सचिन, सौरव, राहुल, लक्ष्मण के बाद अब आखिरकार वीरेन्द्र सेहवाग ने भी क्रिकेट को अलविदा कह दिया और इस तरह अब मुझे ये पूरी तरह स्वीकार कर लेना चाहिये कि मेरे जीवन का एक पड़ाव पूरी तरह से गुजर चुका है और मैं जीवन की मध्यावधि में प्रविष्ट होते हुए अब अधेड़ उम्र की ओर बढ़ने के लिये तैयार हूँ। जिस तरह से हम आजादी के बाद वाले भारत को तीन भागों में बांटते हैं- आपातकाल के पहले का दौर, आपातकाल के बाद से उदारवाद के पहले तक का दौर और तीसरा उदारवाद आने के बाद वाला दौर। कुछ उसी तरह भारतीय क्रिकेट खास तौर से वनडे क्रिकेट को भी तीन भागों में बांट सकते हैं- उन्नीस सौ पिचहत्तर से उन्नीस सौ नब्बे तक, उन्नीस सौ नब्बे से वर्ष दो हजार तक का दौर और दो हजार के बाद से अब तक का दौर।
पहले टेस्ट क्रिकेट की प्रवृ्त्ति ही क्रिकेट पर हावी थी, बाद में वनडे क्रिकेट का सुरूर लोगों पे छाया और अब टी-20 का दौर है। वर्तमान को हम विगत तीनों दौर का सम्मिश्रण कह सकते हैं जहाँ तीनों प्रवृत्तियां कम या ज्यादा रूप से सामानांतर प्रवाहित हो रही हैं। इन तीनों दौर के तीन स्तंभ हम मान सकते हैं-सुनील गावस्कर, सचिन तेंदुलकर और तीसरे के वीरेन्द्र सेहवाग को। सेहवाग नवसंस्कृति या न्यू एज्ड जनरेशन के प्रतिनिधि थे जिनकी शैली वर्तमान के युवाओं की प्रवृत्ति को बताने वाली थी। जहां कम समय में बहुत कुछ पाने या तेजी से अपने लक्ष्य तक पहुंचने की बेतावी विद्यमान है। भले इस पीढ़ी को बड़े-बुजुर्गों द्वारा आलोचनात्मक दृष्टि से देखा जाये किंतु ये अपनी धुन में मस्त तेजी से सफलता के नये कीर्तिमान स्थापित करने मे यकीन करता है और बने बनाये हर रिवाज-रीति-नीति और दर्शन से परे ये स्वयं का अपना ही अलग दर्शन विकसित करता है और उसको ही सही साबित करना इसका अंतिम लक्ष्य है। सेहवाग भी कुछ ऐसे ही थे।
यहां पूर्व की तहर सब्र नहीं था और जब हम सेहवाग को बल्लेबाजी करते हुए देखते थे तो यह मानना मुश्किल लगता था कि कभी सुनील गावस्कर ने साठ ओवर तक क्रीज़ पर रहते हुए महज छत्तीस रन बनाये होंंगे। सेहवाग और सेहवाग के समानांतर ही विकसित कई अन्य खिलाड़ियों की शैली का ही नतीजा था टी-20। उन्नीस सौ पिचहत्तर में भले वनडे क्रिकेट शुरु हो गया था किंतु लंबे अरसे तक उस पर टेस्ट का ही साया नजर आता रहा। बाद में सचिन तेंदुलकर, सईद अनवर, सनत जयसूर्या जैसे खिलाड़ियों के चलते वनडे ने अपना रोमांच अख्तियार किया और छह या सात की रनगति से बनने वाले स्कोर को देख इस खेल पर बल्लेबाजों का वर्चस्व नजर आने लगा। कालांतर में आठ और दस का रनरेट भी बौना नजर आने लगा तथा पचास ओवर के खेल में चार सौ रनों के लक्ष्य को भी पार होते देखा। ये सेहवागीय प्रवृत्ति का ही असर था जिन्होंने टेस्ट क्रिकेट को भी वनडे और फिर टी-20 सरीका बना डाला।
मुझे आज भी अच्छे से याद है कि जिस आस्ट्रेलिया के भारत दौरे पर लक्ष्मण ने ऐतिहासिक 281 रनों की पारी खेली थी उसी दौरे की वनडे सीरिज के पहले मैच में सेहवाग ने 58 रन और तीन विकेट का ऑलराउंडर प्रदर्शन करते हुए टीम इंडिया को जीत दिलाई थी। इस प्रदर्शन के बाद सेहवाग वनडे टीम में अपनी जगह पक्की कर चुके थे बाद मे उसी वर्ष श्रीलंका में हुई एक त्रिकोणीय श्रंख्ला में सचिन के स्थान पर संयोग से सेहवाग को ओपनिंग करने का मौका मिला और इस सीरिज में 67 गेंदों पर उनके धुंआधार शतक ने टीम इंडिया को नया मास्टर ब्ल़ॉस्टर दे दिया। इस सीरिज के बाद टीम दक्षिण अफ्रीका दौरे पर गई जहाँ सेहवाग को टेस्ट क्रिकेट में पदार्पण का अवसर मिला और उन्होंने यहां भी पहले टेस्ट में ही शतक बना टेस्ट टीम में भी अपनी दावेदारी मजबूत कर ली। इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। बाद में एक अदद टेस्ट ओपनर के लिये तरस रही टीम इंडिया के लिये कप्तान गांगुली ने सेहवाग को बतौर सलामी बल्लेबाज उतार एक दाव खेला। उसके बाद की कहानी सबके सामने हैं। सेहवाग टीम इंडिया के कभी न भुलाये जा सकने वाले ओपनर बने। सेहवाग खेल रहे हों तो टेस्ट क्रिकेट भी अपने पूरे सबाव पर होता था। गावस्कर, अमरनाथ, तेंदुलकर, द्रविड़, लक्ष्मण जैसे महान् भारतीय टेस्ट बल्लेबाज जो नहीं कर पाये वो सेहवाग ने किया और दो बार तिहरे शतक के आंकड़े को पार किया। एक वनडे शैली के धाकड़ बल्लेबाज ने टेस्ट क्रिकेट में जो उपलब्धियां हासिल की उसने टेस्ट क्रिकेट की सारी परंपराओं को झुठला दिया और आज टेस्ट क्रिकेट में आये बदलाव में सेहवाग के योगदान को ही कम या ज्यादा रूप से मानना पड़ेगा।
सेहवाग टेस्ट में नंबर वन बनी टीम इंडिया के सदस्य रहे, 2003 की वर्ल्डकप उपविजेता, 2007 की टी-20 विजेता, 2011 की वनडे विश्वकप विजेता सहित सभी अहम् उपलब्धियों में सेहवाग टीम इंडिया के हिस्से थे और कई महत्वपूर्ण जीतों में टीम के सूत्रधार भी रहे। अपनी बल्लेबाजी से खेलप्रेमियों को अथाह खुशियां देने वाले सेहवाग के लिये न भूतो-न भविष्यति कहा जाये तो अतिश्योक्ति न होगी। बेशक उन जैसा धुंआधार कई खिलाड़ी खेलते हैं उनके रिकॉर्ड भी सेहवाग से बेहतर हो सकते हैं। लेकिन सेहवाग जैसा मस्तमौलापन, खिलंदड़ अंदाज वे कहाँ से लायेंगे। एक ऐसा खिलाड़ी जो भारतीय क्रिकेट में पहली बार तिहरा शतक मारने जा रहा है लेकिन फिर भी उसे इस ऐतिहासिक क्षण का हिस्सा बनने के लिये न सब्र करना गंवारा है और न ही किसी अतिरिक्त दबाव को अपने ऊपर हावी होने देना। उसे कीर्ति के शिखर पर विराजने के लिये सबसे आसान तरीका छक्का मारना ही नजर आता है और वो इस काम को बखूब अंजाम भी देता है। कोई माने या न माने किंतु ये बस सेहवाग के ही वश की बात थी।
कहते हैं मंजिल पे पहुंचकर तो सबको मजा आता है दम तो तब है जब सफर में भी मजा आये। सेहवाग उन लोगों में से थे जो सफर का भी बखूब लुत्फ़ उठाते थे..................