Friday, November 18, 2011
प्यार का सुर और दर्द का राग : रॉकस्टार
जिन्दगी में कुछ बड़ा करना है तो दर्द पैदा करो..सर्वोत्तम कला या भीड़जुटाऊ सफलता त्रासद जिन्दगी से जन्म लेती है...लेकिन एक वक़्त आता है जब हमारे पास कला, शोहरत, सफलता, पैसा सब होता है पर ये सब जिस दर्द से हासिल हुआ है वही दर्द असहनीय बन जाता है। गोयाकि जनक और जन्य दोनों बर्दाश्त के बहार होते हैं...असंतोष जिन्दगी का सच होता है।
रणवीर कपूर अभिनीत और इम्तियाज़ अली द्वारा निर्देशित फिल्म 'रॉकस्टार' कुछ इसी कथ्य को लेकर आगे बढती है। नायक की हसरत होती है एक बड़ा सिंगिंग रॉकस्टार बनने की...और उसके पास अपनी इस हसरत को हासिल करने लायक प्रतिभा भी है लेकिन फिर भी तमाम सामाजिक, आर्थिक बंदिशें उसे अपने मुकाम पे नहीं पहुँचने दे रही। इसी वक़्त कोई उसे कहता है कि तू तब तक अपना लक्ष्य हासिल नहीं कर सकता जब तक तुझमें एक जूनून न हो, तड़प न हो, दर्द न हो, टुटा हुआ दिल न हो...अपने लक्ष्य को हासिल करने की दीवानगी इस कदर नायक के दिल में हैं...कि वो बुद्धिपूर्वक उस दर्द को पाना चाहता है...जानबूझ के तड़पने के लिए उसमे बेकरारी है...पर दर्द हालत के थपेड़ों से सहसा मिलता है उसके लिए कोई पूर्वनियोजन नहीं होता।
लेकिन इसी कश्मकश में नायक ये समझ बैठता है कि वो जो चाह रहा है वो मिल पाना मुश्किल है...और इसी बीच वो अपनी सब हसरत भुलाकर दोस्त बन बैठता है एक लड़की हीर कौल का...इस दोस्ती की शुरुआत में उसे नहीं पता कि यही दोस्ती उसकी जिन्दगी के सबसे त्रासद लम्हों को जन्म देगी। वो तो बस अभी सिर्फ उन पलों में डूबा है जहाँ सिर्फ खुशियाँ है, मस्ती है, बेफिक्री है..उसे नहीं मालूम कि ये बेफिक्री ही आगे चलके उसकी जिन्दगी का दर्द बनेगी और यही उसे एक अनचाही शोहरत दिलाएगी, उसे रॉकस्टार बनाएगी। सच, आनंद जितना चरम पे पहुंचकर नीचे उतरता है वो उतना ही गहरा दर्द बन जाता है।
नायक और नायिका सिर्फ अपनी दोस्ती के मजे ले रहे हैं..और लिस्ट बना-बनाकर छोटी-छोटी हसरतें पूरी करने में खुशियाँ ढूंढ़ रहे हैं। कभी वे ब्लू फिल्म देखते हैं तो कभी देशी दारू पीते हैं..ये सब करते हुए भी वो बस दोस्त होते हैं...और नहीं जानते कि उनका ये साथ अब उनकी आदत बन चुका है, प्यार बन चुका है। जो उनके अलग-अलग हो जाने के बाद भी उन्हें तड़पाने वाला है।
हालात दोनों को अलग कर देते हैं..लेकिन अलग होके भी अब वो अलग नहीं रह गए हैं...यहाँ नायक अब जनार्दन से जोर्डन बन चूका है और नायिका एक गृहणी...दोनों उस जिन्दगी को जी रहे हैं जो वो चाहते थे लेकिन फिर भी दोनों के दिल में एक कसक है..सब कुछ मन का होके भी न जाने क्यूँ सब कुछ मन का नहीं है। जिंदगी कितनी अजीब होती है हम जो चाहते है उसे हासिल कर लेने के बाद भी यही लगता है कि कुछ कमी है...और बेचैनियाँ बराबर हमें तड़पाती रहती हैं। उस तड़प को, उस कसक को बयां कर पाना मुमकिन नहीं होता और जो हम बयां करते हैं वो हमारा असल अहसास नहीं होता...क्योंकि "जो भी मैं कहना चाहूं बरबाद करें अल्फाज़ मेरे"
नायक का सुर प्यार की गहराई से जन्मा है और उस सुर में मिली हुई दर्द की राग उसे और कशिश प्रदान कर रही है...प्यार करने को वो सड्डा हक कहता है..लेकिन उसे अपने उस हक को हासिल करने में तमाम तरह के सामाजिक बंधन परेशान करते हैं...उन बंधनों से वो खुद को कटता हुआ महसूस करता है...वो कहता भी है कि आखिर क्यूँ उसे 'रिवाजों से-समाजों से काटा जाता है, बांटा जाता है..क्यूँ उसे सच का पाठ पढाया जाता है और जब वो अपना सच बयां करता है तो नए-नए नियम, कानून बताये जाने लगते हैं।' इस सामाजिक ढांचें में सफलता पचा पाना भी आसन नहीं है...आप सफल तो हो जाते हैं पर आप एक इंसानी जज्बातों का उस ढंग से मजा नहीं ले पाते जो एक आम आदमी को नसीब होता है। खुद को अपनी जड़ों से दूर महसूस करने लगते है..अपना आशियाना छूटा नजर आता है और हम वापस अपने घर आना चाहते हैं...और इस दर्द में सुर निकलता है "क्यूँ देश-विदेश में घूमे, नादान परिंदे घर आजा"
नायक अपने गीत-संगीत से ही प्यार को महसूस करता है...और उसके दिल की गहराई से निकले यही गीत आवाम की पसंद बन जाते हैं...नायक गाता है कि 'जितना महसूस करूँ तुमको उतना मैं पा भी लूँ' अपने गीत के साथ वो अपनी प्रेमिका का आलिंगन कर रहा है। संवेदना के रस में डूबकर कला और भी निखर जाती है...और साथ ही वो जनप्रिय बन जाती है।
बहरहाल, एक बहुत ही सुन्दर सिनेमा का निर्माण इम्तियाज़ ने किया है...जो उनके कद को 'जब वी मेट' और 'लव आजकल' के स्तर का बनाये रखेगी। इरशाद कामिल के लिखे गीत और रहमान के संगीत की शानदार जुगलबंदी देखने को मिली है...और फिल्म का गीत-संगीत ही फिल्म की आत्मा है...नहीं तो कहीं-कहीं इम्तियाज़ अपनी पकड़ फिल्म पे से छोड़ते नज़र आते हैं पर फिल्म का संगीत उन्हें संभाल लेता है। रणवीर की अदाकारी कमाल की है सारी फिल्म का भार उन्ही के कन्धों पर है...उन्होंने अपने अभिनय से साबित किया कि उनमे भावी सुपरस्टार के लक्षण बखूबी विद्यमान हैं...एक बेचैन गायक की तड़प को बेहतरीन ढंग से प्रस्तुत किया है रणवीर ने। नर्गिस फाखरी खूबसूरत लगी है उनमे एक ताजगी महसूस होती है...हम उम्मीद कर सकते हैं कि कटरीना के बाद एक और विदेशी बाला अपना बालीवुड में सिक्का जमा सकती है।
खैर, जुनूनी मोहब्बत, मोहब्बत पे समाजी बंदिशें, सफलता की हकीकत से रूबरू होना चाहते हैं और सुन्दर गीत-संगीत और फ़िल्मी रोमांटिज्म पसंद करते हैं... तो 'रॉकस्टार' कुछ हद तक आपकी इसमें मदद कर सकती है...
Tuesday, November 8, 2011
समृद्ध इण्डिया की उत्सवधर्मिता और लाचार भारत की बदनसीबी
दीपावली के साथ भारत में उत्सवों का एक दौर हर साल विदा ले लेता है और दूसरा दौर ग्यारह दिन बाद ही दस्तक दे देता है...जी हाँ अवरुद्ध पड़े शादी व्याह की बहार आ जाती है। भारत वो देश है जिसकी रगों में उत्सव खून बनकर बहते हैं। देश की सामाजिक संरचना या कहें भारतीय फितरत ही ऐसी है कि उसे हर वक़्त झूमने के अवसर की तलाश होती है गोयाकि खुद के घर में शादी न हो तो दूसरे की बारात में ठुमकने से भी परहेज नहीं है। इस असल भारतीय स्वभाव ने ही हमारी संस्कृति को लचीला स्वरूप प्रदान किया है। यही कारण है कि ये संस्कृति जितने जोश-खरोश के साथ दीवाली, ईद और रक्षाबंधन मानती है उतने ही उत्साह से वेलेंटाइन डे, मदर्स-फादर्स डे जैसे पश्चिमी दिनों को मनाती है।
उत्सवप्रियता का ये स्वभाव इस कदर मानवीय है कि जन्म की खुशियाँ तो इसमें शुमार हैं ही वरन मौत की रसोई भी शामिल है। इस मानवीय पृकृति ने ही विलासिता, बाजारवाद और झूठी शान-शौकत की प्रवृत्ति में इजाफा किया है।
आज हम त्यौहारों-उत्सवों के रंग में खुद नहीं रंगते बल्कि इन उत्सवों को अपने रंग में रंग देते हैं। अपनी दूषित प्रकृति से उत्सवों को दूषित कर दिया जाता है। मैं उत्सवप्रियता या प्रसन्नचित्तता का विरोधी नहीं हूँ बल्कि ये कहना चाहता हूँ कि हमने उत्सवों में अपनी प्रसन्नता के मायने जो तय किये हैं वो ग़लत हैं। अपने उत्सव धर्म से जो हमने प्रक्रितिधर्म को ठेस पहुचाई है वो ग़लत है। अपने परिवेश को भूलकर जो उत्साह मनाया है वह ग़लत है।
बात जटिल लग रही होगी सरल करने का प्रयास करता हूँ। दरअसल अपने हिन्दुस्तानी परिवेश को गहनता से देखा जाये तो यह हमें कतई उस उत्सव धर्म में शरीक होने कि इज़ाज़त नहीं देता जो हम मना रहे हैं। बशर्त आप एक उत्सवधर्मी न होकर एक इन्सान के नाते बात पर गौर करने की कोशिश करें। जिस देश की सत्तर प्रतिशत आबादी दो वक़्त का पेट भर खाना नहीं खा पा रही उस देश में कैसे आप ख़ुशी के जाम छलका सकते हैं, लाखों-करोड़ो रुपये महज़ पटाखों पर खर्चे जा सकते हैं। जिस देश में लाखों-करोड़ो बच्चे कुपोषण, भुखमरी का शिकार है या जिनके सर माँ-बाप का साया नहीं हैं वहां कैसे लोगों के गले के नीचे महँगी मिठाइयाँ उतर सकती हैं। जहाँ किसान आत्महत्या कर रहा है उसके पास क़र्ज़ चुकाने का चंद पैसा नहीं है जहाँ महंगाई के बोझ तले इन्सान अपने बच्चों को रोटी नहीं खिला पा रहा वहां कैसे धनतेरस जैसे अवसरों पर सोने-चाँदी कि दीनारें महज शगुन के तौर पर खरीदी जा सकती हैं।
हालात, उत्सवों पर वास्तव में बहुत थोड़े ही बदलते हैं कि आम दिनों में समृद्ध इण्डिया एक पैग पीता है और उत्सवों में दो,तीन या चार जबकि लाचार भारत आम दिनों में बस रोता है तो उत्सवों में उसका चेहरा हल्की मुस्कराहट लिए आंसू बहता है। आंसू इस लाचार भारत का यथार्थ है और मुस्कान आदर्श।
वैज्ञानिक विकास और तकनीकी दक्षता ने भी खुशहाली सिर्फ उस समृद्ध इण्डिया के हिस्से में दी है...फेसबुकिया सेलिब्रेशन उसे ही नसीब है वही इन सोशल नेट्वर्किंग साइट्स पे वधाईयां लाइक और शेयर कर रहा है। लाचार भारत उस दिन भी रिक्शा चला रहा है, इमारतें बना रहा है, गड्ढे खोद रहा है या समृद्ध इण्डिया के घरों,कालोनियों,सड़कों की सफाई में सलंग्न है। हाँ ये बात है कि किसी तरह उसे इस समृद्ध इण्डिया के उत्सवों का शोर ये बता देता है कि आज कुछ खास दिन है और इस खास दिन का पता लगने पर वो चेहरे पे मुस्कान लाकर फिर काम में लग जाता है।
वैज्ञानिक विकास इस लाचार भारत के विनाश का गड्ढा खोद रहा है उत्सवधर्मिता इसकी लाचारी को और बढ़ा रही है। प्रकृति और संसाधनों को जितनी हानि ये समृद्ध इण्डिया पहुंचा रहा है..उतना लाचार भारत नहीं। उल्टा वह तो उस हानि से त्रस्त ही हो रहा है। समृद्ध इण्डिया की जरुरत दो की है तो वह दो सौ का उपभोग कर रहा है और लाचार भारत की जरुरत एक की है तो वो उस एक को पाने के लिए ही संघर्षरत है। एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व के एक तिहाई संसाधनों पे विश्व जनसंख्या का सिर्फ छटवा हिस्सा उपभोग कर रहा है तो सोचिये एक बड़े जनसमूह के पास कितने संसाधन हैं? महंगाई, ग्लोबल वार्मिंग, बेरोजगारी, अशिक्षा, गरीबी जैसी सारी समस्याओं ने इस लाचार भारत के घर की ओर रुख कर लिया है।
अखवारों में आने वाले विकास के आंकड़े एकतरफा हैं और विनाश के आंकड़े भी एकतरफा है। समृद्ध इण्डिया और लाचार भारत के बीच बस आर्थिक असंतुलन नहीं, उत्सव असंतुलन भी है। समृद्ध इण्डिया संयम और मर्यादा में उपभोग की नीति विसरा चूका है। उसकी उत्सवधर्मिता अब विलासिता बन चुकी है या कहें उसने खुश होने के जो मानक बनाये हैं वह उसके व्यसन बन चुके हैं। उसका उत्सवप्रियता पे खर्च बढ़ता जा रहा है और अय्याशियाँ ख़ुशी का रूप लेती जा रही हैं। उत्सवी खुशियाँ सिर्फ कालीन के ऊपर हैं कालीन के नीचे लाचार भारत की तड़प देखने की ज़हमत कोई नहीं कर रहा है।
आश्चर्य होता है एक सिर्फ इसलिए परेशान है कि उसे होटल में पिज्जा टाइम पे नहीं मिला या उसकी ब्रांडेड ज्वेलरी का आर्डर डिलीवर होने में देरी हो गयी..तो दूसरा भूखा रहकर भी अपनी कसक जाहिर नहीं कर पा रहा। एक इसलिए परेशान है कि उसके बच्चे को मन के इंग्लिश मीडियम स्कूल में एडमिशन नहीं मिला..तो दूसरा अपनी आँखों के सामने भूख से मरते बच्चे को देखकर भी आंसू नहीं बहा पा रहा। एक इसलिए गुस्सा है है कि उसकी बेटी की शादी के लिए मनपसंद मैरिज गार्डन नहीं मिला..तो दूसरा कदम-कदम पे दुत्कारे जाने के बाद भी अपना गुस्सा नहीं दिखा पा रहा। गोयाकि आंसू बहाने, गुस्सा दिखाने, दर्द में कराहने के लिए भी स्टेटस का होना जरुरी है।
बहरहाल, किसे पड़ी है दुनिया-ज़माने के सोचने की..अपनी उत्सवी फुलझड़ियाँ जलते रहना चाहिए, अपनी गिलास में जाम भरा होना चाहिए....हम तो लाचार भारत पे यह कहके पल्ला झाड़ सकते हैं कि ये उनके अपने कर्मों का फल है..हम अपने उत्सवों या कहें अय्याशियों को क्यों फीका करें। करवाचौथ और नवदुर्गा पे हम व्रत रखके उत्सव मनाते हैं..लाचार भारत भूखा रहकर हर दिन बेउत्सव व्रत करता है।
खैर, अपनी अय्याशियों की लगाम हमें टाईट करने की जरुरत नहीं है और वैसे भी हमें हमारे उत्सवी पटाखों के शोर में लाचारियों की चीखें सुनाई कहाँ देती हैं............................
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