आज से ठीक चार साल पहले करीब इसी वक्त अपने ब्लॉग पर एक पोस्ट लिखी थी 2011 क्रिकेट विश्वकप और टीम इंडिया की संभावनाओं का संसार और तब लगाये गये अनुमान लगभग पूरी तरह से ठीक निशाने पर लगे भी थे। तब भी वर्ल्डकप को कुछ रोज़ ही शेष बचे थे और टीम इंडिया चुनी जा चुकी थी अब भी वही स्थिति है...लेकिन हालात पूरी तरह से जुदा। टीम का तत्कालीन प्रदर्शन और 2011 विश्वकप के लिये चुने गये खिलाड़ियों की सूची, सिर्फ मुझे ही नहीं बल्कि हर क्रिकेट प्रेमी और इस खेल के जानकार को ये अहसास दिला रही थी कि इस टीम में अट्ठाईस साल बाद विश्वकप के सूखे को दूर करने का माद्दा है..पर वही चीज़ यदि 2015 के लिये सोची जाये तो ऐसा कतई नहीं लगता कि टीम अपना ताज़ बचा पायेगी।
2011 की टीम में अनुभव और ताजगी का जोरदार सम्मिश्रण था और टीम के 8 खिलाड़ी पहले भी विश्वकप जैसे बड़े आयोजन में शरीक़ हो चुके थे पर अब टीम के पास सिर्फ 4 खिलाड़ी ही ऐसे हैं जो विश्वकप खेलने का अनुभव रखते हैं। उस टीम के पास सचिन तेंदुलकर के रूप में जबरदस्त प्रेरणास्त्रोत और क्रिकेट का अद्वितीय ग्रंथ था पर अब ऐसा कोई भी नज़र नहीं आता। उस वक्त की टीम विश्वकप में उतरने से पहले शानदार जोश और विश्वास से लवरेज़ थी और कई बड़ी टीमों को पटखनी देकर विश्वकप में उतर रही थी पर इस टीम के साथ पिछले कुछ सालों में कई बड़ी टीमों से हारने के कारण हताशा और डर व्याप्त है। तब टीम टेस्ट में नंबर 1 और वनडे में नंबर दो थी पर ये टीम वनडे रेकिंग में तो नंबर दो पर व्याप्त है पर टेस्ट में छठे नंबर पर जा चुकी है और वनडे में रैंक अच्छी होने की वजह पिछला रिकॉर्ड और घरेलु मैदानों पर हासिल की हई जीत हैं..लेकिन अब विश्वकप के लिये घरेलु ज़मीन नहीं मिलने वाली और न ही होगी 2011 की तरह मैदान पर सपोर्ट करने वाले दर्शकों की बड़ी तादात। सबकुछ बदल चुका है और सब कुछ मुश्किल है और बची कुची कसर टीम के चयन ने पूरी कर दी।
टीम के पास युवाशक्ति तो है पर अनुभव के मामले में ये शून्य सी ही नज़र आ रही है। यही वजह है कि तब हमारे पास छटवे-सातवे क्रम तक ऐसी बैटिंग लाइनअप थी जो ऊपरी क्रम के लड़खड़ाने के बावजूद मैच बचाने का माद्दा रखती थी पर ये टीम शुरुआती बल्लेबाज़ों के बिखरने के बाद खुद को संभाल पाने में सक्षम नज़र नहीं आती। 2011 की टीम का हर प्लेयर अपने दम पर मैच जिताने का दम रखता था और धोनी ने सब खिलाड़ियों का प्रयोग भी कुछ इसी अंदाज में किया था, मसलन क्वार्टर फायनल और सेमीफायनल में रैना को मैदान में उतारा जो कि लीग मैचों में बेंच पर ही बैठे रहे और इन दो मैचों में मैच विनर साबित हुए। कुछ इसी तरह अश्विन और पीयुष चावला का चतुराई भरा प्रयोग करना संभव हो सका था लेकिन अब बैंच स्ट्रेंथ में कतई दम नहीं दिखता। वहीं कोहली और धोनी के अलावा ऐसा कोई नाम नहीं है जिसके प्रदर्शन में निरंतरता हो और जिसपे आंख मूंद कर विश्वास किया जा सके। यकीनन रोहित शर्मा, शिखर धवन, रैना, रहाणे सभी में हुनर कूट-कूट कर भरा है पर अहम् मौकों पर इन सबका बिखरना जगजाहिर है।
अब यदि गेंदबाज़ी की बात करें तो इस मामले में टीम सर्वाधिक पिछड़ी नज़र आ रही हैं। आस्ट्रेलिया की विकेट भारतीय उपमहाद्वीप की तुलना में काफी अलग है जिसमें एक दिन के मैचों में पिच से टर्न की उम्मीद करना बेमानी होगी और बस इसलिये भारतीय गेंदबाजी की सबसे बड़ी ताकत स्पिन अटैक बुहत कारगार साबित होगा, ऐसा नहीं कहा जा सकता...इसके परे यदि पेस अटैक को देखा जाये तो निश्चित ही शमी, भुवनेश्वर क्षमतावान है पर ये दोनों अभी ज़हीर खान की तरह विश्वास नहीं जगाते..वहीं दूसरा पक्ष ये भी है कि ईशांत और भुवनेश्वर ये दो अहम् बॉलर चोट से जूझ रहे हैं वर्ल्डकप तक ये पूरी तरह मैच फिट रहें और थके हुए न लगे, ये कहना खासा मुश्किल है।
इसके अलावा यदि पिछले वर्ल्ड कप की तुलना में इस टीम की सबसे बड़ी कमी की बात करें तो वो है युवराज़ सिंह का न होना...मैं यह नहीं कह रहा कि युवराज को ही टीम में लेके आओ लेकिन वर्ल्डकप जीतने के लिये एक सशक्त ऑलराउंडर का होना सख़्त ज़रुरी है वो युवराज के अलावा चाहे जो भी क्युं न हो..लेकिन ऐसा ऑलराउंडर मौजूदा भारतीय टीम में तो कोई नहीं हैं..हो सकता है इस वर्ल्ड कप के बाद कोई ऐसा चेहरा उभर कर सामने आ जाये..पर अब तक के रिकॉर्ड को देखते हुए ऐसा खिलाड़ी जो गेंद और बल्ले से समान क्षमता रखते हुए मैच का निर्णय अपने पक्ष में कर दे, वो टीम में नहीं दिखता। पिछले विश्वकपों को यदि देखें तो हम समझ सकते हैं कि वर्ल्डकप जीतने में ऑलराउंडर की क्या भूमिका होती है..1983 में कपिल देव, 1992 में इमरान ख़ान, 1996 में सनत जयसूर्या और फिर 2011 में युवराज सिंह ये कुछ ऐसे नाम हैं जिन्होंने अपनी दोहरी भूमिका के ज़रिये ही टीम को जीत दिलाने में मदद की..पर 2015 में ऑलराउंडर के रूप में चुने गये खिलाड़ी अक्षर पटेल और स्टूअर्ट बिन्नी को कुल मिलाकर अभी पंद्रह मैचों का भी अनुभव नहीं है जबकि रविंद्र जड़ेजा की फिटनेस पर कई सवाल है और यदि वे फिट होते भी तो उन पर युवराज की तरह यकीन तो कतई नहीं किया जा सकता। भले युवराज सिंह ने 2014 के टी-ट्वेंटी विश्वकप फायनल में एक विलेन की भूमिका निभाई थी पर मैं अब भी उन्हें ही इस टीम में देखना चाहता हूं और विश्वकप शुरु होने के अंतिम समय तक यह चाहूंगा कि चाहे जो भी वजह क्यूं न बने लेकिन युवराज इस टीम का हिस्सा हो जायें।
हालांकि कई नकारात्मक बातें इस टीम के बारे में कर चुका हूँ लेकिन एक अहम् तथ्य यह भी बताना चाहता हूं कि 2007 में हुए पहले टी-ट्वेंटी विश्वकप में चुनी गई टीम से भी कोई विश्वकप जिताने की अपेक्षा नहीं कर रहा था..वो टीम भी अनुभवी नहीं थी आज जो कई बड़े नाम नज़र आ रहे हैं तब तक वे युवा और नौसिखिया ही कहलाते थे। लेकिन तब टीम ने विश्वकप जीत सबको चौंका दिया था। इस बार भी हम कुछ ऐसा ही चाहेंगे और उम्मीद करेंगे कि टीम के यह खिलाड़ी न सिर्फ मुझे बल्कि इस टीम की आलोचना कर रहे हर इक शख़्स को ग़लत साबित करें..और देश को फिर इक बार झूमने का अवसर प्रदान करें। एक ऐसी जीत, जिसकी खुशी में हिन्दुु-मुस्लिम-सिक्ख-ईसाई, अमीर-गरीब, गुजराती-पंजाबी-मराठी जैसे तमाम भेद ख़त्म हो जाते हैं और हम बस एक भारतीय होने की पहचान के साथ अनियंत्रित जश्न में डूब जाते हैं।
बहरहाल, उम्मीद तो होगी कि 2015 में हो रहे इस महान क्रिकेट संग्राम के ख़त्म होने पर हमें 2011 क्रिकेट विश्वकप के बाद वाली खुशी फिर इक बार मिले..और देश को शायद यह मिल भी सकती है पर मेरे लिये तो हमेशा वही विश्वकप सबसे यादगार रहेगा क्युंकि उस विश्वकप से अपनी राष्ट्रवादी भावनाओं के साथ कुछ रुहानी जज़्बात भी जुड़े हुए हैं..जो अब संभवतः नहीं मिल सकते। जज़्बाती तौर पर देखूं तो मैं 2011 के विश्वकप को लेकर थोड़ा पूर्वाग्रही ज़रूर हो रहा हूँ पर इस बार भी उस जैसे जश्न में डूबने की दिली तमन्ना बरकरार है.......