वाक़या कुछ यूं है कि ऑफिस से लौटते वक्त एक आठ-दस साल का बच्चा हाथों में तिरंगा लिये उसे बेंचने मेरे पास आकर रुका। बमुश्किल तीस-पैंतीस सेकेंड के लिये ट्रेफिक सिग्नल पर उस वक्त खड़े हुए मैं बड़े असमंजस में था कि झंडा लिया जाये या नहीं...पर मेरी कार के फ्रंट में चिपकाने के लिये उस तिरंगे की कीमत जो उस बच्चे ने मुझे तकरीबन बीस रुपये बताई थी काफी ज्यादा लगी और मैं उसका पंद्रह रुपये मूल्य लगाकर आगे बढ़ गया। फिर सोचा कि यार पांच रुपये की ही तो बात थी...उस तिरंगे को अपनी गाड़ी पे लगाकर मैं अपने देशभक्त होने का प्रमाण तो दे ही सकता था..और उस बच्चे को मिले उन पैसों से उसे एक वक्त का भोजन मिल जाता। लेकिन इन छद्म संवेदनशील जज़्बातों ने बड़ी देर से मेरी रूह पर दस्तक दी।
बात सिर्फ मेरी या किसी एक व्यक्ति की नहीं हैं..ऐसी सतही संवेदनाएं मुझ जैसे सैंकड़ो के मन में रहती होंगी। बात है उस सड़सठ सालों से चली आ रही तथाकथित आजाद व्यवस्था की जिसके चलते आज भी वो बच्चे जिन्हें बस्ता टांगे स्कूल जाना चाहिये वो फुटपाथों या चौराहों पर कुछ ऐसे ही तिरंगा, अखबार या कुछ ऐसी ही दूसरी चीज़ें बेंचते नज़र आ रहे हैं। सवाल उठता है उन दर्जनभर पंचवर्षीय योजनाओं पर जो आज भी प्रत्येक भारतीय की शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य और भोजन सुनिश्चित नहीं कर पा रहीं हैं। सवाल है उन तमाम संसदीय और न्यायालयीन नियमों-अधिनियमों से, जिसके चलते संविधान की प्रस्तावना में वर्णित सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय आम आदमी से कोसों दूर है और यही वजह है कि शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकारों में शुमार किये जाने के बावजूद तिरंगा, फुटपाथ पर घूम रहे बच्चों के महज़ हाथों में लहलहा रहा है जबकि उस तिरंगे को उन बच्चों के ज़हन का हिस्सा बनना था। जो कि सिर्फ शिक्षा से संभव है।
ये एक वाक़या तो महज़ एक मिशाल है...आजाद भारत की गुलाम तस्वीर का ज़िक्र कर पाना बहुत मुश्किल है। कहने को समाजवाद का चोगा ओड़ी, हमारी व्यवस्था में जितनी आर्थिक खाई देखी जा सकती है उतनी शायद ही किसी दूसरी विकासशील अर्थव्यवस्था में होगी। इस आर्थिक खाई का आलम कुछ ऐसा है कि देश का एक वर्ग अमेरिका, यूके, जापान के तमाम विकास को बौना साबित कर रहा है तो दूसरी ओर एक विशाल वर्ग ऐसा भी कालीन के नीचे पसरा पड़ा है जिसकी हालत सोमालिया, इथोपिया, कांगो सरीखे अफ्रीके देशों से गयी बीती है। एक वर्ग ऐसा है जो किसी मल्टीप्लेक्स में बड़े आराम से साढ़े तीन सौ का टिकट ले तीन घंटे का इंटरटेनमेंट खरीद रहा है तो उसी मल्टीप्लेक्स के बाहर खड़ी एक औरत अपनी गोद में टांगे उस बच्चे के लिये एक वक्त के भोजन के लिये साढ़े तीन रुपये की गुहार कर रही है।
ऐसे सैंकड़ो दृश्यों का ज़िक्र किया जा सकता है पर उन सबको बताना मेरा मक़सद नहीं। मैं सिर्फ लाचार भारत की इस भौतिक गुलामी की बात नहीं करना चाहता बल्कि समृद्ध इंडिया की उस मानसिक गुलामी को भी बयांं करना चाहता हूँ जिसके चलते ही इस भौतिक परतंत्रता का आलम फैला हुआ है। जी हाँ समृद्ध इंडिया! ऑलीशान गाड़ियों में घूमता, पॉश कालोनियों में करोड़ो-अरबों के बंगलों में रहने वाला, ब्रांडेड कपड़े और ज्वेलरी अपने बदन पे चढ़ाने वाला, लाखों के टूर पैकेज ले सिंगापुर-स्विटज़रलैण्ड घूमने वाला वही समृद्ध इंडिया जिसके अन्याय और सबकुछ हड़प लेने की हवसी प्रवृत्ति का ही नतीजा है लाचार भारत। इस इंडिया ने अपनी तमाम समृद्धि उन झूठी कसमों के ज़रिये हासिल की हैं जिन कसमों में ये लाचार भारत की सूरत बदलने की बात करते हैं। जी हाँ कभी नेता बनकर, कभी कोई प्रशासनिक अधिकारी बनकर, कभी डॉक्टर, इंजीनियर या उद्योगपति बनकर ये तमाम व्हाइट कॉलर लोग देश के हालात बदलने के लिये ही तो निकले थे पर इनकी स्वार्थि वृत्तियों और बस खुद को संवारने की चाहत ने आज गरीबी रेखा के नीचे लगभग 70 करोड़ लोगों को धकेल दिया है और जो इस रेखा से ऊपर रहने वाला मध्यमवर्ग है उसकी हालत भी कोई बहुत सम्मानीय नहीं है। परिस्थितियों के थपेड़े उसे भी पंगु ही बनाये हुये हैं।
इसे मानसिक गुलामी नहीं तो और क्या कहेंगे जहाँ प्रतिभा और पैसे का उपयोग बस खुद के उत्थान के लिये ही किया जाता हो...जहाँ पर्यावरण को बेइंतहा नुकसान अपने पैसे कमाने के साधनों को और पुख़्ता करने के लिये किया जाता हो..जहाँ रस्मों-रिवाज़ों के नाम पर धर्मस्थलों, मंदिर-मस्ज़िदों में करोड़ो चढ़ाया जाता हो लेकिन एक जीते-जागते इंसान की बेहतरी के लिये कोई उपक्रम नहीं है। डॉक्टर, इंजीनियर या व्यवसायी बन हर युवा अपने देश के हालात बदलने की दिशा में योगदान देने के बजाय विदेशों में मोटे पैकेज की नौकरी की चाहत पालता है। अपने बहुत थोड़े से जीवन को हर तरह से सिर्फ धन का गिरवी रखना क्या मानसिक दिवालियापन नहीं है। देश के उत्थान की बातें जिस दिन हमारी जुबानी मंशा न रहकर, ज़हन की आरजू बन जायेगी सही मायने में उस ही दिन हम आजाद होंगे। नहीं तो मुझ जैसे ही तमाम भारतीय पंद्रह रुपये का कोई तिरंगा खरीद अपने घर या लाखों की कार पर चस्पा कर खुद की देशभक्ति को प्रमाणित करते रहेंगे और अपनी आज़ादी का जश्न युंही चलता रहेगा। या फिर व्हाट्सएप्प और फेसबुक की प्रोफाइल पिक्चर को तीन रंगों से रोशन कर देंगे..पर ज़हन उस तिरंगे के असल मायनों को कभी साकार नहीं कर पायेगा।
खैर...उम्मीद है हालात बदलेंगे, उम्मीद है हम आजाद होंगे..रूह से भी और ज़िस्म से भी। पर उसके लिये हर भारतीय को एक पत्थर तो तबीयत से उछालना ही होगा..एक दीपक तो शिद्दत से जलाना ही होगा। वो दिन जरूर आयेगा जब उस उछाले हुए पत्थर की चोट गुलामी के शीशों को तोड़ेगी और उस दीपक से सालों की तमस मिटेगी। पर तब तक........................................
चलो बाहर चलते हैं आजादी का जश्न मनाया जा रहा है.....और हम भी कुछ नारे लगाते हैं, हम भी कुछ गीत गुनगुनाते हैं.......जनगणमन अधिनायक जय है, भारत भाग्य विधाता।