Friday, August 30, 2013

हर किसी का अपना-अपना सच होता है फर्क इस बात से पड़ता है कि आप देख कहाँ से रहे हो : मद्रास कैफे

शुजीत सरकार द्वारा निर्देशित बेहतरीन डॉक्युड्रामा 'मद्रास कैफे' देखी..चारों तरफ इस क्रिटिकली अक्लैम्ड फिल्म के चर्चे हैं। निश्चित ही बेहतरीन सिनेमा है पर इसके ज़रिये बात दूसरी करना है। फिल्म का ये संवाद (पोस्ट के टाइटल में वर्णित) ही फिल्म की विषयवस्तु का सारतः परिचय दे देता है...और सही-गलत के निष्कर्ष दिये बगैर दर्शक की विचारणा हेतु एक विषय मुहैया कराता है। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी की हत्या की पृष्ठभूमि में निर्मित, ये सिनेमा अपने मूल कथ्य के परे भी काफी कुछ कहता है..और तेजी से बदलते फ्रेम दर फ्रेम अनेक सामाजिक अर्थों की परतें हमारे सामने तैरती रहती है..और हम स्तब्ध हो फिल्म को बिना पलकें झपकाये सिर्फ देखते रहते हैं।

एक एजेंट की भूमिका निभा रहे जॉन अब्राहम ने हमारी व्यवस्था के उन लोगों की मनोदशा का बखूब चित्रण किया है..जिन्हें सिर्फ उच्च प्रशासन के आदेशों का पालन करते हुए, सत्यासत्य का विचार किये बगैर सिर्फ अपनी ड्यूटी पूरी करना होता है..और अपनी इस ड्युटी के चलते जहाँ उन्हें अपनी व्यक्तिगत ज़िंदगी में कई समझौते करना होते हैं तो दूसरी ओर अपनी अंतर्रात्मा की आवाज का भी गला घोंटना होता है। फिल्म में अस्सी के दशक में घटित हुए श्रीलंकन और तमिल्स के उन कड़वे हालातों का फिल्मांकन हैं जिन्हें देख कभी मन में एक रोष पैदा होता है तो कभी आंखें नम भी होती हैं। लेकिन कहीं भी ये समझ नहीं आता कि असली गुनाहगार कौन है और किसका रास्ता सही है? आखिर फिर हमें यही निष्कर्ष निकालना होता है कि हर किसी का अपना-अपना सच होता है फर्क सिर्फ इस बात का है कि हम देख कहाँ से रहे हैं।

अपने-अपने पूर्वाग्रह और दुराग्रहों से पीड़ित इंसान ने अपने ही सिद्धांतों को पैदा कर लिया है..और हर चीज़ की अपनी ही अलग परिभाषा है..और सबके मुगालते यही हैं कि हम सही हैं। इस तरह से एक ही चीज़ को लेके कई सत्य खड़े हो गये हैं..और अब लड़ाई सच और झूठ की नहीं, बल्कि अलग-अलग कई सारे सत्य के बीच पैदा हो गई हैं। इन भिन्न-भिन्न सत्यों में चाहे जो भी जीते पर हार सिर्फ मानवता की होती है। नक्सलवाद-माओवाद, सरकार के लिये आंतरिक गड़बड़ी है पर उन लोगों के लिये ये पुंजीवाद के विरुद्ध संघर्ष है..इस्लामी आतंकवाद सरकार के लिये एक भयावह बीमारी है तो उनके लिये ये ज़ेहाद है। भूमिअधिग्रहण से मेट्रो के लिये सुपर कॉरिडोर बनाना या मॉल्स, फैक्ट्री, अपार्टमेंट विकसित करना..सरकार के लिये डेवलपमेंट है तो किसानों के लिये ये उनकी रोज़ी का छिनना है..खाद्य सुरक्षा अधिनियम में सवा लाख करोड़ का खर्च सरकार के लिये गरीबों की फ़िक्र है तो उद्योगपतियों और आम आदमी के लिये ये आर्थिक आपातकाल की पूर्वभूमिका है। आखिर इन सबमें सही क्या है...गोया कि हाथ पे लिखी एक ही संख्या को कोई छह पढ़ रहा है तो कोई नौ। दोनों ही अपनी-अपनी जगह खड़े हो सही फरमा रहे हैं।

तमिल माइनॉरिटी पे श्रीलंका में होने वाली नृशंस हत्याओं ने अन्ना राजशेखरन को पैदा किया...जिन हालातों में ऐसे बगावती लोग पैदा होते हैं गर उन हालातों पे समय रहते काबू पा लिया जाये तो न ही छत्तीसगढ़-बंगाल के नक्सली नेता पैदा होंगे और न ही चंबल के बागी डाकू..लेकिन प्रशासन की आँख तब खुलती है जब पानी, सिर के ऊपर से जाने लगता है। फिर हम रोग की जड़ का इलाज न कर, सिर्फ उस रोग के ऊपरी लक्षण की मरहम पट्टी करते रहते हैं..और उस मरहम के अंदर पड़ा वो घाव, जब गैंगरीन में परिणत हो जाता है तब उस हिस्से को अपने अंग से ही अलग करने की नौबत आ जाती है। ऐसे ही हालातों को ठीक करने के लिये जब तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने पहल की, तो उन्हें अपनी जान से हाथ गंवाना पड़ा। एलटीएफ प्रमुख राजशेखरन के लिये ये उस समय का सही फैसला हो सकता है लेकिन उसके लिये इस फैसले ने उन तमाम लोगों को एक लंबे संघर्ष को लिये मजबूर कर दिया, जिनके अधिकारों के लिये वो अपनी इस जंग को जारी रखे हुए था। जैसा कि फिल्म में दिखाया गया था कि राजीव गाँधी की उस हत्या के बाद से अब तक साठ हजार से ज्यादा लोग इस आपसी वैमनस्य में मारे जा चुके हैं और अब तक इस समस्या का कोई मजबूत समाधान नहीं हो पाया है। 

इस पूरे घटनाचक्र को समझने के लिये ये फिल्म देखना बेहद ज़रूरी है और इसे देखा जाना भी चाहिये...ऐसी फ़िल्में ये साबित करती हैं कि सिर्फ काल्पनिक फूहड़ मसाला ही मनोरंजन नहीं करता बल्कि तथ्यात्मक सार्थक कथ्य भी उत्कृष्ट कोटि का मनोरंजन करता है। जॉन अब्राहम, जोकि इस फ़िल्म के निर्माता हैं और शुजीत सरकार इसके लिये धन्यवाद के पात्र हैं..इन दोनों की जोड़ी ने इससे पहले भी 'विकी डोनर' जैसी नवीन विषयवस्तु पे बेहतरीन मनोरंजक फिल्म बनाई थी और इस बार लोगों के लिए मनोरंजन के कलेवर में सार्थक जायका प्रस्तुत किया। फिल्म का टैम्पो इतना तेज है कि एक दृश्य भी आँखों से ओझल न हो जाये, ये डर सताता रहता है..इस बेहतरीन पेस और टैम्पो के लिये फिल्म के सिनेमैटोग्राफर और विडियो एडीटर को श्रेय देना ज़रूरी है..जिसके चलते कम समय में विस्तृत कथ्य प्रस्तुत किया जा सका। फिल्म के सभी कलाकारों की उत्कृष्ट अदाकारी भी घटनाक्रम को सजीव बनाती है।

बहरहाल, बहुत कुछ नहीं कहना चाहुंगा..पर कम से कम हम से जुड़ी एक ऐतिहासिक घटना को समझने के लिये इस फिल्म को अवश्य देखना चाहिये। मेरे लिये तो ये फ़िल्म "चैन्नई एक्सप्रेस" के वाहियात सफ़र के बाद "मद्रास कैफे" की लाजवाब चुस्की की तरह थी....

Sunday, August 18, 2013

किसी दार्शनिक पुराण के पढ़ने का सा अनुभव- शिप ऑफ थीसिस

एक नितांत ऑफबीट फिल्म..जिसके प्रदर्शन पूर्व ही इसके निर्माता-निर्देशक ने इस बात की घोषणा कर दी थी कि ये सब के लिये नहीं है...बस इसलिये ही चुनिंदा जगहों पे सिलसिलेवार प्रदर्शित और वो भी बेहद कम प्रिंट और कम वक्त के लिये। हिंदुस्तान में प्रदर्शन से पूर्व कई अंतर्राष्ट्रीय मंचों पे सम्मानित..दिग्गज फिल्म विशेषज्ञों द्वारा प्रशंसित, जिसमें अनुराग कश्यप और करण जौहर जैसे निर्देशकों ने तो ये तक कह दिया कि 'इसे देखने के बाद लगता है कि हमें निर्देशन ही नहीं आता।' इतनी विशेषताएं बताके मैं अनायास ही इसकी महानता की गुणगाथा बयाँ नहीं कर रहा हूँ...और व्यवसायिक सिनेमा के प्रति हीनभाव भी प्रदर्शित नहीं कर रहा हूँ। दरअसल मैं ये कहना चाहता हूँ कि ये फिल्म जज़्बातों के इतने महीन रेशों से बुनी गई है कि मानसिक और बौद्धिक अंतर्द्वंदों की सैंकड़ों परतें फ्रेम दर फ्रेम उधड़ती जाती हैं..और फिल्म का अंत भी जाते-जाते एक यक्ष प्रश्न छोड़ जाता है..कि इस हाड़-माँस और तमाम अंग-प्रत्यंगों के अलावा भी इंसान का आखिर वजूद क्या है..हमारी इस भौतिक दायरे के परे क्या हस्ती है...हमारे अस्तित्व का वास्तविक परिचायक क्या है।

एक व्यक्ति से आठ लोगों का अंग-प्रत्यर्पण (organ transplant) कर उन्हें एक नया जीवन दिया जाता है। ये देख फिल्म की तीसरी कहानी में किडनी प्रत्यार्पित हुए व्यक्ति के दोस्त द्वारा ये पूछना.. कि इस तरह तो किसी एक व्यक्ति में सारे अंग प्रत्यर्पित कर, एक नये इंसान को बनाया जा सकता है? किडनी प्रत्यर्पित हुए शख्स का जवाब "नहीं यार, 'कुछ तो' पुराना ही रहता है, 'कुछ तो' बिना बदला ही रहता है"। ये 'कुछ तो' क्या है..बस इसकी तलाश में ही सारे धर्म-दर्शन का निर्माण हुआ है...और इसकी तलाश में ही इंसान बौद्धिक जुगाली के संसार से बाहर निकल अध्यात्म की परिधि में पहुँच जाता है। बात सिर्फ अंग-प्रत्यंगों की ही नहीं है बल्कि हमारे सारे विचार, हमारा आचरण और हमारे व्यवहार में अभिव्यक्त होने वाले हम भी, वस्तुतः हम नहीं है...ठीक उस तरह जैसे कि प्याज को परत दर परत उधड़ते हुए अंततः हमारे हाथ कुछ नहीं आता..बस एक महक रह जाती है। उसी तरह इंसान के भी व्यक्तित्व के पोस्टमार्टम करते हुए निरंतर नये-नये रूपों से परिचित होते हुए अंततः हमारे हाथ कुछ नहीं आता..बस एक अदृश्य-अबोध छवि रह जाती है..और चुंकि वो अदृश्य है इसलिये आधुनिक विज्ञान अब तक उसकी हस्ती से इंकार करता आ रहा है क्योंकि विज्ञान, सिर्फ इंद्रियग्राह्य प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानता है। 

ये फिल्म कोई समाधान या निष्कर्ष देती हो ऐसा नहीं है..ये तो महज हमें सोचने पे मजबूर करने वाले कुछ सवाल देती है..और वास्तव में जबाव नहीं, सवाल ही खोजे जाते है। सवाल के मिलने पे हम अपनी-अपनी रुचि और पुरुषार्थ के अनुसार अपने-अपने जबाव सहज ही पा लेते हैं। फिल्म में तीन कहानियां है..वे तीनों एक चीज़ से आपस में जुड़ी हैं जोकि अंत में हमारे सामने आता है। तीनों ही कथाएं अपने-अपने कई कथ्य मुहैया कराती हैं..किंतु तीनों अंत में जाके एक ही कथ्य में जाके ख़त्म होती हैं। इन तमाम कथ्यों में गर्भित संदेश इतना महीन हैं कि उसे एक बार में समझ सकना बेहद अशक्य है और हम जो भी समझते हैं उसमें बहुत कुछ हम अपने पूर्वाग्रह और समझक्षमता के अनुसार ही समझ पाते हैं..निर्देशक के भाव को एकबार में समझ पाना तो नामुमकिन सरीका ही है। इसे देखने के बाद मुझे प्रसिद्ध जापानी निर्देशक अकीरा कुरोसावा की वो उक्ति याद आई, जो उन्होंने सत्यजीत रे के संबंध में कहीं थी कि 'रे की फिल्मों को समझने के लिये कहीं से दूसरा दिमाग लाना पड़ेगा'। कुछ ऐसा ही शिप ऑफ थीसिस के साथ हैं।

तीनों कहानियां भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों को वर्णित करती हैं जिनमें पहली, जिसमें कि एक अंधी लड़की जिसे फोटोग्राफी का ख़ासा शौक है..उस लड़की के ज़रिये मानसिक आंखों से महसूस की जा सकने वाली दृश्यता से मनुष्य की अप्रतिम दृश्यक्षमता और कल्पनाशक्ति को प्रस्तुत किया है जोकि यथार्थ की इन उपलब्ध आँखों से कई गुना विशाल और सुंदर है..और हम अपनी उस अदृश्य चैतन्य शक्ति को इन चर्मचक्षुओं के चलते इग्नोर कर देते हैं। उस अँधी फोटोग्राफर और उसके पति के बीच एक फोटो को लेकर प्रस्तुत बहस कमाल की दर्शाई गई हैं..जो इन मानसिक और भौतिक चक्षुओं के मध्य व्याप्त अंतर्द्वंदों को शानदार ढंग से दिखाती भी है। दूसरी कहानी में अपने सिद्धांतों की दृढ़ता के चलते, अपने प्राणों को भी तुच्छ समझने वाले एक साधू की कहानी है जो अपने सिद्धांतों के विश्वास और अपनी दैहिक वेदना के चक्र में फंसा है। अपनी दैहिक वेदना को सहने का कारण किसी अवर्णित लक्ष्य की प्राप्ति करना उस साधू का उद्देश्य है किंतु मृत्यु के अत्यंत निकट आने पे भी उस लक्ष्य का अंश भी उसे हासिल नहीं होता और अंततः हारके अपने सिद्धांतों से समझौता करना उसे स्वीकार करना होता है। तो तीसरी कहानी मानवता के उन प्रयासों को बयां करती है जिसमें व्यक्ति के त्याग-समर्पण-सहयोग जैसी दैवीय भावनाओं से, 'आखिर उसे हासिल क्या होता है' के अहम् प्रश्नों का समाधान करने का प्रयास है। जहाँ एक व्यक्ति खुद को धोखे द्वारा ट्रांस्प्लांट से मिली किडनी भी महज मानवता के लिये लौटाने की बात करता है...और किसी की मदद के लिये अपनी तमाम सुख-सुविधाओं का उपभोग छोड़ दर-दर भटकने पे भी अंत में अभीष्ट की सिद्धि न होने पे निराश हो कहता है कि 'वो कुछ न कर सका'। जिसपे उसकी नानी का कहना कि 'जो कुछ भी किया..बस उसने ही किया, और बस इतना ही होता है..महान् प्रयासों के बाबजूद भी सब कुछ कभी भी हासिल नहीं होता'। इंसान की मानवता के इन कतरा-कतरा सहेज के किये जाने वाले प्रयासों की सार्थकता साबित करती है।

जितना मैं कह रहा हूं वो बहुत थोड़ा है। इसे देखने पे जितने भाव उमड़ते हैं और देखके आने के लंबे समय बाद भी, हम इस फिल्म को जिस भांति अनुभूत करते हैं उसे ज़रा भी बयाँ कर सकना मुमकिन नहीं है। इसी वजह से किसी दार्शनिक पुराण के पढ़ने जैसी अनुभूति होती है जिसमें क्लिष्टता भी है और आनंद भी। इसके अलावा एक फिल्म के अन्य पक्षों की दृष्टि से गर इसे देखें..तो एक्टिंग, सिनेमेटोग्राफी, निर्देशन सब अव्वल दर्जे का है। और एक बारगी तो इस फिल्म की कहानियाँ ऐसी प्रतीत होती हैं मानो कि सच्ची घटनाओं की कोई डॉक्युमेंट्री देख रहे हों। 

सिनेमा के लिये हिन्दी सिनेमा के जनक दादासाहेब फाल्के की उक्ति भी कहना चाहुंगा कि 'यद्यपि सिनेमा मनोरंजन का प्रमुख माध्यम हैं किंतु इसका उपयोग ज्ञानवर्धन और विचारणा के लिये भी सशक्तता से किया जा सकता है'। ये फिल्म उनकी इस उक्ति को भलीभांति सही साबित करती है। निश्चित ही मनोरंजन गौण है किंतु विचारने के लिये उपलब्ध कराने वाला कथ्य असंख्य है। इसलिये इस सिनेमा को देखने का नहीं पढ़ने का प्रयत्न करें....

Thursday, August 15, 2013

भ्रम का आभामण्डल, मिथ्या अहंकार और अंधी आत्ममुग्धता

पिछले दिनों नॉरसिज्म पे एक लेख पड़ा..नॉरसिस्ट शब्द जो कि एक ग्रीक कथा पे आधारित है जिसके तहत एक नॉरसिस्ट नाम का इंसान अपनी छवि को देखने में इस कदर मोहित होता है कि अपनी छवि को निहारते-निहारते वो एक झील में गिरकर मौत का शिकार हो जाता है..तब ही से आत्ममुग्ध व्यक्ति या अपनी छवि पे मोहित इंसान नॉरसिस्ट के रूप में जाना जाने लगा। 

दरअसल, हम सब किसी न किसी तरह इस नॉरसिज्म के भयावह रोग से ग्रस्त हैं..और अपना सारा जीवन एक ऐसे आभामण्डल के निर्माण में गुजार देते हैं जिसकी रोशनी के तले हम हमेशा चमकदार नज़र आते रहे। अपने इस आभामण्डल की रचना में हम वे सारे प्रयास करते हैं जो हमारे वश में होते हैं। हमारी शिक्षा-दीक्षा, हमारी पद-प्रतिष्ठा, हमारे रिश्ते-नाते, रहन-सहन, खान-पान, उत्सव आदि तमाम चीजें सिर्फ और सिर्फ अपने आभामण्डल की रोशनी को अति चमक प्रदान करने के जतन मात्र होते हैं...और अगर इन तमाम प्रयत्नों के बाबजूद यदि ऐसे आभामण्डल की रचना में हम नाकाम होते हैं तो झूठ-फरेब, छल-कपट, लाग-लपेट या अपने बड़बोलेपन से एक भ्रम के आभामण्डल को अधिक कीर्ति प्रदान करने के जतन करते हैं। यदि इतना करने पे भी हम हमारे वाञ्छित लक्ष्य को हासिल नहीं कर पाते..तो हमें अपने आगोश में लेता है- अवसाद...और जीवन उद्देश्यरहित और बोझिल जान पड़ता है। इस तरह तनाव से शुरू हुई प्रक्रिया अंत में तनाव पे आके ही विराम पाती है। जीवन में हर किसी को अपने आभामण्डल के टूटने का दंश सहना पड़ता है..और जितना बड़ा इस आभामण्ल का रूप होगा, उतना ही गहरा इसके टूटने से पैदा होने वाला अवसाद होगा।

जैनदर्शन की वीतरागता, गीता की स्थितप्रज्ञ की संकल्पना या ओशो की संबुद्धि..यूँ तो एक-दूसरे से काफी विरुद्धात्मकता को लिये हुए हैं..किंतु तीनों ही एक बात की सर्वसामान्य ढंग से पुष्टि करते हैं...वो है अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितियों में समता भाव का होना। लेकिन यही साम्यभाव व्यक्ति अपने जीवनकाल में हासिल नहीं कर पाता। तनिक सी उत्तम परिस्थितियां उसे अहंकार के आगोश में इतना ऊपर उठा देती हैं कि वो अपने यथार्थ से कोसों दूर चला जाता है..और तनिक सी विषम परिस्थितियाँ उसे इस कदर खेद-खिन्नता से भर देती हैं कि वो अपने प्राणांत करने से भी नहीं हिचकता। प्रसिद्ध विद्वान डॉ हुकुमचंद भारिल्ल के शब्दों में बात कहूँ तो- निंदा की गर्म हवाओं से इसे क्रोध की लू लग जाती है और प्रशंसा की ठंडी हवाओं से इसे अभिमान का जुकाम हो जाता है। इन दोनों ही परिस्थितियों में स्वस्थ का तो ह्रास होता ही होता है।

निश्चित तौर पे स्वयं से हमें प्रेम करना चाहिये..किंतु उस प्रेम का ग्राफ इस कदर अंधता ग्रसित न हो जाए कि हमें हमारे आसपास किसी चीज़ की हस्ती नज़र आना ही बंद हो जाये। आत्मविश्वास और अहंकार में एक बाल बराबर का ही फर्क होता है..अपनी आत्मिक हस्ती की स्वीकृति या अपने वास्तविक आत्मबल की पहचान से आत्मविश्वास पैदा होता है..इसके अलावा अन्य बाहरी किसी भी आडंबर की प्राप्ति सिर्फ अहंकार को जन्म देती है। चाहे वो रुपया-पैसा हों, चाहे रूप-लावण्य हो या फिर पद-प्रतिष्ठा..इन तमाम चीज़ों की उपलब्धि में हमें ये बात नहीं भूलना चाहिए कि इनसे निर्मित आभामण्डल चाहे कितना भी चमकदार क्यों न हो..पर वो निश्चित ही नष्ट होगा और उसमें अवश्यंभावी परिवर्तन होगा। किंतु यही परिवर्तनीय, जड़ और तुच्छ पदार्थ एक भ्रम का आभामण्डल, मिथ्या अहंकार और अंधी आत्ममुग्धता को जन्म देते हैं।

मान-प्रतिष्ठा को इस कदर तवज्जों दे दी गई है कि उसके समक्ष तमाम संस्कार, मर्यादाएं, चारित्रिक उज्जवलता किसी गर्त में फेंक दिये गये हैं..और आज मान-प्रतिष्ठा का पैमाना भी सिर्फ पैसे पर केन्द्रित हो गया है। इस चकाचौंध संयुत वातावरण में मानवीयता की बात ही दुर्लभ है तो फिर दैवीयता की बात कैसे की जा सकती है? जब से हमने प्रतिष्ठा को बाजारू बना दिया है बस तभी से इस अमूल्य वस्तु का मोल बड़ा तुच्छ हो गया है..क्योंकि तुच्छ वस्तुओं के ही भाव बड़ते हैं..महान् चीज़ें तो प्रायः अमूल्य ही होती हैं। आज इंसान बड़ा आदमी कहलाना पसंद करता है..बजाय कि भला आदमी कहलाने के। इस संपत्ति कृत अंधी आत्ममुग्धता के चलते इंसान ये बात भूल गया है कि "हमें सिर्फ अपने चरित्र की रक्षा करनी चाहिये..उस चरित्र के प्रताप से पैदा प्रतिष्ठा हमारी रक्षा अपनेआप कर लेती है।" 

कितना कुछ कहा जा रहा है, कितने आयोजन-नियोजन किये जा रहे हैं, रिश्तों के हजारों लिबास हम ओड़ते जा रहे हैं, बुद्धि और मन के अंतर्द्वंद से निरंतर काफी कुछ निकलकर बाहर आ रहा है..लेकिन ये सारी चीज़ें मिलके सिर्फ उस भ्रम के आभामण्डल को आकार देने में ही व्यस्त हैं। लोग स्वयं अपने दुर्भावों और दुराचारों से अगर परेशान भी हैं तब भी वे अपने उस आभामण्डल को चमकदार साबित करने के जतन में ही लगे हुए हैं..उनकी अंधी आत्ममुग्धता उन्हें उनका ही यथार्थ नहीं देखने देती। ऐसा लगता है इस चमक-दमक के युग में सिर्फ लोगों के ज़िस्म की बाहरी दीवारों पे डिस्टेंपर पोत दिया गया है..रूह की अंदरूनी दीवारों की परतें या तो उधड़ चुकी हैं या फिर उनपे दीमक लग गई है। हाथी के सिर्फ 'दिखाने वाले दाँतों' की ही सत्ता स्वीकृत है उसके 'चबाने वाले दांतों' की हस्ती से ही इंकार कर दिया गया है...और सभी उन 'दिखाने वाले दाँतों' को ही चमकदार बनाने के जतन में लगे हैं। इसलिये सब दिखाबटी और नकली हो गया है।

बहरहाल, ये कोरी दार्शनिक बातें नहीं हैं...ये एक यक्ष प्रश्न है हमारा आत्ममूल्यांकन करने के लिये। मैनें ये सब बातें कही हैं इसका मतलब ये नहीं कि मैं इस भ्रमित, मिथ्या यथार्थ से ऊपर उठ गया हूँ। मेरे जीवन के कई पहलू भी शायद ऐसे ही आभामण्ल और अहंकार से युक्त हैं और इस वजह से मुझमें भी ऐसी ही आत्ममुग्धता है। किंतु अपने इस भ्रमित आभामण्डल से परे उठके अपनी वास्तविक पहचान को पाने की दिली तमन्ना है...भले किसी के लिये ये महज़ कोरी फिलोसफिकल बातें हों पर मेरे लिये ये बातें बहुत मायने रखती हैं...इसलिये अपनी तमाम क्रियाओं के बीच ऐसी खोज भी ज़ारी है। आपकी इस विषय में अपनी पृथक विचारप्रणाली हो सकती है और उससे मुझे कुछ ऐतराज भी नहीं है........

Sunday, August 11, 2013

दो विरुद्ध ध्रुवों का बेतुका मिलन : चेन्नई एक्सप्रेस

शाहरुख़ खान अभिनीत एवं रोहित शेट्टी निर्देशित बहुप्रतिक्षित फिल्म 'चेन्नई एक्सप्रेस' इस हफ्ते प्रदर्शित हुई। हालांकि किसी तरह की समीक्षा करने लायक इस फिल्म को मैं नहीं समझता लेकिन इन दिनों कई बड़े समीक्षकों तथा आला मीडिया हाउसेस द्वारा इस सामान्य सी फ़िल्म का जिस तरह से महिमामंडन किया जा रहा है वो समझ से बाहर है और यही वजह है कि इसपे कुछ कहने का मन कर रहा है।

बहरहाल, बात करते हैं कि कैसें ये दो विरुद्ध ध्रुवों की फिल्म हैं...रोहित शेट्टी और शाहरुख ख़ान। दोनों ही अलग रचनात्मकता, भिन्न प्रकृति और भिन्न छवि वाले व्यक्ति हैं। यदि हर कोई अपनी सीमाओं में रहकर ही प्रयोगवादी रहे तो वो निरंतर नवीन सृजन जनसमुदाय को दे सकता है पर जब कभी भी उन सीमाओं से बाहर आके पैर पसारने की कोशिश की जाती है तो कुछ उच्च दर्जे के डिब्बों का निर्माण हो जाता है और ऐसे डिब्बों का निर्माण संजय लीला भंसाली ने 'सांवरिया' के रूप में, आशुतोष गोवारीकर ने 'व्हाट्स योर राशि' के रूप में और रामगोपाल वर्मा ने उनकी बहुअपेक्षित 'आग' के रूप में किया है। ये सभी महान् निर्देशक हैं पर जब भी ये अपनी सीमाओं से बाहर आके अति महत्वाकांक्षी हुए, बस तभी खेल बिगड़ गया। हालांकि फिल्म इंडस्ट्री में ऐसे भी नाम है जो अपनी छवि से बाहर निकलकर असीम आकाश की यात्रा करते हैं..जैसे राजकपूर, विमल रॉय और वर्तमान के निर्देशकों में राजकुमार संतोषी तथा अभिनेताओं में अमिताभ बच्चन और आमिर खान। पर असीम आकाश में भी इन्होंने अपने दायरों के पंखों का बखूब लिहाज रखा।

रोहित शेट्टी और शाहरुख ख़ान..दोनों ही अपनी आकांक्षाओं के चलते उत्कृष्टता के सोपानों पे कदम रखना चाहते हैं और दोनों ही अपनी इस हसरत को निश्चित ही पूरा कर लेंगे। गोयाकि चैन्नई एक्सप्रेस व्यवसायिक ज़मीन पे सफल तो ज़रूर होगी पर सार्थकता की उम्मीद करने वाला दर्शक इससे खुद को ठगा हुआ ही महसूस करेगा। 

रोहित शेट्टी की पिछली पाँच फ़िल्में (गोलमाल रिटर्न, ऑल द बेस्ट, गोलमाल-3, सिंघम, बोल-बच्चन) सौ करोड़ के मायावी क्लब में शामिल होने वाली फिल्म रही हैं..और शाहरुख रॉ वन और जब तक है जान में अपने हाथ जलाये बैठे हैं लेकिन इन दो फ़िल्मों से शाहरुख के सितारा सिंहासन को कोई आंच नहीं आती। शाहरुख को एक अदद व्यवसायिक सफलता चाहिए और रोहित शेट्टी को शाहरुख जैसे बड़े नाम के साथ खुद का नाम जोड़ना है क्योंकि फ़िल्म इंडस्ट्री में अपने ग्लैमर को बनाये रखने के लिए और उसे ऊंचा करने के लिये कुछ सितारों की छाया हासिल होना बहुत ज़रुरी है, शाहरुख एक ऐसे ही सितारे हैं। दोनों ध्रुवों की अपनी-अपनी ज़रुरतें और जहाँ भी ज़रुरतें होती हैं वहां समझौता होना लाजमी है..और उसी समझौते का परिणाम है चैन्नई एक्सप्रेस।

शाहरुख का दायरा चोपड़ा और जौहर कैंप का रोमांटिज्म है..वहीं शेट्टी की महारत एक्शन और कॉमेडी के विशुद्ध तड़के हैं। एक्शन और रोहितनुमा कॉमेडी शाहरुख की छवि के प्रतिकूल हैं और ये उनके दायरे के बाहर भी हैं यदि वे ऐसा करने की कोशिश करेंगे तो नितांत बेहुदे लगेंगे और इस फ़िल्म में लगे भी हैं। मसलन ट्रेन के दृश्यों में राक्षसनुमा गुंडों के समक्ष शाहरुख की अतिरेक पूर्ण प्रस्तुति इरिटेट करती हैं वहीं फिल्म के क्लाईमेक्स में उनका अपने से चौगुने डील-डोल वाले विलेन्स से लड़ना हजम नहीं होता। हीरो का चित्रण ऐसा हो कि उसमें दर्शक सहज ही किसी दैवीय शक्ति की कल्पना कर सकें, तो फिर संभावना के बाहर के दृश्यों को झेला जा सकता है जैसा कि 'दबंग' में सलमान को देख और 'सिंघम' में अजय देवगन को देख लगता है..पर शाहरुख को देख ऐसी फीलिंग किंचित मात्र भी नहीं आती..और जब यथार्थ को अनुभूत कराने में सिनेमा असफल हो जाता है तो वह अपने उद्देश्यों से भटक जाता है। इसी तरह रोहित ने शाहरुख की छवि को बनाये रखने के लिए अपने दायरे से बाहर निकल रोमांटिज्म को अपनी फिल्म में शामिल करना चाहा...पर यहाँ भी हम रोमांस की उस अनुभूति को महसूस नहीं कर पाते जैसा कि शाहरुख की 'डीडीएलजे', 'मोहब्बतें', 'कुछ-कुछ होता है', 'वीरजारा' टाइप की फ़िल्मों में महसूस करते हैं। इस तरह इन दोनों ध्रुवों के इस कॉकटेल का स्वाद जरा भी सुकून देने वाला नहीं लगता।

टेलीविज़न पे प्रसारित कॉमेडी सर्कस से चुराए गए संवाद, हास्य पैदा करने के लिये निर्मित घिसी-पिटी परिस्थितियां, लचर संवेदनाएँ, हजम न हो सकने वाला एक्शन और आदर्श की सतही ढंग से स्थापना करने का प्रयास..ये तमाम चीज़ें इस फ़िल्म में हैं और ये इन दोनों निर्देशक-कलाकार को उनके स्तर से नीचे लाने के लिये काफी है। गर इसके बावजूद आला समीक्षक और मीडिया हाउसेस इस फ़िल्म की तारीफों के कसीदे गढ़ रहे हैं तो उनकी निष्पक्षता पे संदेह होता है। 

रोहित की ये फ़िल्म भी निश्चित ही सौ करोड़ के क्लब में शामिल हो जाएगी..पर ये एक सिनेमाई पैकेज से पूरी तरह रहित औसत से भी नीचे की फ़िल्म हैं। अगर ये कमाई कर पा रही है तो उसका कारण इससे जुड़े बड़े नाम हैं...अन्यथा मैंने इससे भी बेहतर कई गुमनाम निर्देशकों की छोटे बजट की फ़िल्में देखी हैं जो बॉक्स ऑफिस पे असफल मानी गई हैं। 

खैर, इसके अलावा यदि बात करें..तो विशाल-शेखर का संगीत उत्तम दर्जे का है और कुछ गाने सुकून देने वाले हैं बैकग्राउंड स्कोर भी अच्छा है। लोकेशंस कमाल की कही जा सकती हैं और उन्हें परदे पे देख वहां जाने को दिल करता है..एक्टिंग के मामले में सिर्फ दीपिका पादुकोण की तारीफ की जा सकती है..जिन्होंने अपनी अभिनय क्षमता में यकीनन एक स्टार जोड़ा है। कुछ दृश्यों में सिनेमेटोग्राफी बढ़िया हैं पर कुछ जगह एक औसत फ़िल्म की तरह शॉट्स लिये गये हैं। इन तमाम चीज़ो के अतिरिक्त ये एक चलताऊ और उबाऊ फ़िल्म हैं जो लोग इसे देख वाकई में खूब हंस रहे हैं उन्हें अपने कॉमिक सेंस की समीक्षा करना चाहिये।

हमने पूरे तीन घंटे तक महंगी टिकट लिये जाने के चलते खुद को इस फिल्म से प्रताड़ित किया..इन तीन घंटों में कुछ अच्छा देखने को मिला तो वो था 'कृश' और 'सत्याग्रह' का ट्रेलर। उम्मीद है ये दोनों फ़िल्में अपने भव्यता के आभामण्डल से हमें ठगेंगी नहीं..जैसाकि चैन्नई एक्सप्रेस ने किया।

Tuesday, August 6, 2013

जब तोप मुक़ाबिल हो तो अखबार निकालो

आगामी 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर पीपुल्स समाचार के विशेष अंक हेतु स्वतंत्रता संग्राम में पत्रकारिता की भूमिका विषय पे मैनें आलेख तैयार किया है जो आप सबके समक्ष प्रस्तुत है-


वो देश की दासता का युग था। ब्रिटिश हुकुमत से लोहा लेने के लिये कहीं उदारवादी गुहार लगा रहे थे तो कहीं उग्रवादी खूनी संघर्ष कर रहे थे। सबकी ज़रूरत सिर्फ और सिर्फ आजादी थी और उसे किसी भी हाल में हासिल करने का एकमात्र उद्देश्य लोगों के ज़हन में था। बंदूक, तलवार, तोपें और तमाम बड़े-बड़े हथियारों से क्रांतिकारी स्वतंत्रता की जंग लड़ रहे थे किंतु क्रांति का हर प्रयास सिर्फ निराशा को ही देने वाला था और इसका परिणाम था 1857 की क्रांति की विफलता। बस इसी दौर में हथियारों से परे आजादी की अलख जगाने का जिम्मा कलमकारों ने अपने हिस्से लिया और कलम की ताकत कुछ ऐसी चमकी..कि मशहूर शायर अकबर इलाहबादी को कहना पड़ा- खींचों न कमानों को न तलवार निकालो, जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो

अब ब्रिटिश हुकुमत से देश को आजाद कराने का काम अहिंसावादी आंदोलनकारियों और क्रांतिकारियों के अलावा कवि, साहित्यकारों और पत्रकारों की नयी जमात के पास भी आ गया। ऐसा नहीं है कि 1857 से पहले देश के ख़बरनवीसों ने कलम की इस ताकत का इस्तेमाल नहीं किया था। राजाराममोहन रॉय, जुगलकिशोर शुक्ल, बंकिमचंद्र चटर्जी, राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द जैसे दिग्गज कलमकारों ने पत्र-पत्रिकाओं को जनजागरण का अहम् हथियार बनाया था किंतु इन तमाम पुरोधाओं का मुख्य ज़ोर समाज में व्याप्त विसंगतियों को दूर करना ही था और अखबार महज़ सुधारवादी भूमिका में ही नज़र आ रहे थे। लेकिन 1857 के बाद अखबार महज़ सुधारवादी न रहकर क्रांति की अलख जगाने वाले अहम् शंख बन गये। सारे देश को एक सूत्र में पिरोकर, जनजागरण के महत्वपूर्ण अस्त्र का रूप पत्र-पत्रिकाओं ने ले लिया। तत्कालीन पत्रकारों ने अपनी जान को दांव पे लगाकर संपूर्ण देशवासियों में आजादी की जिजीविषा को जागृत किया। तत्कालीन पत्रकारों के इस अमिट योगदान को बयाँ करने के लिये महान् कवियत्री महादेवी वर्मा को कहना पड़ा पत्रकारों के पैरों के छालों से आज का इतिहास लिखा जाएगा

स्वाधीनता संग्राम का अर्थ राजनीतिक क्षेत्रों में विदेशी साम्राज्य से मात्र सशक्त टक्कर लेना ही नहीं था बल्कि जनसाधारण को इस संग्राम के लिए प्रेरित करना भी था और इसी अहम् कार्य को अंजाम दिया पत्रकारिता ने। पत्रकारों ने अपनी कलम के बल पर ऐसा माहौल तैयार किया कि सारा देश एक होकर अंग्रेजी सरकार के शोषण अन्याय और दमकारी नीतियों का विरोध करने के लिए एक साथ खड़ा हो गया। अखबार की ताकत का अंदाजा जब स्वतंत्रतासेनानियों को हुआ तो सारे देश में एक ऐसी लहर पैदा हो गयी कि हर कोने से समाचार पत्र व पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरू हो गया। किसी संकट की परवाह  किए बिना आजादी प्रेमियों ने हिन्दी-अंग्रेजी और भाषायी समाचार पत्रों का प्रकाशन एक मिशन के रूप में शुरू किया। अंग्रेजों की कठोर नीतियों व धन के अभाव के कारण पत्र बन्द भी होते रहे लेकिन नए पत्रों का प्रकाशन नहीं रूका।

हिन्दी और अन्य देशी भाषाओं में प्रकाशित होने वाले समाचार पत्रों ने सम्पूर्ण देश को एक सूत्र में बांधने का कार्य किया। इसकी शुरूआत उदन्त मार्तडसे मानी जाती है जोकि 30 मई 1826 को कलकत्ता के कोलूकोल्हा मोहल्ले से पं. युगल किशोर शुक्ल के संपादन में प्रारम्भ हुआ, ये साप्ताहिक पत्र वर्ष भर ही चल पाया और इसका अन्तिम अंक 4 दिसम्बर 1827 को प्रकाशित हुआ वहीं राजा राममोहन राय ने जनता की दुर्दशा और संकटों को जनता की भाषा में अभिव्यक्त करने के लिए 10 मई 1829 को कलकत्ता से हिन्दू हेराल्डका प्रकाशन शुरू किया जिसके बंगदूतनाम से बंगला, हिन्दी और फारसी में तीन संस्करण अलग से प्रकाशित होते थे लेकिन यह अखबार भी शीघ्र ही बंद हो गया 28 जनवरी 1830 को संवाद प्रभाकरपत्र का प्रकाशन शुरू हुआ इस पत्र ने बंकिम चंद चटर्जी जैसे लेखक को स्थापित करने में अहम् भूमिका निभाई। इस पत्र द्वारा ईस्ट इण्डिया कम्पनी का जमकर विरोध किया गया। इसी क्रम में राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द की मदद से गोविन्द रघुनाथ धत्ते ने 1845 में बनारस अखबार’, प्रेम नारायण ने इंदौर से 6 मार्च 1848 को मालवा अखबार’, 1850 में तारामोहन मैत्रोय ने काशी से सुधाकर पत्र’, 1852 में बुद्धि-प्रकाश, सुधावर्षण, धर्मप्रकाश, प्रजाहित, ज्ञान प्रकाश आदि पत्र प्रकाशित हुए। 

इसी बीच हिन्दी-उर्दू अखबारका प्रकाशन शुरू हुआ इसने अंग्रेजी हुकूमत के विरोध के लिए सीधे-सीधे माहौल तैयार किया। इन अखबारों ने अंग्रेजी हुकूमत की नाक में इस कदर दम किया कि दण्ड रूप में इसके संपादक मौलाना अब्दुल को तोप से बांध कर उड़ा दिया गया। अंग्रेजों के इस अमानवीय व्यवहार ने संपादकों में नए जोश का संचार किया। 1857 में पयामे आजादीका प्रकाशन शुरू हुआ इस अखबार ने प्रथम स्वतंत्राता संग्राम में अहम् भूमिका अदा की इसीलिए इसे जंग-ए- आजादी का अखबार भी कहा जाता है। पयामे आजादी के अंक में स्वतंत्राता संग्राम की अगवानी करने वाले मुगल सम्राट बहादुर शाहजफर के फरमान व आजादी का झण्डा गीत प्रकाशित करने को जुर्म करार देते हुए संपादक को फांसी पर लटका दिया गया। पयामे आजादी का प्रभाव कुछ ऐसा था कि इसकी प्रति किसी के पास मिलने पे उसे गोली मारने का फरमान जारी किया गया था।

ब्रिटिश सरकार, कलम की तेजधार व क्रान्तिकारी संपादकों के तेवरों को अच्छी तरह समझ गई थी। वह 1857 की क्रांति में अखबारों की भूमिका से भी परिचित थी। सरकार जानती थी कि आने वाले समय में अखबार खतरा साबित हो सकते है विशेषकर हिन्दी व क्षेत्रीय अखबार इन पर दबाव बनाने के लिए 1878 में वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट बनाया गया। इस एक्ट के तहत संपादकों पर भारी जुर्माने व जेल भेजने की कार्यवाही ने जोर पकड़ा। लेकिन उसी रफ़्तार से पत्रकारों व अखबारों की संख्या में भी वृद्धि होती चली गई। 1881 में विष्णुशास्त्री चिपलूंकर व बाल गंगाधर तिलक ने केसरीमराठाका प्रकाशन शुरू किया। कहते हैं कि मराठा उकसाने वाला अखबार था और केसरी समझाने वाला। 1884 में हरिशचन्द्रिका, स्वराज्य प्रकाशित हुए तथा मदन मोहन मालवीय के संपादन में 1885 में हिन्दोस्थानप्रकाशित किया गया। तब पत्र पत्रिकाओं का प्रकाशन व संपादन करना कांटों की सेंज से कम नहीं था। प्रेस आज की तरह ग्लैमर से भरपूर नहीं थी बल्कि ये एक तरह का खतरों का ताज सरीकी थी। स्वराज्यके संपादक पद के लिए छपा यह विज्ञापन इस बात को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है-
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चाहिए स्वराज्य के लिए एक संपादक। वेतन-दो सूखी रोटियां, एक गिलास ठंडा पानी और प्रत्येक संपादकीय के लिए दस साल जेल और विशेष अवसर पे अपना सिर कटाने के लिये तैयार, योग्य कलमकार’’
 
सरस्वती, अभ्युदय, प्रभा, हिन्द केसरी, नृसिंह, विश्वमित्र ने राष्ट्रीयता का प्रसार तथा तात्कालिक आंदोलनों को गति देने का कार्य किया। 9 नवम्बर 1913 को कानपुर से प्रतापसाप्ताहिक की शुरूआत हुई, ‘प्रताप अखबार ने जहां हिन्दी को माखनलाल चतुवेर्दी, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, बाल कृष्ण शर्मा नवीन, कृष्ण पालीवाल जैसे दर्जन भर प्रथम कोटी के पत्रकार दिए, वहीं भगतसिंह जैसे क्रान्तिकारी ने प्रताप से जुड़कर पत्राकारिता की वर्णमाला सीखी। प्रेमचन्द्र को हिन्दी में लिखने, वृंदावनलाल वर्मा, भगवती चरण वर्मा आदि को निखारने व मंच प्रदान करने का काम भी गणेश शंकर विद्यार्थी व उनके समाचार पत्र प्रताप ने किया। 6 नवम्बर मेंकर्मवीरके संपादकीय में माखन लाल चतुवेर्दी ने लिखा आजादी कितना मीठा शब्द है, पर यह शब्द अपने आप में मीठा नहीं, इसमें मिठास लाती है कुर्बानी, इसमें मिठास लाता है बलिदान, पर यह बलिदान औरों का न हो...उनका हो जो आजादी चाहें।’’ इस तरह के जुनूनी संवाद और शब्दों से लोगों के अंदर एक नवीन संचार करने का काम समाचार पत्रों ने किया और स्वतंत्रता संग्राम को किसी क्षेत्र विशेष तक सीमित न रहने देकर उसे एक अखिल भारतीय रूप प्रदान किया।

1922 में बनारस से आज’, लाला लाजपत राय का वंदेमातरम्, गांधीजी का हरिजन, नवजीवन, हरिजन सेवक, सत्याग्रह व यंग इण्डियाके साथ-साथ इलाहाबाद कादेशदूत’,  आगरा का साहित्य संदेशव सैनिक, दिल्ली का वीर अजुर्न ने कमाल कर दिखाया। महाकवि सूर्यकान्त त्रिपाठी के योगदान को नमन किए बिना हिन्दी पत्राकारिता की बात को विराम देना उचित न होगा। 1922 में बाल कृष्ण प्रेस से समन्वय साप्ताहिक’ 1923 में मतवाला’ 1923 में रंगीला, निराला जी के कुशल संपादन में प्रकाशित हुए।

स्वतंत्रता आंदोलन के समय जितने भी पत्र और पत्रिकाएं निकल रही थी उनका काम अंग्रेजी शासन से मुक्ति दिलाने के लिए जनता में चेतना की लहर लाना था ताकि लोग राष्ट्रीय आंदोलन की धारा में शमिल हो सकें। उस समय पत्रकारिता एक मिशन के रूप में कार्य कर रही थी। पत्रकार कर्ज को लेकर, अपनी सम्पत्ति दांव पर लगा कर अखबार निकाल रहा था। वह यह बहुत अच्छी तरह से जानता था कि कभी भी उसका अखबार ब्रिटिश सरकार का कोपभाजन बन सकता है। इन सब परेशानियों के रहते हुए भी ब्रिटिश सरकार का मुकाबला पत्रकारों ने किया। अंग्रेजों के समक्ष समर्पण जैसा शब्द उनके शब्दकोष में ही नहीं था। हिन्दी और भाषायी पत्रकारिता को स्वतंत्रता आंदोलन से पृथक करके नहीं देखा जा सकता। इन समाचार पत्रों व उनके पत्रकारों का आजादी की प्राप्ति में योगदान स्वर्ण अक्षरों में सदैव चमकता रहेगा। हमारी आने वाली पीढ़िया निश्चित रूप से इनकी ऋणी रहेंगी।

जब-जब भी ये देश स्वतंत्रता दिवस की खुशी में दीपक जलायेगा..उस स्वतंत्रता की खुशी में जगमगाने वाले दीपकों में कमसकम एक दीपक पत्रकारिता के नाम का रहेगा और पत्रकारिता के इस योगदान को आदर भाव से स्मरण किया जायेगा। लेकिन जब भी हम पत्रकारिता के इस योगदान को याद करें तब इस बात का भी स्मरण रखें कि पत्रकारिता के पीछे एक गरिमामयी इतिहास भरा पड़ा है हम सभी आज के इस प्रोफेशनल होते मीडिया के युग में पत्रकारिता की उस गरिमा को सदा जीवंत बनायें रखें क्योंकि लोकतंत्र का ये चौथा स्तंभ यदि अपनी गरिमा-प्रतिष्ठा को गंवा बैठा तो प्रजातंत्र के अन्य तीन स्तंभों का भी भलीभांति टिका रह पाना मुश्किल है।

Sunday, August 4, 2013

मेरी प्रथम पच्चीसी : दूसरी किस्त

प्रथम किस्त के लिए क्लिक करें-

(जीवन के अनुभवों का चिट्ठा प्रस्तुत कर रहा हूँ, अपने गुजरे हुए लम्हों की जुगाली करके स्वयं का एक समीक्षात्मक विवरण दे रहा हूँ...संभवतः ये मेरे अपने ही कुछ पूर्वाग्रहों से ग्रस्त रहेगा, क्योंकि स्वयं के संस्मरणों का विवरण पूर्णतः निष्पक्ष हो ऐसा संभव नहीं है..फिर भी यथायोग्य निष्पक्षता रखने का प्रयास करूंगा)

गतांक से आगे-

भागता हुआ वक्त किसी के लिये नहीं ठहरता..और अपनी इसी स्पीड के साथ इसने मुझे कब पाँच वर्ष का कर दिया पता ही नहीं चला...वैसे पांच-सात वर्ष की उम्र इस बात की समीक्षा करने की नहीं होती कि वक्त ने कितनी तेजी से उसे इस उम्र तक पहूंचा दिया। कुल मिलाकर वो वक्त बीत गया जिसकी धुंधली यादें मेरे ज़हन में हैं। मैंने स्कूल में प्रवेश लिया..हालांकि अनधिकृत तौर पे स्कूल मैं तीन-साढ़े तीन वर्ष की उम्र में ही जाने लगा था, वो स्कूल मेरे घर के सामने की ही गली में हुआ करता था। लेकिन अब पूरी औपचारिकताओं के साथ मेरा स्कूल में नाम दर्ज हुआ।

ईमानदारी से कहूँ तो मेरी स्कूली शिक्षा किसी बेहद आलीशान, उच्च कोटि के विद्यालय में नहीं हुई है..और ऑलमोस्ट इस इक्कीसवीं सदी का प्रतिनिधि होने के बावजूद मैंने अठारहवीं सदी के विद्यालयों की भांति ही अध्ययन किया...जहाँ न कोई अत्याधुनिक क्लासरूम, सिटिंग अरेंजमेंट आदि थे और न ही उच्च कोटि के हाईली क्वालिफाइड प्रोफेशनल टीचर। फट्टी पे बैठके, गुजरे जमाने वाले दीवारों पे चस्पा श्यामपट से, बरसातों में पानी चुचाते क्लासरूमस् में और 300-400 रुपये  मासिक वेतन पे बुलाये गये आसपास के अध्यापकों से ही अपनी हाईस्कूल पर्यंत की शिक्षा हासिल की। व्यवसायिक पृष्ठभूमि वाला परिवार होने के कारण कभी घर में भी पढ़ाई को लेके किसी ने गंभीरता नहीं बरती..पढ़-लिखके उँचे महकमों पे नौकरी भी की जाती है ऐसी कोई मानसिकता ही नहीं थी..बस कखग, ABCD और थोड़ा-बहुत जोड़-घटाना सीखके अपने उस व्यवसाय में ही जुत जाना है बस यही हम सोचते थे और यही हमारा परिवार। आजकल के बच्चों पे हेवी स्टडी लोड और उनका हैक्टिक शेड्यूल देखता हूँ तो उन बच्चों पे तरस आता है...और इतने उच्च स्तर का अध्ययन पाने के बाद भी वो नैतिक मूल्यों और एक अदद उच्च जीवन से महरूम रह जाते हैं ये देख दुख भी होता है। लगता है सिर्फ आंकड़ो में शैक्षिक स्तर बढ़ाया जा रहा है पर इस शिक्षा से इंसानों का निर्माण नहीं हो पा रहा है।

बचपन के उन दिनों में स्कूल जाके महज़ एक औपचारिकता का निर्वहन कर आते थे..जो थोड़ा-बहुत मास्टरजी सिखा देते थे उसे रट लेते थे। गॉडगिफ्टेड स्मरण शक्ति और उच्च समझक्षमता हासिल हुई थी..तो सहज ही अपने वातावरण और लोगों से, कम उम्र में ही शुद्ध हिन्दी लिखना-पढ़ना सीख लिया था..इंग्लिश के भी अक्षर समझ आते थे और उन अक्षरों को हिज्जे करके शब्दों को भी पढ़ लेता था...पर आधुनिक स्कूलों में शिक्षा अर्जित कर रहे बच्चों की तरह अंग्रेजी में महारत नहीं थी। और ये महारत तो ग्रेजुएशन में इंग्लिश लिटरेचर से अध्ययन करने के बाद भी नहीं आ पाई। लेकिन इस समय अपने अथक प्रयासों से इंप्रूवमेंट के सोपानों से गुज़र रहा हूँ।

बचपन अपने घर-परिवार और आसपास के स्थानीय दोस्तों के साथ मस्ती करते हुए ही गुजरा और कोई जीवन का विशेष उद्देश्य नज़र नहीं आता था। ग्रामीण परिवेश था इसलिये सूरज के डूबने के साथ ही ज़िंदगी थम जाती थी..इसलिये शाम को उस गांव की सड़कों पे ही छुप्पन-छुपाई, छील-बिल्ली, मगर-पानी और बरफ-पानी जैसे खेल खेलके खुश हो लिया करते थे। पर यकीन मानिये वो खेल बेहद एनर्जेटिक हुआ करते थे और अपने अंदर एक तंदरुस्ती का अनुभव हम करते थे। आज विडियो-गेम्स्, मोबाईल और कंप्यूटर पर अपनी आँखे गढ़ाये बच्चे उन स्फूर्ति और ताजगीपूर्ण खेलों से खासे महरूम हैं और बंद कमरों में ही अपने बचपन के अनमोल पलों को गुज़र जाने देते हैं। शिक्षा का अत्याधिक लोड जीवन के दूसरे अहम् पहलुओं से दूर कर रहा है बस यही वजह है कि कमउम्र में तनाव और कई बीमारियां घर कर लेती हैं..साथ ही बच्चो का जो सर्वांगीण विकास होना चाहिये वो नहीं हो पाता। बचपन के ये आउटडोर गेम्स हमें न सिर्फ शारीरिक तौर पे मजबूत बनाते हैं बल्कि हमारी बौद्धिक-मानसिक शक्ति में भी इज़ाफा करते हैं..और हमारे टीमवर्क और संगठन के साथ काम करने की काबलियत विकसित होती है।

इन खेलों से फुरसत पा थक हार के माँ की गोदी में आसरा पाते थे और उनसे ही कुछ धार्मिक कथा या कोई शिक्षा पा सोने को तैयार हो जाते थे। ग्रामीण परिवेश था इसलिये बिजली तो प्रायः रहा ही नहीं करती थी इसलिये टेलीविज़न जैसे मनोरंजन के साधनों से दूर ही थे। और वैसे भी वो तो सिर्फ दूरदर्शन का युग हुआ करता था इसलिये कार्टून नेटवर्क या दूसरे मनोरंजन के कार्यक्रमों का भी सहारा नहीं था। हालांकि शहरों में केबल नेटवर्क ने दस्तक दे दी थी पर उसे अभी गाँवों में अपने पैर पसारने में वक्त था। इसलिये सिर्फ दूरदर्शन ही साथी था और उसपे भी सिर्फ संडे के दिन ही बच्चों का ख्याल रखा जाता था जबकि तरंग नाम का प्रोग्राम उसपे प्रसारित होता था अन्यथा रामायण, बुनियाद, महाभारत और चंद्रकांता जैसे सीरियल को समझने लायक क्षमता तो थी नहीं हममें तबतक।

बहरहाल, कम संसाधन और विषमताएं थी पर जिंदगी में मजे थे..क्योंकि बचपन में मजे करने के लिये किसी चीज़ की आवश्यकता नहीं होती..बचपन ही मजे के लिये काफी होता है...मनोरंजन के लिये खिलौने हो न हों..पर मिट्टी, पानी, धूल, आग और टूटे-फूटे बर्तन क्या किसी खिलौने से कम होते हैं.....

ज़ारी..........