हिन्दुस्तानी फ़िल्मों, साहित्य और कई बार घरों की चारदीवारी के अंदर भी अक्सर एक संवाद सुनने को मिलता है..."बातों से ज़िंदगी नहीं चलती"। ज़िंदगी अपने आप में ही एक बड़ा संगीन मुद्दा है और ये कैसे चलती है इस प्रश्न का जबाब खोजने में सैंकड़ो दर्शन, धर्म, ग्रंथ, पुराणों का जन्म हो गया...और इन तमाम चीजों से कई तरह के विवादों का ज़न्म हो गया, पर आज तक इस प्रश्न के एक सार्वभौमिक जबाब का जन्म नहीं हो पाया कि ज़िन्दगी कैसे चलती है?
बहरहाल, भले इस बात का पता न चला हो कि ज़िन्दगी कैसे चलती है पर इस सार्वभौमिक बात को सब ही कहते मिल जाते हैं कि "बातों से ज़िंदगी नहीं चलती"। गर बातें नहीं है तो स्वाभाविक तौर पर ख़ामोशी होगी तो सवाल खड़ा होता है कि क्या ख़ामोशी से ज़िन्दगी चलती है ? जबाब मिलना मुश्किल है। कुछ और जमाने के प्रसिद्ध संवाद है- 'ज़िंदगी तो भैया पैसों से चलती है' या फिर 'प्यार से ज़िंदगी चलती है' या 'रिश्तों का नाम ज़िंदगी है'...सब बड़ा गड्डमगड्ड है। ज़िंदगी...ज़िंदगी...जिंदगी...कमबख़्त एक ऐसा शब्द है ये, जिस शब्द को शुरुआत में या मुख्य केन्द्र में लेकर हजारों शायरियां, गज़लें, कविताएं और फ़िल्मी गीतों का निर्माण हुआ है...इस ब्लॉग जगत पे भी कम से कम सौ-दो सौ ब्लॉग होंगें जिन्होंने अपने ब्लॉग में ज़िंदगी शब्द का इस्तेमाल किया होगा...हर कोई ज़िंदगी की पड़ताल कर रहा है और सब अपनी-अपनी राग आलाप रहे हैं कि ज़िंदगी ऐसे चलती है और ऐसे नहीं चलती है। अपने लेख को आगे बढ़ाने से पहले मैं आपको बता दूं कि मैं अपने इस लेख में ज़िंदगी के संबंध में कोई नई रिसर्च प्रस्तुत करने नहीं जा रहा...दरअसल आज इस शब्द पे एक खुन्नस सी आ रही थी बस इसलिए अपने दिल की भड़ास ज़िंदगी पर...माफ कीजिए ज़िंदगी शब्द पर निकाल रहा हूं।
खैर फिलहाल हमारा मुद्दा है कि क्या बातों से ज़िंदगी नहीं चलती...प्रसिद्ध संचार विशेषज्ञ डेविड बर्लो का कहना है कि मानव अपने जाग्रत समय में से सत्तर फीसदी समय का प्रयोग शाब्दिक संचार के साथ करता है। इसमें वो बोलना-सुनना, पढ़ना-लिखना आदि काम करता है। सीधा सा मतलब है वो अपना समय किसी न किसी तरह बातों के साथ बिताता है और ये सत्तर फीसदी समय तब गिना गया है जबकि इसमें सिर्फ शाब्दिक संचार को शामिल किया गया है गर अशाब्दिक संचार को भी शामिल करें तो ये गणना सौ फीसदी हो जाती है..और दिल में घुमड़ने वाली वे लाखों बचैनियां, कसमसाहटें, परेशानियां, जज़्बात और असंख्यात विचार जो किसी न किसी तरह बातों से ही जन्में है और खुद को शब्द देने के लिए मारे-मारे फिर रहे हैं..उन्हें हम आखिर कैसे बातों से अलग कर सकते है। लेकिन इन बातों को थामें फिर भी जिंदगी चल रही है...और यही ज़िंदगी की सबसे अच्छी बात है कि वो चलती रहती है और शायद यही सबसे बुरी बात भी।
संसद में सैंकड़ो योजनाएं बन रही है, अन्ना हजारे, बाबा रामदेव से लेकर विपक्ष तक सरकार के खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं..रैलियां निकल रही हैं...बीस चैनलों पर दो सौ बाबा इंसान को मुक्ति का पाठ पढ़ा रहे हैं...लाखों स्कूल-कॉलेज पढ़ा-पढ़ाकर समाज में साक्षर बेरोजगारों की फौज खड़ी कर रहे हैं...कई बड़े बिजनस प्रोजेक्ट तैयार हो रहे हैं...एक्टर-क्रिकेटर-स्मगलर सबकी कांफ्रेंस हो रही है..ऑफिस में, घर में, सड़क पर सब जगह मीटिंग्स का दौर चालु है...ग्लोबल वार्मिंग, पर्यावरण संरक्षण, से लेकर ग्लोबलाइजेशन जैसी बड़ी-बड़ी समस्याओं से निपटने के सम्मेलन आयोजित हो रहे हैं..शादी-व्याह, जन्म-मरण और दसियों त्यौहारों का सेलीब्रेशन या कोई न कोई उत्सव हो रहा है..फ़िल्मों, अखबारों, विज्ञापनों, रास्तों पर चस्पा पोस्टरों, किताबों से लेकर शहर के नुक्कड़ो, गांव की चौपालों में कुछ न कुछ प्रसारित, प्रचारित किया जा रहा है....अरे भैया ये सब क्या है ? बातें...बातें...और सिर्फ बातें। और इन सबके साथ कालीन के नीचे छुपी-थकी-हारी, वेवश, फ्रस्टयाई, इगनोर की हुई, बेचारी ज़िंदगी चल रही है।
एक घरेलु हिंसा के खिलाफ विज्ञापन टीवी पर आया करता था जिसके अंत में संदेश दिया जाता था-"चुप्पी तोड़ो"। एक अन्य सेलफोन कंपनी का विज्ञापन था जिसका स्लोगन था- "बात करने से ही बात बनती है" क्यों..आखिर क्यों चुप्पी या ख़ामोशी तोड़ने की बात की जा रही है जबकि बातों से कहां जिंदगी चलती है..?? अक्सर हम दुनिया में ऐसे लोगों को भी देखते हैं जो चुप है या हालतों, समाजों या रिवाजों ने उन्हें ख़ामोश बना दिया है ऐसे वो तमाम लोग हासिए पर फेंक दिए जाते हैं...नाम-शोहरत, वाहवाहियां उसे ही नसीब हो रही हैं जो बोलना जानता है...वही अपने हक, ज़माने से ले पाता है जिसे कहना आता है...सर्वत्र बोलने वाले ही तो अपना काम निकाल पा रहे हैं या कहें कि तथाकथित 'ढंग की ज़िंदगी' जी पा रहे हैं। फिर क्यों आखिर ये जुमला बोला जाता है कि "बातों से ज़िंदगी नहीं चलती"।
एक डॉक्टर की दवा से ज्यादा कई बार रोगी को उसके दिए दिलासे काम करते हैं..किसी का साथ निभाने का वादा दिल को कितना संबल देता है..भगवान के दर पर प्रार्थना कर दिल को कितना सुकुन मिलता है...प्यार का इज़हार-इकरार कितना रुमानी होता है...उत्सव के गीत, मुस्काते शब्द, मां की लोरियां, मजाक-मस्ती, दोस्तों के जोक्स ये सब क्या है....महज बातें ही तो है लेकिन ये बातें वो काम कर जाती है जो कि बड़ी-बड़ी चीजें नहीं कर पाती...फिर आखिर कैसे बातों से ज़िंदगी नहीं चलती???
अंत में उपकार फ़िल्म का इक गीत याद आ रहा है-"कोई किसी का नहीं ये झूठे, नाते हैं नातों का क्या..कसमें-वादे प्यार-वफा सब, बातें हैं बातों क्या " और तो आप पूरा गाना खुद सुन लीजिएगा, ये सारी 'बातों और ज़िंदगी' का झमेला अपने तो पल्ले नहीं पड़ता। भगवान और इस जमाने के बुद्धिजीवी जाने की ज़िंदगी कैसे चलती है..अपन को तो बस इत्ती-सी बात समझ आती है- ज़िंदगी, ज़िंदगी से चलती है..कभी हंसती है तो कभी रोती...और जो नहीं चलती, वो ज़िंदगी नहीं होती।