पोस्ट के शीर्षक में व्यक्त पंक्ति मेरे मित्र संभव निराला की फेसबुक वॉल से उठाया गया है..दिल्ली चुनाव के नतीज़ों के बाद व्यक्त की गई यह एक असल आम आदमी की अभिव्यक्ति है जो जीत की बधाई देने के साथ एक चेतावनी भी देती है। जो पंक्ति देखने में बेहद छोटी नज़र आती है पर बड़े गंभीर अर्थ लिये हुए है। अकल्पनीय, ऐतिहासिक, अद्भुत, अद्वितीय, अप्रतिम और ऐसी न जाने कितनी उपमाओं से दिल्ली चुनाव के नतीज़ों को बयाँ किया जा रहा है। भारत जैसे बहुदलीय राजनीति वाले लोकतंत्र में किसी पार्टी द्वारा यदि पिन्चयानवे प्रतिशत सीटों पर कब्ज़ा कर लिया जाये तो उसे निश्चित ही अद्भुत कहा जायेगा...और वो भी एक ऐसी पार्टी जिसे आये हुए जुमां-जुमां हफ्ता भर भी नहीं हुआ है। जी हाँ करीब सत्तर वर्ष पुराने लोकतंत्र में साल-दो साल पहले आई पार्टी का अस्तित्व इससे ज्यादा तो नहीं माना जा सकता।
10 फरवरी। एक ऐसी तिथि जिसने अरविंद केजरीवाल को महानायक बना दिया। जो इंसान कुछ वक्त पहले तक भगोड़ा, धरनेबाज और इस तरह के कईयों शब्दवाणों से विभूषित किया जा रहा था। 10 फरवरी। एक ऐसी तिथि जिसने सफलता के रथ पर सवार सूरमाओं के सिंहासन को हिला दिया। 10 फरवरी। जिसने 16 मई की ऐतिहासिक विजय को बौना साबित कर दिया। 16 मई के जो हीरो थे, 10 फरवरी को वहीं उपहास के पात्र हो गये। लोकसभा चुनावों में मिली जीत के बाद जिन्हें अगले कुछ दशकों तक के लिये अपराजेय की तरह देखा जा रहा था..सारे देश में जिन्हें कोई चुनौती देता नहीं दिख रहा था..जो पूरे देश के अघोषित छत्रप बन गये थे। लेकिन इन सारे भ्रमों को 10 फरवरी ने तोड़ दिया। दरअसल, ये हार किसी दल, व्यक्ति या विचारधारा की नहीं है बल्कि ये अहंकार की हार है, एक अहंकार जो जनमानस की भावनाओं को संपूर्णतः समझ लेने का दंभ भरता था..और कुछ इसी तरह ये जीत अरविंद केजरीवाल, आम आदमी पार्टी या उनके प्रचंड प्रचार की नहीं है बल्कि ये एक उम्मीद की जीत है..ये उस विकल्प की जीत है जिसे चुनकर जनता सोचती है कि शायद अब हालात बदलेंगे। यह चरम सांप्रदायिक माहौल में धर्मनिरपेक्षता की जीत है..शाइनिंग इंडिया के सपने दिखाकर पुंजीवाद का पोषण करने वालों के समक्ष यह समाजवाद की जीत है।
लेकिन कहानी अब ख़त्म नहीं होती, शपथ लेने के बाद अरविंद केजरीवाल सो नहीं सकते। जनता ने उन्हें अपना सर्वस्व सौंप दिया है..अब तो उन पर अड़ंगे लगाने के लिये एक मजबूत विपक्ष तक मौजूद नहीं है..गठबंधन की मजबूरी नहीं है..तो क्या अब दिल्ली की तस्वीर बदलेगी? क्या अब दिल्ली में कालीन के नीचे का मटमैलापन दूर होगा? झुग्गियों की गंदगी, सड़कों पर अतिक्रमण, अनियंत्रित यातायात, बड़ती महंगाई, महिलाओं की असुरक्षा, बेरोजगारी और अपराध जैसी सैंकड़ो समस्याएं क्या अब दिल्ली का अतीत बनेंगी? यदि ऐसा हुआ तभी 10 फरवरी ऐतिहासिक हो सकती है अन्यथा याद रखें इस 10 फरवरी को 16 मई बनते देर नहीं लगेगी। अरविंद केजरीवाल ने जीत के बाद अपने कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए जो बात कही थी उसे अंतर्सात भी करें कि जैसे जनता ने भाजपा-कांग्रेस का अहंकार तोड़ा है..काम न करने की स्थिति में वैसा ही आम आदमी पार्टी के साथ भी हो सकता है। मीडिया जिन्हें आज सिर-आंखों पे बिठा रहा है उन्हें रसातल में पहुंचाने में भी मीडिया को देर नहीं लगती।
अहंकार..चाहे किसी का भी क्यों न हो, टूटता ज़रूर है और इसकी बानगी अरविंद केजरीवाल लोकसभा चुनावों के दौरान देख चुके होंगे..जब दिल्ली में महज 28 सीट जीतने के बाद कुछ ऐसी ही कल्पना उन्होंने लोकसभा चुनाव के लिये भी की और अति उत्साह में खुद को नरेंद्र मोदी के सामने खड़ा कर दिया। जनता हमेशा सजग ही रहती है..वो सगी किसी की नहीं होती। वो ख़ामोशी से किसी के नकारा शासन को सहती है पर जहाँ उसे मौका मिलता है वो किसी भी नेता या दल को उसकी औकात दिखा देती है। अरविंद केजरीवाल याद रखें..दिल्ली, कोई देश की प्रतिनिधि नहीं है..इस छोटे से राज्य(वो भी अपूर्ण) की जीत से उत्साहित हों पर इसे समस्त देश का जनाधार न मान बैठे। आप अच्छा करें जनता आपको उसका ज़रूर ईनाम देगी..पर किसी भी तरह के दिखावे और झूठ के सहारे लोगों को छलने की कोशिश न करें। याद रखें हिन्दुस्तान में ऊपर चढ़ने का ग्राफ जितना तेज है उससे कहीं तेज नीचे गिरने का ग्राफ है।
यकीनन, आम आदमी पार्टी दूसरे किसी दल की तुलना में एक ऐसा दल है जो तेजी से देश के पटल पर छाया है पर उसका कारण यह है कि लोगों ने इस दल में 'आम आदमी' को देखा न की 'पार्टी' को। इस जीत के बाद 'आप' से यह उम्मीद की जायेगी कि इस दल के कार्यकर्ता भी शिवसेना और बजरंगदल की तरह के न बन जाये। ये खुद बुद्धि-विवेक से काम करें..पर अपनी बुद्धिमत्ता के चक्कर में जनता को मूर्ख न समझे, क्योंकि जनता हमेशा चतुर होती है वो हमेशा सच्चाई को चुनती है भले वो सच्चाई उसे तात्कालिक ही क्युं न नज़र आये और बाद में वो सच उसे धोखा ही क्युं न दे दे। लेकिन जनता की प्राथमिकता एक सच्चा देशवासी ही है जो वास्तविक अर्थों में जनसेवा करना चाहता हो। देश की गुलामी के दौर में यह जनता भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ थी, राष्ट्रीय आपातकाल के दौर में यह जनसंघ के साथ थी..पिछले वर्ष घोर भ्रष्टाचार और सुप्त शासन के खिलाफ इसने भाजपा को समर्थन दिया और अब दिल्ली में इसने 'आप' के सिर ताज पहनाया। लेकिन जब भी, जो भी दल अपने दायित्वों से हट स्वार्थी वृत्तियों का पोषक हुआ और पद-पैसा या प्रतिष्ठा को तवज्जों दी तो जनता ने खुद उससे सिंहासन खाली करने का शंखनाद किया।
यह जीत दायित्वों का अगाध बोझ देने वाली है..कर्तव्यों से विमुख हो निर्भार करने वाली नहीं। बहुमत के कारण अधिकार ज़रूर मिले हैं पर जनकल्याण के लिये। सत्ता आने पर ये न सोचे कि ताकत 'आप'के पास है लोकतंत्र में ताकत हमेशा 'तुम'के पास ही होती है..ये तुम या तू शब्द से संबोधित की जाने वाली उपेक्षित जनता ही है जो 'आप' का निर्माण करती है।
लेकिन कहानी अब ख़त्म नहीं होती, शपथ लेने के बाद अरविंद केजरीवाल सो नहीं सकते। जनता ने उन्हें अपना सर्वस्व सौंप दिया है..अब तो उन पर अड़ंगे लगाने के लिये एक मजबूत विपक्ष तक मौजूद नहीं है..गठबंधन की मजबूरी नहीं है..तो क्या अब दिल्ली की तस्वीर बदलेगी? क्या अब दिल्ली में कालीन के नीचे का मटमैलापन दूर होगा? झुग्गियों की गंदगी, सड़कों पर अतिक्रमण, अनियंत्रित यातायात, बड़ती महंगाई, महिलाओं की असुरक्षा, बेरोजगारी और अपराध जैसी सैंकड़ो समस्याएं क्या अब दिल्ली का अतीत बनेंगी? यदि ऐसा हुआ तभी 10 फरवरी ऐतिहासिक हो सकती है अन्यथा याद रखें इस 10 फरवरी को 16 मई बनते देर नहीं लगेगी। अरविंद केजरीवाल ने जीत के बाद अपने कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए जो बात कही थी उसे अंतर्सात भी करें कि जैसे जनता ने भाजपा-कांग्रेस का अहंकार तोड़ा है..काम न करने की स्थिति में वैसा ही आम आदमी पार्टी के साथ भी हो सकता है। मीडिया जिन्हें आज सिर-आंखों पे बिठा रहा है उन्हें रसातल में पहुंचाने में भी मीडिया को देर नहीं लगती।
अहंकार..चाहे किसी का भी क्यों न हो, टूटता ज़रूर है और इसकी बानगी अरविंद केजरीवाल लोकसभा चुनावों के दौरान देख चुके होंगे..जब दिल्ली में महज 28 सीट जीतने के बाद कुछ ऐसी ही कल्पना उन्होंने लोकसभा चुनाव के लिये भी की और अति उत्साह में खुद को नरेंद्र मोदी के सामने खड़ा कर दिया। जनता हमेशा सजग ही रहती है..वो सगी किसी की नहीं होती। वो ख़ामोशी से किसी के नकारा शासन को सहती है पर जहाँ उसे मौका मिलता है वो किसी भी नेता या दल को उसकी औकात दिखा देती है। अरविंद केजरीवाल याद रखें..दिल्ली, कोई देश की प्रतिनिधि नहीं है..इस छोटे से राज्य(वो भी अपूर्ण) की जीत से उत्साहित हों पर इसे समस्त देश का जनाधार न मान बैठे। आप अच्छा करें जनता आपको उसका ज़रूर ईनाम देगी..पर किसी भी तरह के दिखावे और झूठ के सहारे लोगों को छलने की कोशिश न करें। याद रखें हिन्दुस्तान में ऊपर चढ़ने का ग्राफ जितना तेज है उससे कहीं तेज नीचे गिरने का ग्राफ है।
यकीनन, आम आदमी पार्टी दूसरे किसी दल की तुलना में एक ऐसा दल है जो तेजी से देश के पटल पर छाया है पर उसका कारण यह है कि लोगों ने इस दल में 'आम आदमी' को देखा न की 'पार्टी' को। इस जीत के बाद 'आप' से यह उम्मीद की जायेगी कि इस दल के कार्यकर्ता भी शिवसेना और बजरंगदल की तरह के न बन जाये। ये खुद बुद्धि-विवेक से काम करें..पर अपनी बुद्धिमत्ता के चक्कर में जनता को मूर्ख न समझे, क्योंकि जनता हमेशा चतुर होती है वो हमेशा सच्चाई को चुनती है भले वो सच्चाई उसे तात्कालिक ही क्युं न नज़र आये और बाद में वो सच उसे धोखा ही क्युं न दे दे। लेकिन जनता की प्राथमिकता एक सच्चा देशवासी ही है जो वास्तविक अर्थों में जनसेवा करना चाहता हो। देश की गुलामी के दौर में यह जनता भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ थी, राष्ट्रीय आपातकाल के दौर में यह जनसंघ के साथ थी..पिछले वर्ष घोर भ्रष्टाचार और सुप्त शासन के खिलाफ इसने भाजपा को समर्थन दिया और अब दिल्ली में इसने 'आप' के सिर ताज पहनाया। लेकिन जब भी, जो भी दल अपने दायित्वों से हट स्वार्थी वृत्तियों का पोषक हुआ और पद-पैसा या प्रतिष्ठा को तवज्जों दी तो जनता ने खुद उससे सिंहासन खाली करने का शंखनाद किया।
यह जीत दायित्वों का अगाध बोझ देने वाली है..कर्तव्यों से विमुख हो निर्भार करने वाली नहीं। बहुमत के कारण अधिकार ज़रूर मिले हैं पर जनकल्याण के लिये। सत्ता आने पर ये न सोचे कि ताकत 'आप'के पास है लोकतंत्र में ताकत हमेशा 'तुम'के पास ही होती है..ये तुम या तू शब्द से संबोधित की जाने वाली उपेक्षित जनता ही है जो 'आप' का निर्माण करती है।