्नरों को देखने का नजरिया हो, चाहे महिलाओं कि शिक्षा, जातिवादी-सम्प्रदायवादी मानसिकता हो, या ईश्वरकर्तृत्व की घोर अतार्किक सोच हो हर तरफ ध्यान खींचने की कोशिश की गयी है। जहाँ भारत-पाकिस्तान के मैच में जीत-हार के लिए खुदा या भगवान को जिम्मेदार माना जाता हो, जहाँ संकीर्ण मानसिकता दो जातियों की बात तो दूर एक कुरान को मानने वाले सिया-सुन्नियों में भेद करती हो, जहाँ अपनी ही औलाद का लोकलाज वश क़त्ल किये जाने जैसा बेरहम कदम उठाया जाता हो वहां कैसे आधुनिक विचार और सुसंगतियों का प्रसार हो सकता है।

बहरहाल, एक कमाल का सिनेमा है 'बोल'। जो न सिर्फ कथा के स्तर पर बल्कि तकनीकी स्तर पर भी अद्भुत है। ख़ूबसूरत छायांकन, हृदयस्पर्शी संवाद, सुन्दर संगीत व कमाल की अदाकारी इसे एक गुणवत्तापरक सिनेमा बनाती है... और इन सबमे सबसे बड़ा कमाल किया निर्देशक शोएब मंसूर ने जिन्होंने 'खुदा के लिए' के बाद एक बार फिर अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया और सिद्ध किया कि उद्देश्य महान हों तो सीमित संसाधनों में भी महान फिल्म बनायीं जा सकती है।

यदि स्वच्छ कालीन के नीचे जमी समाज की गंदगी को, शिक्षित-सभ्य लोगों की बेहयाई को, धार्मिक विश्वासों के पीछे छुपे पाखंड-अंधविश्वासों को देखना है तो 'बोल' देखिये....शायद ये आपको अपनी गिरेबान में झाँकने का माध्यम भी साबित हो।