Tuesday, July 30, 2013

मेरी प्रथम पच्चीसी

जिंदगी के फलसफें पे हम ज्यों के त्यों खड़े रहते हैं और लगातार हम पे से वक्त गुज़रता रहता है..ये गुजरता हुआ वक्त खुद तो प्रकृति के अनुरूप गतिमान बना रहता है पर अपनी इस गतिशीलता से हमारी प्रकृति में बदलाव लाता रहता है...इस बदलाव से लगता है कि शायद हम गुज़र रहे हैं और वक्त जस का तस है। जिंदगी के एक हिस्से तक हम भागते रहते हैं फिर मौत भागती है हमारे पास आने को..और हम अपनी जिजीविषा के चलते उस मृत्यु के सत्य पे से आँखे मूंद अपने सपनों को पंख देने में लगे रहते हैं, जिंदगी की अंतिम श्वांस तक। इस गुजरते हुए वक्त ने मुझे पच्चीस साल का कर दिया है..और अब थोड़ा ठहरकर एक मंथन की दरकार है कि क्या खोया क्या पाया...बच्चन जी के शब्दों में कहूं तो क्या भूलुं-क्या याद करूं..और साथ ही ज़रूरत है अपने आगामी जीवन की दिशा की समीक्षा करने की। अपने इस पच्चीसवे पड़ाव पर अपने अतीत की यात्रा पे निकल रहा हूँ..कई उतार-चढ़ाव रहे और उन उतार चढ़ावों ने जहाँ एक ओर मजबूती दी है तो कई जगह मेरे व्यक्तित्व की असल परतें भी उतार फेंकी हैं..और चढ़ गई है कुछ झूठी मुस्कान, औपचारिक बातों, सतही संवेदनाओं और लाग-लपेट पूर्ण असंख्य रिश्तों की नकली व दिखावटी परतें। मेरे अतीत की ये झांकी वास्तव में मेरे अपने लिये ही एक प्रेरणा और आत्ममंथन के हेतु से प्रस्तुत कर रहा हूँ लेकिन मेरे जीवन के कुछ हिस्से शायद किसी और के लिये भी प्रेरणादायी साबित हो सकते हैं ऐसी मैं आशा करता हूँ..हालांकि मैं कोई सेलिब्रिटी नहीं जिसके जीवन संस्मरणों को कोई खास तवज्जो दी जाये..और आप इसे देखें-पढ़ें, ऐसा मेरा कोई आग्रह भी नहीं है...इसलिये अपनी स्वयं की रिस्क पे ही मेरी इस प्रथम पच्चीसी में प्रवेश करे...ये पूर्णरूपेण मेरे और मेरे लिये लिखी गई है..वैसे भी यादों की सिर्फ स्वयं को ही संतृप्त कर पाती है....खैर पच्चीसी का आगाज़ करते हैं....

अथ कथारम्भः-

31 जुलाई 1988। मध्यप्रदेश के रायसेन जिले स्थित एक बमुश्किल 7-8 हजार की जनसंख्या वाले गांव में जन्म हुआ..पूरे विश्व में हर मिनट 258 बच्चे पैदा होते हैं इनमें से तकरीबन 70 बच्चे प्रतिमिनट के हिसाब से अकेले हिन्दुस्तान में पैदा होते हैं। इस हिसाब से एक लाख से भी ज्यादा बच्चे प्रतिदिन इस देश की सरजमीं पे अवतरित हो जाते हैं..इसे आंकड़े को बताने का मेरा उद्देश्य महज इतना है कि इस देश में पैदा हो जाना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। लेकिन सबसे ज्यादा जन्म के उत्सव और रीति-रिवाजों से संयुक्त कार्यक्रम हमारे देश में ही मनाये जाते हैं...मैं आज तक नहीं समझ पाया कि किसी बच्चे के पैदा होने को सहजता से क्यों नहीं लिया जाता...बेफिजूल में इतना लोग बौराते क्यों हैं..और खास तौर पे हिन्दुस्तान जैसे देश में इन अतिरेक पूर्ण उत्सवों का तो कोई मूल्य ही नहीं है क्योंकि हम जिस तरह से अपना कल निर्मित कर रहे हैं उस परिवेश में बच्चों का स्वस्थ और उज्जवल भविष्य कहीं नज़र ही नहीं आता। खैर, ये सब मैं इसलिये बता रहा हूँ कि ऐसे ही अतिरेक पूर्ण उत्सव और आयोजन मेरे जन्म पे भी किये गये थे ऐसा मुझे बताया गया है।

और जैसा कि हिन्दुस्तानियों की स्वाभाविक प्रवृ्त्ति है कि किसी चीज़ को उसके असल रूप में न स्वीकार कर, अनायास ही किसी दैवीय अवतार या विशिष्ट शक्ति संपन्नता के लबादे उड़ा दिये जाते हैं वैसे ही लबादे मेरे जन्म के वक्त परिवार जनों ने मुझे उड़ा दिये..और कोई कहता कि मेरे जन्म के वक्त कृष्ण जी सपने में आये थे तो कोई कहता कि किसी बाबा ने फलां-फलां पूजा-पाठ करने को कहा और वो पाठ शुरु करते ही मैं इस धरती पे आ धमका। अरे, भाई चीजों को सहजता में ग्रहण करो न...क्या बिना किसी दैवीय ताकत के पैदा हुए एक आम बच्चे की अपनी कोई अहमियत नहीं है जो इस तरह के नाना विशेषण और उपाधियां उसपे थोपी जा रही हैं। लेकिन धर्म और परंपराओं में आकंठ डूबे इस देश और देशवासियों ने तर्कसम्मतता को कबकी तिलांजिलि देदी है।

हजारों-लाखों बच्चे इस देश में पैदा होते हैं पर उनमें से चंद खुशनसीब बच्चे होते है जिनकी सर्वोपयोगी सुविधाओं और अच्छे माहौल में परवरिश होती है...कमसकम मैं उन खुशनसीबों में से था। यद्यपि विलासितापूर्ण बचपन नहीं था मेरा, न ही मनोरंजन हेतु लग्ज़रीस् की उपलब्धि थी पर ज़रूरत की समस्त चीजें और सबसे ज्यादा आवश्यक तत्व प्रेम, मुझे भरपूर मात्रा में प्राप्त हुआ। धुंधली पड़ चुकी यादों में जितना कुछ भी देख पा रहा हूँ तो मुझे यही दिखता है कि कभी किसी वस्तु के लिये लंबी ज़िद नहीं करना पड़ी और माँ-बाप से समस्त वाञ्छित वस्तुएं सहज प्राप्त होती गई। विश्व के संपूर्ण बच्चों की तरह मेरे लिये भी माँ की गोद सबसे आरामदायक जगह और पापा की छाया सबसे बड़ा सुरक्षाकवच थी। यदि बचपन में ज्ञान और विवेक होता तो यकीन मानिये कभी बड़े होने की ख्वाहिश न होती..और न ही जो दार्शनिक व्यक्ति जिस मुक्ति की बात करते हैं उसकी ही कोई आरजू होती..क्योंकि बचपन सी निश्चिंतता ही मुक्ति में होती होगी जिसके लिये विश्व का संभ्रांत मनुष्य प्रयत्नशील सा दिखता है।

एक धार्मिक और पारंपरिक मान्यताओं को मानने वाला, व्यवसायी, सामान्य परिवार मुझे प्राप्त हुआ था...और वर्तमान के प्रेक्टिकल होते अपने आसपास के परिवेश में भी, मैं खुद को अपनी ज़मीन से जुड़ा हुआ और तथाकथित मॉडर्निटी से बचा हुआ पाता हूँ उसका कारण मेरी पारिवारिक पृष्ठभूमि ही है। पहले पाँच वर्ष कैसे बीते मुझे कुछ खास स्मरण नहीं बस इतना याद है कि मेरे बर्थडे के दिन तरह-तरह के जतन किये जाते थे...और महीने भर पहले से योजना तैयार की जाती थी..मुझमें भी बर्थडे को लेके खासा एक्साइटमेंट रहा करता था..और हम तीनों भाईयों में मेरे बर्थडे के दिन ही हम तीनों का कंबाइन बर्थडे सेलीब्रेट किया जाता था, उन दोनों छोटे भाईयों को भी इस तरह की पट्टी पड़ा दी गई थी कि मेरा बर्थडे ही खास है तुम भी इसके साथ ही सेलीब्रेट करके खुश रहो और वो दोनों सीधे-सादे बच्चे भी..मुझे कुछ स्पेशल मानके चुप ही रहा करते थे। आज ये सोच के अच्छा नहीं लगता..कि भले ही माँ-बाप भीतरी तौर पर अपने बच्चों की परवरिश में कोई भेद न करते हों पर ऊपरी तौर पे परवरिश में भेद हो ही जाता है...और इस भेद को लेके बच्चों में अनायास विद्वेष पैदा हो जाता है...बहरहाल मेरे भाईयों के साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ और मैं खुशनसीब हूँ कि आज उनमें इस लेवल की अंडरस्टेंडिंग है जो इस चीज़ को ज्यादा मैटर नहीं करते लेकिन ये बात सच है कि हम तीनों की परवरिश में भले ही कोई भेदभाव नहीं हुआ, पर उसकी अभिव्यक्ति में भेदभाव ज़रूर हुआ है और मैं इस भेदभाव में लाभ की स्थिति में रहा हूँ।

पाँच वर्ष तक की कोई और चीज़ जो मुझे याद आती है वो है नानी का घर। नानी के घर जाने को लेके भी बहुत उत्सुकता रहती थी और मेरे स्कूल जाने से पहले नानी की कहानियाँ ही मेरी पहली शिक्षा थी। नानी की ये शिक्षा मुझे आगे लंबे समय तक मिलती रही और आज अपने भीतर जो एक संवेदनशील मनुष्य को पाता हूँ उसका कारण मेरी नानी की वही संगति है हालांकि धीरे-धीरे वो संवेदनशीलता सिस्टम और हालातों के हाथों कुंद पड़ती जा रही है..पर विषमताओं में भी अपने मूल्यों और संस्कारों से आज भटकाव नहीं हो पाता उसका कारण दादी-नानी की वही शिक्षा है। अफसोस होता है कि आज के सिकुड़ते परिवारों में दादी-नानी के ये प्रारंभिक स्कूल ख़त्म होते जा रहे हैं और बच्चों को कार्टून नेटवर्क और इंटरनेट जैसे वर्चुअल वर्ल्ड से प्रारंभिक शिक्षा मिलती है...

खैर, अभी रुकता हूँ..अपने स्कूल दिनों के साथ और बचपन की कुछ और सौंदी-सौंदी यादों के साथ वापस आउंगा...

ज़ारी.....

Tuesday, July 23, 2013

प्रेमचंद के साहित्य में प्रस्तुत नारी

आगामी 31 जुलाई को उपन्यास सम्राट प्रेमचंद की 133 वी जन्मजयंती है इस अवसर पर पीपुल्स समाचार के विशेष अंक हेतु मैनें आलेख तैयार किया है जो आप सबके समक्ष प्रस्तुत है-


जब पुरुष में नारी के गुण आ जाते हैं तो वो महात्मा बन जाता है और अगर नारी में पुरुष के गुण आ जाये तो वो कुलटा बन जाती है गोदान में उद्धृत ये पंक्तियां प्रेमचंद का नारी को देखने का संपूर्ण नजरिया प्रस्तुत करती हैं। आज हिन्दुस्तान नारी को सशक्त बनाने के लिये जिस क्रांतिकारी दौर से गुजर रहा है उस नारी को प्रेमचंद बहुत पहले ही सशक्त साबित कर चुके हैं। प्रेमचंद के साहित्य की स्त्री कर्मभूमि में उतरकर पुरुष के कांधे से कांधा मिलाकर देश की आजादी के लिये संघर्ष करती है, उसे गबन कर लाये पैसों से अपने पति की भेंट में मिला चंद्रहार स्वीकृत नहीं है, वो एक गरीब किसान के दुख-दर्द की सहभागी बन अपना पतिव्रता धर्म भी निभाती है, वो बड़े घर की बेटी भी है और उस सारे पुरुष वर्चस्व वाले परिवार में मानो अकेली मानवीय गुणों से संयुक्त है, वो मजबुरियों में पड़े अपने परिवार के लिये समाज के सामंत वर्ग से बिना डरे ठाकुर के कुएं पे जाकर तत्कालिक व्यवस्था को चुनौती देती है और कभी एक माँ बनकर अपने बच्चे के लिये खुद की जान भी लुटा देती है।

मुंशी प्रेमचंद ने अपने साहित्य में जिस परिदृश्य को चित्रित किया है वो कतई नारी के अनुकूल नहीं रहा है और नारी उस काल में समाज के पिछले पन्ने का ही प्रतिनिधित्व करने वाली रहा करती थी। लेकिन इसके बावजूद मुंशीजी के साहित्य में नारी चरित्र उभरकर सामने आये हैं और इन साहित्य को देख लगता है कि मानों नारी समाज की मुख्यधारा का प्रतिनिधित्व कर रही है और पुरुष हासिये पे फेंक दिये गये है। उनके दो दर्जन से अधिक उपन्यासों में से निर्मला, मंगलसूत्र, कर्मभूमि, प्रतिज्ञा तो ऐसे उपन्यास हैं जो पूर्णरूपेण नारी चरित्रों पर ही केन्द्रित रहे हैं तो अन्य भी जो उपन्यास रहे हैं उनमें भी स्त्री चरित्र को पुरुष के समानांतर ही प्रस्तुत किया है। प्रेमचंद की सैंकड़ो कहानियों में से जो कुछेक अति प्रसिद्ध कथाएँ रही हैं वो भी अपने प्रमुख नारी चरित्रों के कारण जानी जाती है जिनमें से ठाकुर का कुआँ, पूस की रात, बड़े घर की बेटी, बूढ़ी काकी, दूध का दाम अति प्रसिद्ध हैं। उनके साहित्य में प्रस्तुत नारी छवि को देख ऐसा जान पड़ता है कि मानों समाज में मानवोचित गुणों की वाहक मात्र नारी ही है और जो पुरुष मानवीय गुणों से संपन्न हैं, वे भी नारी के प्रभाव में आकर ही मानवीयता से संपन्न हुए हैं। कर्मभूमि के बाप-बेटे समरकांत और अमरकांत में देवत्व की स्थापना कर, उन्हें स्वतंत्रता के संघर्ष में झोंकने वाले नारी पात्र सकीना, सुखदा और मुन्नी को भला कौन भूल सकता है।

प्रेमचंद, महिला चरित्रों को कर्म, शक्ति और साहस के क्षेत्र में पुरुष के समकक्ष प्रस्तुत करते हैं पर महिला की नैसर्गिक अस्मिता, गरिमा और कोमलता को वो अक्षुण्ण रखते हैं। प्रेमचंद का साहित्य उन तमाम आधुनिक महिलासशक्तिकरण के चिंतको के लिये उदाहरण प्रस्तुत करता हैं जो नारी को सशक्त बनाने के लिये उसके चारित्रिक पतन की पैरवी करते हैं और उसकी अस्मिता के भौंडे प्रदर्शन को नारी शक्ति का प्रतीक मानते हैं। वे नारी के समावर्णन में पूर्वाग्रही नहीं है अपने एक उपन्यास में प्रेमचंद लिखते हैं नारी हृदय धरती की भांति है, जिससे मिठास भी मिल सकती है और कड़वाहट भी स्त्री के सतीत्व को प्रेमचंद ने भरपूर सम्मान दिया है और उसकी पवित्रता पे प्रश्नचिन्ह उठाने वालों के लिये वो अपने उपन्यास प्रतिज्ञा में लिखते हैं स्त्री हारे दर्जे ही दुराचारिणी होती है, अपने सतीत्व से ज्यादा उसे संसार की किसी वस्तु पर गर्व नहीं होता और न ही वो किसी चीज को इतना मूल्यवान समझती है ये पंक्तियां आज के उन तमाम बौद्धिक व्यायाम करने वाले तथाकथित आधुनिक लोगों पर तमाचा है जो स्त्री की वासनात्मकता को अनायास ही स्वर देकर उसकी भोग-वाञ्छा को साबित करना चाहते हैं और उसे सही ठहराकर नारी को सशक्त साबित करने का बेहुदा कृत्य करते हैं। एक अन्य जगह प्रेमचंद लिखते हैं नारी स्नेह चाहती है, अधिकार और परीक्षा नहींउसकी स्नेह की चाहत को कतई अन्यथा नहीं लेना चाहिये।

इसके अलावा नारी के मातृत्व को प्रेमचंद ने जिस तरह से प्रस्तुत किया है वो कहीं ओर विरले ही देखने को मिलता है। मातृत्व के वर्णन में कई बार उनकी अति भावुकता की झलक हम देख सकते हैं उसकी वजह शायद ये हो सकती है कि प्रेमचंद ने बचपन में ही अपनी माँ को खो दिया था और माँ के प्यार की कसक ताउम्र उन्हें सालती रही। गोदान में वो लिखते हैं- नारी मात्र माता है और इसके उपरान्त वो जो कुछ है वह सब मातृत्व का उपक्रम मात्र। मातृत्व विश्व की सबसे बड़ी साधना, सबसे बड़ी तपस्या, सबसे बड़ा त्याग और सबसे महान् विजय हैइस मातृत्व के नैसर्गिक गुणों के कारण ही प्रेमचंद नारी को दया, करुणा और सेवा की महान् मूर्ति साबित करते हैं। सेवाभाव की महत्ता का वर्णन करते हुए वो लिखते हैं- सेवा ही वह सीमेंट है, जो दम्पत्ति को जीवन पर्यंत प्रेम और साहचर्य में जोड़े रख सकता है, जिस पर बड़े-बड़े आघातों का कोई असर नहीं होता और नारी ही सेवा का पर्याय है नारी की उत्कृष्टतम दया का वर्णन करते हुए वे अपनी कथा में लिखते हैं बड़े घर की बेटी,’ आनन्दी, अपने देवर से अप्रसन्न हुई, क्योंकि वह गंवार उससे कर्कशता से बोलता है और उस पर खींचकर खड़ाऊँ फेंकता है। जब उसे अनुभव होता है कि उनका परिवार टूट रहा है और उसका देवर परिताप से भरा है, तब वह उसे क्षमा कर देती है और अपने पति को शांत करती है।

प्रेम और नारी छवि के महत्वपूर्ण प्रसंग पर भी प्रेमचंद की दृष्टि गौर करने लायक है। उन्होंने नारी में प्रेम से ज्यादा श्रद्धा को तवज्जो दी, श्रद्धा को ही महान् साबित किया और उनकी नज़र में प्रेम, हमेशा दोयम दर्जे का ही रहा। वे लिखते हैं- प्रेम सीधी-सादी गऊ नहीं, खूंखार शेर है, जो अपने शिकार पर किसी की दृष्टि भी नहीं पड़ने देता। श्रद्धा तो अपने को मिटा डालती है और अपने मिट जाने को ही अपना भगवान बना लेती है, प्रेम अधिकार करना चाहता है। आज के दौर में प्रचलित अय्याशियों का प्रतीक बना वेलेंटाइन डे नुमा प्रेम, प्रेमचंद की दृष्टि में कतई सम्मान का प्रतीक नहीं है। आज के भोगप्रधान विश्व में प्रेम अक्सर हिंसा का रूप अख्तियार कर लेता है। एक असफल प्रेम से पैदा हुई सनक का ही फल है कि लड़कियों को हत्या और तेजाब फेंकने जैसी दुर्दांत घटनाओं का शिकार होना पड़ता है।

प्रेमचंद के साहित्य की नारी महज नारी नहीं, वह इस भौतिक जगत से कहीं ऊपर उठकर एक दैवीय रुप धारण कर लेती है। जिसके समावर्णन को पढ़ ऐसा लगता है कि नारी के ही कारण इस धरती पर इंसानियत जीवित है और उसकी ही वजह से एक संतुलन कायम है। भले सरकार और हमारी शिक्षा प्रणाली आज महिला को समाज की मुख्यधारा में लाने के जी-तोड़ जतन कर रही है पर पुरुष मानसिकता को बदलने में सब नाकाम है..और इस पुरुष वर्चस्व प्रधान समाज में, घर के बाहर की बात तो रहने ही दो...घर-परिवार के अंदर ही महिला इस पुरुष मानसिकता का शिकार है जहां उसे अपनी पसंद, अपनी इच्छाओं, जिजीविषाओं का गला हरक्षण घोंटना पड़ता है। इसी पुरुष मानसिकता की देन है कई छुपे हुए गहन अपराध, भ्रुणहत्या,  दहेज, महिलाउत्पीड़न, घरेलू हिंसा आदि। आज के वक्त में जब जनता दामिनी, गुड़िया और प्रीति पे हुए अन्याय का बदला लेने के लिये सड़को पर है इस दौर में प्रेमचंद का नारी के प्रति दृष्टिकोण सर्वाधिक प्रासंगिक है।

Sunday, July 14, 2013

जिंदगी का हर पत्थर इतना बड़ा नहीं होता कि सबकी नज़र में आ जाये- "भाग मिल्खा भाग"

ऑन योर मार्क..गेट सेट..गो- और तेजी से अपने साथी प्रतिस्पर्धियों को पछाड़ता हुआ, एक सरदार स्क्रीन के सामने आता है। टिकट लेकर बमुश्किल से सीट को ढूंढकर हम थियेटर में बैठते ही हैं..कि कई वाइड शॉट और एक्स्ट्रीम क्लोसअप में फिल्माये गये रेस के कई बेहतरीन दृश्य रोमांच पैदा कर देते हैं। लेकिन ये रेस, सेकेंड के सौवे भाग से मिल्खा सिंह हार जाता है...और चंद मिनटों बाद हम फ्लेशबैक में और फिर फ्लैशबेक के भी फ्लैशबेक में पहुंच जाते हैं...जिसमें छुपा हुआ है, पाकिस्तान के एक छोटे से गाँव पिंड में पैदा हुए सरदार की, मिल्खा सिंह बनने की कहानी का राज....

फ्लैशबेक में एक और दौड़ हमारे सामने आती है..इस बार मिल्खासिंह का मुक़ाबला राष्ट्रीय चैंपियन से हैं और इस बार भी मिल्खा, लगभग आधी रेस में आगे रहने के बावजूद हार जाता है...लेकिन फिर भी उसका राष्ट्रीय टीम के लिये चयन होता है क्योंकि आधी रेस के बाद, नंगे पैर भाग रहे मिल्खा सिंह के पैर में पत्थर चुभा होता है...उसके पास रेस में हार जाने का एक बहाना है लेकिन जिंदगी की राह में आने वाला हर पत्थर इतना बड़ा नहीं होता कि दुनिया की नज़र में आ जाये। दुनिया आपको सिर्फ हासिल की हुई उपलब्धियों से आंकती हैं रास्तों की बाधाओं से नहीं। दुनिया में सिर्फ हारे और जीते हुए लोगों के दो वर्ग होते हैं..एक को गालियाँ मिलती हैं तो दूसरे को तालियाँ। तीसरा कोई ग्रुप अपने संघर्ष और लाचारियों का वास्ता देकर लोगों की सहानुभूति नहीं हासिल कर सकता..दुनिया की यही असंवेदनशील प्रकृति ही दुनिया का सच है। देश को दर्जनों मेडल दिलाने वाले मिल्खा सिंह की तारीफों के पुल बाँधने वाले लोग, उसके रोम ओलंपिक में पराजित हो जाने पर पुतले फूंकते नज़र आते हैं क्योंकि दुनिया को इस हार की वजह बना वो पत्थर नज़र नहीं आता..जिसके अक्स अतीत में विद्यमान हैं..और उस चुभन देने वाले पत्थर की और मिल्खा सिंह के संघर्ष की, ही कहानी है भाग मिल्खा भाग।

रास्तों के पत्थरों से पहले चोटें मिलती हैं और फिर पराजय..पर इसके साथ ही मिलता है अनुभव। उस चोट को देखने के लिये आप जब-जब भी झुकेंगे, तब-तब हारेंगे..और उस चोट पे से नज़र हटाके गर अपने अनुभव के साथ, अपनी निगाहें आगे रखते हुए सिर्फ अपने लक्ष्य को देखेंगे तो हमेशा जीत नसीब होगी। हर एक इंसान के दिल में कई महीन पत्थर चुभे हुये हैं..जिनकी कसक सदा एक दर्द बनकर आये दिन उठती रहती है। ऐसे में आपके पास दो विकल्प हैं या तो उस कसक को अपनी राह का रोड़ा बनने दो..या फिर उस कसक को एक चिंगारी में बदल दो..जो चिंगारी रूह को रोशन तो करती ही है..साथ ही उससे पैदा होते हैं- "Hard Working, Will Power & Dedication और जिसके पास ये तीन मानवीय गुण हैं तो दुनिया का ऐसा कोई मुकाम नहीं जिसे वो हासिल न कर पाये"। मिल्खा सिंह की कही इस पंक्ति के साथ ही फ़िल्म ख़त्म होती है। लेकिन ख़त्म होने से पहले इस पंक्ति के मायने, मिल्खा सिंह के जीवन के ज़रिये हमें समझा जाती है...जो मायने शायद हम तब न समझ पाते, जबकि सामान्य ढंग से हमसे ये बात कही जाती।

भारत-पाक पार्टिशन का दंश झेलना, अपने परिवार के लोगों की मौत देखना और अपने पिता के द्वारा उस दौरान ही कहे गये ये तीन शब्द 'भाग मिल्खा भाग', जिससे मिल्खा दुश्मनों से अपनी जान बचा सके..ये शब्द हमेशा मिल्खा के कान में गूंजते हैं और जब ओलंपिक जैसे बढ़े मंच पर भी ये शब्द उसके कानों में पढ़ते हैं..तो उसके सामने रेस कोर्ट नहीं, बल्कि सन् 47 का वही काला मंज़र होता है..जिसके चलते मिल्खा आज तक भाग रहा है। 

जीवन के कठिन संघर्ष को बयां करती ये कहानी, हमें अंत तक रोमांचित किये रहती है..राकेश ओम प्रकाश मेहरा का बेहतरीन निर्देशन फ़िल्म की मनोरंजकता बरकरार रखते हुए, फ्लाइंग सिक्ख मिल्खा सिंह की जीवनी को बेहतरीन ढंग से प्रस्तुत करता हैं। कई बार हम हमारे बदन में भी एक सिहरन महसूस करते हैं, मानो हम मिल्खा सिंह की रेस को सीधे मैदान में बैठके देख रहे हों। इस तरह की फ़िल्मों में, जिसमें कि स्पोर्टस् का एक अहम् हिस्सा होता है...निर्देशक की ये बड़ी जिम्मेदारी होती है कि वो कथानक में वैसी ही तेजी दिखाये जैसी रफ्तार और उतार-चढ़ाव किसी खेल के अंदर होते हैं। सिनेमेटोग्राफर और विडियो एडीटर की भूमिका भी इन फ़िल्मों में काफी मायने रखती है...क्योंकि दृश्य के फिल्मांकन और संयोजन से ही ये संभव हो पाता है कि दर्शक उस माहौल को वर्तमान में महसूस करे। ऐसे में फिल्मांकन और संपादन के मामले में ये फ़िल्म अव्वल दर्जे की है...फिल्मांकन का ही कमाल है कि कई बार हम बरबस ही अपनी सीट से आगे की ओर खिंचे चले जाते हैं। फिल्म में प्रस्तुत लोकेशन उस काल को बखूब जीवंत बनाती हैं।

फरहान अख्तर ने कमाल का अभिनय किया है..इस फिल्म के लिये जिस डील-डोल का निर्माण उन्होंने किया है और जिस गेटअप में वो प्रस्तुत हुए हैं वो हूबहू मिल्खा सिंह की जवानी को तरोताजा करता है। दिव्या दत्ता, विजय राज, पवन मल्होत्रा ने भी अपने-अपने किरदार के अनुरूप कमाल का अभिनय किया है। यूं तो सोनम कपूर फिल्म की मुख्य नायिका है पर लगभग तीन घंटे की फिल्म में उनके हिस्से 20-25 मिनट का ही किरदार आया है..लेकिन अपने इस संक्षिप्त किरदार के साथ उन्होंने न्याय किया है। मिल्खा सिंह की त्रासद कहानी होने के बावजूद राकेश मेहरा ने हास्य के लिये फिल्म में अच्छी जगह बनाई हुई है और मिल्खा सिंह की प्रेम कहानी और कैंप के दृश्यों के दौरान दर्शकों को काफी गुदगुदाया भी है। प्रसून जोशी के संवाद और उनके लिखे गीत उनकी प्रतिष्ठा के अनुरूप हैं...इन गीतों को शंकर-अहसान-लॉय ने अपने संगीत से लयबद्ध किया है जो फिल्म देखते हुए काफी मनोरंजक और अर्थप्रधान महसूस होते हैं।

एक सार्थक सिनेमा है जिसे देखा जाना चाहिये...राकेश ओमप्रकाश मेहरा के लिये ये फ़िल्म 'दिल्ली-6' के हादसे से उबारने वाली साबित होगी..लेकिन फिर भी ये राकेश की नायाब फिल्म 'रंग दे बसंती' के स्तर की नहीं है...उस स्तर की तो खैर हो भी नहीं सकती क्योंकि रंग दे बसंती जैसी फ़िल्में बनाई नहीं जाती...बन जाती हैं।

Saturday, July 13, 2013

मेरा एक और ठिकाना- "बेचैनियों का गुलदस्ता"

मेरे प्रिय ब्लॉगर मित्रों,
पिछले तीन सालों में इस ब्लॉग के जरिये मुझे आप सब के रूप में सैंकड़ो नये रिश्ते मिले हैं...खुद को अपने इस ब्लॉग के जरिये, मैं आप सब के परिवार जैसा ही मानता हूँ...आपकी प्रतिक्रियाओं से मिले ऑक्सीजन ने मेरी कलम को नयी ताकत और एक अलग जिंदगी दी है...अब इसी श्रृंख्ला में मैं अपनी कविताओं का..माफ कीजियेगा बेचैनियों का एक बेहद खास गुलदस्ता आप सबके बीच ला रहा हूँ- 'बेचैनियों का गुलदस्ता'। जी हाँ, यही है मेरा नया ब्लॉग।


वैसे मैं आपको बता दूँ, मैं न कोई कवि हूँ, न साहित्य जगत में अपनी रचनाओं से कुछ अवदान करने की हिमाकत करता हूँ...इस गुलदस्ते में सजे हुए गुलों को कविता कहने की गुस्ताख़ी न करें, इन्हें बेचैनियाँ ही रहने दिया जाये...बेचैनियां जिंदगी का सच हैं जो हर जिंदगी के साथ चलती रहती हैं, हर दिल में पलती रहती हैं- अपना रूप बदल-बदलकर। लेकिन इन हालातों के बीच, बेचैनियों से लड़ते हुए भी जिंदगी चलती रहती है..बस यही जिंदगी की सबसे अच्छी बात है और शायद यही सबसे बुरी भी।

बहरहाल, हो सकता है ये बेचैनियाँ आपको पका सकती हैं क्योंकि ये दिमाग से नहीं लिखी गई हैं, अतः इन्हें साहित्यिक पैमानों पर तौलने की कोशिश न करें। अब से पहले ये मेरे दिल और मेरी डायरी में खामोशी से सांसे लिया करती थी..अब इन्हें इस सायबर संजाल पे भी नया ठिकाना दे दिया है..इसके अलावा इन्हें कहीं जगह मिल भी नहीं सकती थी।

उम्मीद है जिस तरह से आपने मेरे 'साला सब फ़िल्मी है' ब्लॉग को प्यार दिया है, वैसा ही प्यार और अपनापन आप मेरे इस नए ब्लॉग को भी देंगे....और ब्लॉग फोलोअर्स बनकर मेरे इस ब्लॉग से भी रिश्ता जोड़े रहेंगे...साथ ही अपनी प्रतिक्रियाऑं से मेरे अच्छे-बुरे का ज्ञान भी मुझे कराते रहेंगे...तो फिर चटका लगते रहे- इस बेचैनियो के गुलदस्ते पर...ये आपके इंतजार में है…।
सादर
अंकुर 'अंश'

Thursday, July 11, 2013

अंतिम श्वांस, सुप्त अहसास और वो वृक्ष का आखिरी पत्ता : लुटेरा

जिंदगी के फलसफां में नयी-नयी घटनाएं और रिश्ते निरंतर आ जुड़ते है फिर बिछड़ भी जाते हैं घटनाएं भुला दी जाती हैं और रिश्तों पर भी वक्त की दीमक लग जाती है और वो ख़त्म हो जाते हैं पर इनसे मिली अनुभूतियों की उम्र कुछ ज्यादा ही लंबी होती है...और वो अहसास कभी कसक बनकर, कभी हसीन याद बनकर, कभी नफरत, कभी उम्मीद और कभी एक अधूरा सपना बनकर जिंदा रहता है इस सबके बावजूद भी हर अनुभूति की भी एक एक्सपाइरी डेट होती है..क्या हक़ीकत में ऐसा होता है? क्या वक्त का इरेसर दिल की स्लेट पे से सब कुछ मिटा देता है? क्या तब भी लहलहा सकती है जज़्बातों की घास, रूह की जमीं पर..जब न मिल रहा हो उसे निकटताओं का खाद-पानी। बड़े पेचीदा प्रश्न है और इतने ही पेचीदा है इनके जबाव, जो अगर मिल भी जाये तो सबको सहमत कर सके इतनी हिम्मत नहीं होती उन जबावों में।

लुटेरा। विक्रमादित्य मोटवानी की एक दुखांत प्रेमकथा, मोटवानी इससे पहले उड़ान जैसी महान् फिल्म बना चुके हैं। इस साल की तीसरी कहानी जिसमें नायक-नायिका नहीं मिलते और संभवतः ये भी सफल फ़िल्म साबित होगी। नफरत, मोहब्बत, अपेक्षा-उपेक्षा की धूप-छांव से गुजरती फ़िल्म..प्रेम में किये गये समर्पण की पराकाष्ठा को प्रदर्शित करती है। आज की पीढ़ी के दर्शक को अतिरेक लग सकता है इसका क्लाइमेक्स.. लेकिन प्रेम कुछ ऐसा ही है जिसे समझ पाना हमेशा नामुमकिन रहा है।

जैसा कि फ़िल्म के नाम से पता चलता है कि कोई तो इसमें लुटेरा होगा...ऐसा ही है नायक एक चोर है जिसने कई बड़ी लूट की हैं और अपने गिरोह के मुखिया को अपने पिता तुल्य मानता है क्योंकि उसकी वजह से ही नायक पला-बढ़ा है। एक प्रोफेशनल लुटेरा, जो संवेदना और भावनात्मकता से कोसों दूर है और लोगों को अपना बनाके लूटता है। लेकिन इस बार वह गलत घर में डाका डाल बैठता है और खुद लुट जाता है। जी हाँ, एक प्रेक्टिकल लाइफ वाले के लिये प्रेम से बड़ी मूर्खता और कोई नहीं हो सकती। ये आपके व्यक्तित्व को तो प्रभावित करती ही है आपकी व्यवसायिक परिणति को भी कुंद कर देती है। यही होता है नायक के साथ भी, जो जिस जमींदार के घर में लूट के लिये जाता है उस जमींदार की बेटी से ही प्यार कर बैठता है और उसका काम उसे शादी करने, रिश्ता जोड़ने की इज़ाजत नहीं देता। वो अपने प्रेम को छोड़ अपने काम को चुनता है। उसकी ये लूट और धोखा जमींदार और उसकी बेटी दोनों को तोड़ देते हैं। जमींदार की शारीरिक मौत और नायिका की भावनात्मक मौत का जिम्मेदार, नायक बन चुका है।

जिस शिद्दत से नायिका पहले नायक को चाहती थी उतनी ही शिद्दत से अब वो उससे नफ़रत करती है पर असल में मोहब्बत के बाद नफरत नहीं, उपेक्षा जन्म लेती है...और इसकी बानगी हम पिछली फ़िल्म रांझणा में भी बखूब देख चुके हैं। सालों बाद लुटेरा फिर उस जगह पहुंचता है जहाँ नायिका है, दरअसल नायिका ने ही अपनी नफ़रत निकालना चाही है इस लुटेरे पर..और वो खुद उसे पकड़वाने के षड़यंत्र में भागीदार है। नायक सालों से अपने प्यार के जज्बात और नायिका के संग वाला एक फोटो सुरक्षित दबाकर रखा था और साथ ही उसके दिल में सोये हुए थे पश्चाताप और आत्मग्लानि के अहसास..जो नायिका को धोखा देने के कारण पैदा हुए थे। इस दोबारा के मिलन में वो अहसास फिर जाग उठते हैं क्योंकि नजदीकियों की हल्की सी हवा भी उस सोई हूई फसल को फिर लहलहा देती है।

नायिका कतरा-कतरा बीमारी से लड़ते हुए और अपने दर के सामने लगे उस पेड़ को देख-देखकर जिंदा है जिस पेड़ को वो अपनी जिंदगी की परछाई मान बैठी है..अब उसका संकल्प है कि जिस दिन इस पेड़ का आखिरी पत्ता गिरेगा वही दिन नायिका के जीवन का आखिरी दिन होगा। पश्चाताप की आग में सुलगता हुआ नायक, जहाँ नायिका की सेवा करता है तो वहीं अपनी जान जोखिम में डाल उसकी कोशिश है उस पेड़ के आखिरी पत्ते को बचाने की। वो चाहे तो भाग सकता है इस सारे माहौल से, जिस माहौल में पुलिस से उसकी जान को हर-पल खतरा है। लेकिन प्रेम उसे कहाँ निकलने दे सकता है, यूं खुदगर्ज बनकर। नायिका से सीखी चित्रकला से वो अपने जीवन की सर्वोत्तम कलाकृति बनाता है जिसे उसके जाने के बाद भी याद रखा जाएगा...और वो कलाकृति है वृक्ष का वही आखिरी पत्ता। जिसे तूफानों के बीच भी उस वृक्ष पर चस्पा कर नायक मुस्काते हुए अपनी जान देता है क्योंकि उसे खुशी है अपने प्यार को जिंदगी के कुछ रोज़ और देने की। अब वो मोहब्बत के गहन भावों से बना पत्ता, नायिका को कुछ सांसे और देगा..और यही पत्ता नायक की अंतिम श्वांस को सार्थक करेगा।

बड़ी रुमानी फ़िल्म है मानो लगता है किसी क्लासिक कविता को मंद-मंद सुन रहे हों...हालांकि इसका क्लाइमेक्स एक हॉलीवुड फिल्म से विधिवत् रोयल्टी देकर खरीदा गया है पर उसका प्रस्तुतिकरण मोटवानी का अपना है। रणबीर सिंह ने अपनी प्रकृति से विपरीत मगर उम्दा और संतुलित अभिनय किया है...बंगाल और पचास के दशक को बखूब फिल्माया गया है कुछ चूकें हुई हैं पर फिल्म के नाजुक रेशे के सामने वो नाकाफी है। सारे गीत बैकग्राउंड में बजते है पर सभी लाजबाव हैं। सोनाक्षी सिन्हा तेजी से आगे बढ़ रही है और उनकी पिछली फ़िल्मों के बनिस्बत इस फिल्म में उन्हें अभिनय करने की ज्यादा संभावना हासिल हुई हैं और उन्होंने ये काम बेहतरी से किया भी है। दुखांत होने पर भी अंतिम दृश्य सुखांत सी अनुभूति देते हैं, इस साल बॉलीवुड के सुर बदले-बदले से लग रहे हैं और वो मिलन से परे, दूरियों के बावजूद इश्क के अस्तित्व को बेहतरी से फिल्मा रहा है। शायद ये परिवर्तन की एक बयार है। मैनें जनवरी में सफल प्रेम कहानियों पर एक लेख लिखा था हिन्दी सिनेमा में सफल प्रेम कहानियों का दर्शन। जिसमें मिलन को प्रेम की परिचायक बताकर मैनें हिन्दी सिनेमा को यथार्थ से दूर बताया था पर इस साल की प्रदर्शित ये तीन सफल फ़िल्में (आशिकी 2, रांझणा, लुटेरा) मेरी उस मानसिकता को बदल रही है। बदलाव हो रहा है तारीफ करना चाहिये।

बहरहाल, मेरी ये समीक्षा पढ़कर फ़िल्म देखने का निर्णय मत लीजिये क्योंकि मेरे पीछे बैठे दर्जनों दर्शकों के लिये लुटेरा एक बकवास फ़िल्म थी। सिनेमा के मामले में मेरी अपनी पसंद है और आप भी उससे इत्तेफाक रखें ये जरूरी नहीं.....

Friday, July 5, 2013

मैं तो खुद को देख ही रहा हूं ना.....!!!!!

इन दिनों एक चार पहिया वाहन का विज्ञापन कुछ इस तरह से प्रस्तुत किया जा रहा है जिसमें वाहन चालक आधी रात को ड्राइविंग करते हुए सुनसान रोड पर भी लाल बत्ती देख गाड़ी को रोक देता है...इस पर उसके मित्र द्वारा ये कहने पर कि अरे! बढ़ा गाड़ी कोई नहीं देख रहा..तो वाहन चालक का उत्तर होता है मैं तो देख रहा हूँ न। विज्ञापन में प्रस्तुत ये रवैया नैतिकता की सर्वोत्कृष्ट आचार संहिता को प्रदर्शित करता है। यह महज़ उत्पाद बेचने का, वाहन निर्माता कंपनी का अपना तरीका होगा किंतु इस संपूर्ण विश्व में समस्त आचार-विचार-व्यवहार के मानक वास्तव में इस एक सोच से संभव हो सकते हैं और शायद जितनी भी मात्रा में ये आज साकार हो रहे हैं उसमें भी कहीं न कहीं यही सोच महत्वपूर्ण है।

प्रोफेसर जॉन सी.मेरिल ने पत्रकारिता की आचार संहिता बताते हुए तीन बातों का ज़िक्र अपनी पुस्तक में किया है जिसमें समस्त वो चीजें गर्भित हो जाती हैं जिससे नैतिक कृत्यों के मानक निर्धारित किये जा सकते हैं। उन्होंने तीन चीजें न करने को कहा है- पहली वे जो कानून और संविधान विरुद्ध हों, दूसरी वे जो समाज विरुद्द हों और तीसरी वे जिन्हें करने से हमारी अंतरात्मा मना करती हो। इन तीनों बिन्दुओं में तीसरा बिन्दु उन तमाम चीजों को गर्भित कर लेता है जो प्रथम दो बिन्दुओं में छूट जाती हैं..और इस तीसरे बिन्दु का दायरा बहुत बड़ा है। ये न सिर्फ पत्रकारिता की आचार संहिता हेतु महत्वपूर्ण हैं बल्कि जीवन की भी एक मानक आचार संहिता को निर्धारित करता है।

इस दुनिया में कुछ चीजें हैं जो एक अज्ञात शक्ति का काम करते हुए संपूर्ण विश्व को चला रही हैं मैं यहां अज्ञात शक्ति के ज़रिये किसी ईश्वर या ऐसी ही किसी पारलौकिक शक्ति की बात नहीं कर रहा हूं। यहां मैं बात कर रहा हूँ- मूल्यों की। जी हां..यद्यपि पूरे विश्व में हर देश और संस्कृति के मूल्य भिन्न-भिन्न हैं किंतु उनमें से कुछ मूल्य ऐसे हैं जो सर्वत्र सत्य है और हर जगह उन मूल्यों के आधार पर ही नियम-कानून, विधान आदि तय किये गये हैं.. जैसे सत्य, अहिंसा, ईमानदारी, त्याग, समर्पण, करुणा, परोपकार इत्यादि। ये कोई आज या कल तय किये गये मानक नहीं हैं और न ही किसी महापुरुष ने पैदा होकर इन्हें उद्धृत किया है। जिन्हें हम महापुरुष या ईश्वर तुल्य मानते हैं उन्होंने सिर्फ इन मूल्यों का उद्घाटन किया है न कि सृजन। इन्हें अपने जीवन में साकार कर लोगों को मानक जीवन की प्रेरणा दी है न कि लोगों पर इन्हें थोपा गया है। उन तमाम महापुरुषों ने भी अपनी अंतरात्मा की आवाज पर इन्हें अपनाया और परवर्ती जो भी लोग रहे हैं उन्होंने भी अपनी अंतरात्मा की आवाज पर ही इन्हें अपने जीवन का अंग बनाया..महापुरुषों की प्रेरणा उनके लिये एक शुरुआत हो सकती है पर मूल्यों की पराकाष्ठा उन्होंने स्वयं से ही प्राप्त की।

यही मूल्य वो अज्ञात शक्ति हैं जिस पर संपूर्ण मानव जाति की न्याय, समता, प्रतिष्ठा और अक्षुण्णता की लौ दैदीप्यमान है। भले सर्वत्र कितनी ही पापी और विकृत प्रवृत्ति व्याप्त हों पर ये मूल्य जस के तस बने हुए हैं दरअसल ये हमारी संस्कृति और समाज में कुछ ऐसे घुल गये हैं कि अपराध और विसंगतियों की भयंकर लहरें भी इन्हें ख़त्म नहीं कर पा रही।  कुत्सित प्रवृत्ति का व्यक्ति भी कोई अपराध करने के बाद भय औऱ ग्लानिभाव से ग्रस्त रहता है उसका कारण बस यही है कि कोई देखे न देखे वो खुद स्वयं को देख रहा है। लोग भले कितना ही ये क्यों न कहें कि कुछ अच्छा-बुरा नहीं होता पर एक सच ये भी है कि कुछ चीजें सिर्फ अच्छी ही होती है चाहे कोई भी क्षेत्र, कोई भी काल क्यों न हो...इसी तरह कुछ चीजें बुरी ही होती है हर क्षेत्र-हर काल में। सही-गलत, अच्छे-बुरे की पहचान करना कोई बहुत मुश्किल काम नहीं है सिर्फ हमें सुनना ये है कि हम खुद अपने से क्या कह रहे हैं।

अक्सर मनुष्य के व्यक्तित्व का वो विकृत पक्ष जो उसे दुष्कृत्यों की तरफ उकसाता है, हावी होकर उसकी विचारशक्ति को क्षीण कर देता है और हममें उस पक्ष से लड़ने के लिये कोई दूसरा मजबूत विचार या विवेकशीलता नहीं होती। हम सिर्फ तात्कालिक परिणामों के फेर में आकर दूरगामी परिणामों को भूल जाते हैं और यही भूल, पाशविक कृत्यों की जननी साबित होती है। शिक्षा का महत्व वास्तव में यहीं समझ आता है कि हमारे पास वो विचारशक्ति किस हद तक विकसित हुई है जिसके बल पर हम अपने आप की आवाज को बेहतर ढंग से सुन पायें। आहार, भय, मैथुन, परिग्रह, लालच ये कुछ ऐसी पाशविक प्रवृत्तियां हैं जो हर इंसान में उसी तरह समानांतर रूप से व्याप्त होती हैं जिस तरह से सत्य, दया, करुणा, त्याग, परोपकार आदि सद्भावनाएं निवास करती हैं। हमारी शिक्षा, संस्कार और वातावरण;  इन दो विपरीत भावों में से कौन सा हम पर हावी होगा और कौन-सा नहीं, इस बात का निर्धारण करती हैं पर अंतिम निर्णय हमारी अंतरात्मा को ही लेना होता है। या तो उस अंतस की आवाज को सुन लिया जाता है या फिर हम खुद के आँखो और कानों को बंद कर अपनी दुष्कृत प्रवृत्ति को अंजाम दे देते हैं।

बहरहाल, बात एक विज्ञापन से शुरु हुई थी और इस पूरे लेख ने एक दार्शनिक उपदेश का रूप ले लिया, जो मेरा उद्देश्य कतई नहीं था। लेकिन ये हक़ीकत है कि हमारी अंतरात्मा की पहली आवाज हमेशा सही होती है पर हम उसे अनसुना-अनदेखा कर वो कर जाते हैं जो हमें नहीं करना चाहिए। मानसिक ऊहापोह और अनर्गल बौद्धिक व्यायाम, सिर्फ हमारे संशय को बड़ा बनाता है किसी योग्य निर्णय तक नहीं पहुंचा पाता। वैसे ये विज्ञापन और इस जैसे कई दूसरे विज्ञापन, जिनमें इसी तरह दार्शनिकता का उत्तम पुट रहता है...हमारे दिमाग पे सीधे स्ट्राइक करते है। न सिर्फ उस उत्पाद को खरीदने के लिये, बल्कि हमें हमारी जिम्मेदारी का ज्ञान कराने के लिये भी..जिन जिम्मेदारियों से हम अक्सर ये कहकर मूँह मोड़ लेते हैं कि अरे! कोई नहीं देख रहा....पर जनाब हर वक्त, हर जगह मैं तो खुद को देख ही रहा हूँ न...और खुद से किये गये किसी भी छल से, आखिर मैं कब दोषमुक्त हो पाउंगा......

Monday, July 1, 2013

साक्षात्कार : डॉ. एन.पी. मिश्रा



आज डॉक्टर्स डे है...हमारी जिंदगी को स्वस्थ और मस्त बनाये रखने में इनका एक अहम् रोल है। आज के इस दिन के उपलक्ष्य में डॉक्टर्स की लाइफ के कुछ अनछुए पहलू जानने के लिये, मैंने डॉ. एन.पी.मिश्रा से बात की। चिकित्सा के क्षेत्र में डॉ. एन.पी. मिश्रा किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। इस क्षेत्र में अपनी सेवाएं प्रदान करते उन्होंने छः दशक का लंबा सफर तय किया है और आज भी वे इसी जीवटता के साथ अपनी सेवाएं प्रदान कर रहे हैं। अपने सामने उन्होंने डॉक्टर्स की लगभग तीन पीढ़ी तैयार होते देखी हैं इसी वजह से भोपाल शहर में उन्हें डॉक्टर्स के पितामह के रूप में जाना जाता है। डॉक्टर्स डे के इस अवसर पर इस विलक्षण हस्ती से, उनके करियर और चिकित्सा क्षेत्र के संबंध में खास बातचीत की...प्रस्तुत हैं इस वार्ता के खास अंश-


प्रश्न- आप अपने इस सफलतम लंबे करियर का श्रेय किसे देते हैं?
उत्तर-  लगन एवं कड़ी मेहनत, साथ ही अपने ध्येय के प्रति वफादारी और रोगी के प्रति सच्ची निष्ठा..यही वे चीजें हैं जिस कारण आज इस मुकाम तक पहुंच पाया हूँ। इसके अलावा इस व्यवसाय को चलाने के लिये परिवार का सहयोग भी अत्यंत आवश्यक है। परिवार में अगर आपसी समझ नहीं होगी तो हमारे व्यक्तिगत जीवन के साथ-साथ व्यवसायिक जीवन भी सही ढंग से नहीं चल सकता।

प्रश्न- अपने इस करियर के दौरान कब आपने सर्वाधिक चुनौती का अनुभव किया?
उत्तर- 3 दिसंबर 1984। भोपाल गैसकांड की वो काली रात जब मरीजों को एकसाथ संभालना और उन्हें समय पर सही ट्रीटमेंट पहुंचाना ज़रूरी था। उस दौरान में गांधी चिकित्सा महाविद्यालय में डीन हुआ करता था। उस रात का स्मरण करके मुझे आज भी विस्मय होता है कि हमने चंद घंटों में लगभग दो लाख मरीजों के उपचार एवं दवाओं का बंदोबस्त किया था। उस दौरान ही मुझे अपनी प्रतिष्ठा और कद का सही मायनों में पता चला जब समस्त दवा वितरकों ने मेरी एक आवाज पर बिना किसी शुल्क के दवाओं की अनवरत व्यवस्था की थी। इस तरह की आपदाओं में समय अति महत्वपूर्ण होता है। समय बीतने के बाद किये गये इंतजाम किसी मतलब के नहीं होते। हमें समय पर सारे बंदोबस्त करने थे और हम उसमें बहुत हद तक सफल भी हुए थे। इन दिनों उत्तराखंड में जो लचर रवैया देखने को मिला वो अति दुखद है।

प्रश्न- आपने अपने करियर के दौरान इस पेशे में किस तरह के बदलावों को महसूस किया है?
उत्तर- मैं सन् 1959 से इस क्षेत्र में हूँ। तब इक्का-दुक्का ही चिकित्सक हुआ करते थे। इसलिये चिकित्सक ही सर्वेसर्वा थे, उन्हीं की प्रधानता थी। आज रोगी की प्रधानता है, उसके पास कई विकल्प हैं और वो जागरुक भी है। पिछले 50 वर्षों में विज्ञान ने इतनी प्रगति की कि रोग के निदान के लिये मशीनें एवं परीक्षण उपलब्ध हो गये हैं इससे रोग का निश्चित निदान संभव हो सका है। पहले सबकुछ चिकित्सक की योग्यता व निर्णयक्षमता पर ही निर्भर था।

प्रश्न- आज आपके पढ़ाये हुए विद्यार्थी कई बड़े-बड़े पदों पर कार्यरत हैं ये सब देख आपको कैसा लगता है?
उत्तर- अच्छा लगता है, गर्व की अनुभूति होती है। वे सभी आज भी पहले की ही तरह पूरा सम्मान देते हैं। अपने विद्यार्थियों के द्वारा जब आपके द्वारा प्रदत्त कौशल को आगे बढ़ते देखते हैं तो प्रसन्नता होती है।

प्रश्न- आज इस उम्र में भी आप कितने घंटे काम करते हैं?
उत्तर- (हंसते हुए) उम्र दो प्रकार की होती है पहली अंकों की उम्र और दूसरी आपकी शारीरिक और मानसिक क्षमता। मेरे मस्तिष्क और शरीर की कार्यक्षमता जस की तस बनी हुई है और आज भी मैं पहले की तरह 13 से 14 घंटे काम करता हूँ। इसलिये मेरी उम्र लिखी भले हिन्दी में 82 साल जाती है, पर इसे ऊर्दू की तर्ज पे 28 पढ़ा जाय।

प्रश्न- आज की पीढ़ी के डॉक्टर्स के लिये आप क्या संदेश देना चाहेंगे?
उत्तर- इस व्यवसाय को चुनने के पहले अपनी मनःस्थिति को तैयार कर लेना चाहिये कि इस व्यवसाय में प्रवेश करने के बाद समय अपना नहीं रहता। मरीजों की परवाह किसी भी दूसरी चीज़ से बढ़कर है। पैसा और प्रतिष्ठा सहज प्राप्त होते हैं पर इसका ध्येय कभी नहीं होना चाहिये।

प्रश्न- अगर आपको अगला जन्म मिले तो आप क्या बनना चाहेंगे?
उत्तर- ये एक काल्पनिक बात है मैं इसपे विश्वास नहीं करता। हमें एक जीवन मिलता है और उसमें ही सबकुछ करना है। अगर अगला जन्म हुआ भी तो मुझे पहचानेगा कौन? (मुस्कुराते हुए)

प्रश्न- अंत में आप डॉक्टर्स डे किस तरह सेलीब्रेट करते हैँ?
उत्तर- (हल्की मुस्कुराहट के साथ) भला हम क्यों डॉक्टर्स डे सेलीब्रेट करें। ये दिन तो लोगों को डॉक्टर्स के सम्मान में सेलीब्रेट करना चाहिये और रही हमारी बात तो हम तो रोज की तरह अपना काम करते हुए ही इस दिन को बितायेंगे।

(ये साक्षात्कार प्रमुख हिन्दी दैनिक "पीपुल्स समाचार" के आज के अंक में डॉक्टर्स स्पेशल पूरक अंक पर प्रकाशित हुआ है)