बात शुरु करता हूँ एक बचपन में पढ़े नीति श्लोक से..जो संभवतः मैंने छठी कक्षा में पढ़ा था- नरस्य भरणम् रूपम्, रूपस्य भरणम् गुणः..गुणस्य भरणम् ज्ञानं, ज्ञानस्य भरणम् क्षमा। इस श्लोक की अंतिम पंक्ति में प्रयुक्त क्षमा शब्द को सबसे अंत में रखा गया है और इसे मनुष्य का सर्वोत्तम आभूषण कहा गया है..और यहाँ प्रयुक्त क्षमा शब्द का मतलब महज किसी को माफ कर देने तक सीमित नहीं है बल्कि ये बेहद व्यापक है और इसमें संपूर्ण चारित्रिक गुणवत्ता का समावेश किया गया है। एक अन्य पंक्ति भी कुछ इसी तरह की याद आ रही है कि "प्रतिभा इंसान को महान् बनाती है और चरित्र महान् बनाये रखता है" और इससे मिलती जुलती एक अन्य कहावत कुछ इस तरह है कि "आप सिर्फ अपने चरित्र की रक्षा कीजिये आपकी प्रतिष्ठा आपकी रक्षा स्वयमेव कर लेगी" इत्यादि...यहाँ इन सब महानतम् सदवाक्यों को याद करने का प्रयोजन सिर्फ इतना है क्योंकि वर्तमान सामाजिक परिदृष्य पे कुछ कहना चाहता हूँ....
अब यहाँ प्रश्न उठता है कि समाज का विशाल जनसैलाब यदि किसी का अनुयायी बन जाता है, मीडिया किसी को अथाह प्रसिद्धि दे देती है, असीम दौलत से कोई दुनिया की किसी भी वस्तु को अपने हक में कर सकता है या बौद्धिक चातु्र्य अथवा अपने हुनर से कोई किसी का दिल जीत लेता है तो क्या मात्र इतना करने भर से किसी को महानता के शिखर पे स्थापित कर देना चाहिये। दूसरी तरफ एक आम इंसान है जो ईमानदारी से बमुश्किल अपने घर का खर्च चला रहा है, मंदिर-मस्जिद-गुरद्वारे की सीख को अपने हृदय से चमेटे हुए नैतिकता का दामन थामा है, अपनी पत्नी-बच्चों के छोटे से परिवार में ही पूर्ण संतुष्ट है...लेकिन हालातों के थपेड़े लगातार खा रहा है, उसे अपने मोहल्ले के ही पूरे लोगों द्वारा नहीं पहचाना जाता, उसकी कही बातों से कोई हेडलाइंस नहीं बनती पर सद्शास्त्रों में लिखी बातों, सत्य, अहिंसा, सदाचार पर एक विश्वास दृढता से बनाये हुये हैं और इसी तरह जीवन जीते हुये एक दिन वो मर भी जाता है...अब इन विभिन्न प्रवृत्ति के लोगों में से महानता का तमगा किसके सिर पे जाना चाहिये। अगर भारतीय संस्कृति के वेद-पुराणों से महानता का पैमाना तलाशा जाये तो वहाँ सिर्फ और सिर्फ सद्चरित्रता को ही ये तमगा हासिल होगा..इस त्याग प्रधान संस्कृति में कभी पद-पैसा और प्रतिष्ठा को नहीं पूजा गया है..यहाँ सिर्फ सदाचरण की माला फेरी गई है..और सिर्फ भारतीय संस्कृति की ही क्यों बात करें सुकरात, प्लेटो, अरस्तु जैसे पाश्चात्य चिंतक भी सदाचरण की महत्ता को ही स्वीकार करेंगे बाकि चीज़ें उनके लिये भी गौढ़ ही रहेंगी।
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दरअसल, ये हम सबके चिंतन औऱ चिंता के अहम् मुद्दे है कि इस समाज की भीषण विसंगति की पराकाष्ठा इससे बढ़कर और क्या होगी कि यहां एक बड़ा धर्मगुरू, लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का पहरी एक संपादक और अच्छे-बुरे का निर्णय देने वाला एक न्यायाधीष ही सदाचार से परांड्गमुख हो गये है तो फिर किसके समक्ष अब गुहार लगाई जाये और किससे शिकायत की जाये...आलम यही है कि चिंगारी कोई भड़के तो सावन उसे बुझाये पर जो सावन आग लगाये उसे कौन बुझाये...यहाँ तो समाज के खिवैया ही नौका को मझदार में पटके दे रहे हैं।