नवाजुद्दीन सिद्दीकी अभिनीत और केतन मेहता निर्देशित 'माँझी-द माउंटेन मैन' रिलीज़ से पहले ही खासी चर्चा में है। दशरथ मांझी के जीवन पर बनी इस फिल्म के ट्रेलर को ही अब तक पैंतालीस लाख से ज्यादा यूट्यूब व्यु मिल चुके हैं। लिफाफे से ख़त का मजमूं मालूम होता है। नवाजुद्दीन सिद्दीकी की नायाब अदाकारी और कुशल निर्देशन को ट्रेलर से ही भांपा जा सकता है। संवादों से कथ्य की गहराई और कथा के परे दर्शन तक जाने के इशारों को भी समझा जा सकता है। बाइस साल का अथक परिश्रम या यूं कहें कि एक जीवन को ही निसार कर देना...एक ऐसे लक्ष्य के लिये जिसे जमाना महज बौराई बुद्धि से ज्यादा और कुछ नहीं मान सकता। गर इस बेसिर-पैर के से दिखने वाले लक्ष्य को चुनने की प्रेरणा का न पता हो तो यकीनन इसे पागलपन ही कहा जायेगा। लेकिन 'पहाड़ तोड़ने' की सदियों पुरानी और असंभव मानी जाने वाली कहावत को सच करने वाले दशरथ मांझी की इस कथा के पीछे भी वही मनोभाव है..जो कांटों पे चलने की, जमाने से लड़ने की, समंदर में जा डूबने की या शिखर फतह करने की प्रेरणा देता है।
प्रेम। प्रताड़ित होकर कई मर्तबा मुरझाया सा दिख सकता है...आवेश और दीवानगी का शिकार हो कई बार भटका सा भी दिख सकता है..या फिर तथाकथित उसूल और रीति-रिवाज़ों के नाम पे ठगा सा नजर आ सकता है। यकीनन ये बुद्धिमानी से कोसों दूर एक ऐसा भावानात्मक ज्वर है जो खुद के साथ-साथ कई दूसरों को भी जला देता है पर इन सब विषमताओं और कमियों के बावजूद ये पूरी मुस्तैदी से दुनिया में अपनी मौजूदगी दर्ज कराता रहा है, करा रहा है और कराता रहेगा। प्रेम की दीवानगी में ही इसकी खूबसूरती है। इससे उपजा पागलपन ही क्रांति को जन्म देता है और उस क्रांति की बयार में ही परिवर्तन की फसल लहलहाती है।
'मांझी' फिल्म के ट्रेलर में भी एक संवाद सुनने को मिल रहा है..जब पार्श्व से ये पूछती आवाज आती है कि ये पहाड़ तोड़ने की ताकत कहाँ से लाते हो..जिस पर दशरथ का किरदार निभा रहे नवाज़ का उत्तर होता है- 'ये प्रेम है...प्रेम में बहूत बल है बबुआ।' यकीन मानिये जिस रोज़ इस जहाँ से प्रेमानुभूतियां समाप्त हो जायेंगी बस ये जहाँ भी थम जायेगा। प्रेम के आसरे और आधार भले हर किसी के लिये जुदा-जुदा हों पर प्रेम का होना ज़रुरी है। आवश्यक नहीं कि ये किसी स्त्री के आधार से जन्मा पारंपरिक मोहपाश के माफिक ही हो..इसके केंद्र में कई दूसरी वजहें भी हो सकती हैं लेकिन इच्छाशक्ति, जीवटता और हौसले का संचार प्रेम से ही होता है। जो हमें पहाड़ तोड़ने, समंदर लांघने, हलाहल पीने या सितारे तोड़ने तक का साहस देता है।
जगत में साहस का संचार भी प्रेम से ही मुमकिन है। क्रोध, व्यग्रता या रोष से बल प्रदर्शित नहीं होता, बल-वीर्य और साहस का वास भी प्रेम में ही है। प्रेम पर अड़ंगे लगाने के पीछे समाज की मंशा मनुष्य को कमजोर बनाये रखना है क्योंकि प्रेम चली आ रही प्रथाओं, रीति-रिवाज़ों और समाज की तथाकथित संस्कृति को आंख मूंद कर स्वीकार नहीं करता। प्रेम, प्रश्न करता है और उन सवालों से पोंगापंथी की तमाम इमारतें बिखर जाती हैं और तर्क के नींव पर विचारों का नवीन महल सृजित होता है।
'मांझी-द माउंटेन मैन' को देखना भी रोचक होगा क्योंकि इस साहस, धैर्य और सतत प्रयासों की बानगी पेश करने वाली असल कथा के पीछे भी प्रेम है। गोयाकि एक अति कोमल भाव, कठोर से कठोर और कठिन से कठिन काम को करा देने का माद्दा रखता है। ये महज एक संयोग है कि अपनी हाल ही में प्रकाशित पुस्तक ''ये हौसला कैसे झुके'' में भी मैंने एक बिन्दु लिखा है 'प्रेम ही बनता है हौसले की वजह'। जीवन में बाधाओं को चीरकर छोटे या बड़े चाहे किसी भी लक्ष्य तक पहुंचे व्यक्ति को देखा जाये उसके पार्श्व में प्रेम ही प्रेरणा का कारण होता है। दशरथ मांझी की कथा प्रसिद्ध है इसलिये हम उन्हें जानते हैं...पर कई छोटी-बड़ी सैंकड़ों मिसाल पेश करने वाली सुप्त कथाएं भी प्रेम से ही पल्लवित और सुरभित होती आई हैं किंतु प्रेम से शून्य हृदय इस बात को नहीं समझ सकता।