Friday, April 16, 2021

लगेगी आग तो आएंगे घर कई जद में....

 महाभारत में एक प्रसंग है जहां यक्ष द्वारा युधिष्ठिर से जो अनेक प्रश्न पूछे गए उनमें आखिरी था-

दुनिया का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है?

जिसपर युधिष्ठिर ने जवाब दिया-

अहन्यहनि भूतानि गच्छन्तीह यमालयम्।

शेषाः स्थावरमिच्छन्ति किमाश्चर्यमतः परम्॥

 (अर्थात-हर रोज आंखों के सामने कितने ही प्राणियों की मृत्यु हो जाती है यह देखते हुए भी इंसान अमरता के सपने देखता है। विश्व मे इससे महान आश्चर्य और क्या होगा?)

 


इसी यक्ष प्रश्न को आधार लेके अटल बिहारी वाजपेयी ने कविता लिखी थी-


जो कल थे,

वे आज नहीं हैं।

जो आज हैं,

वे कल नहीं होंगे।

होने, न होने का क्रम,

इसी तरह चलता रहेगा,

हम हैं, हम रहेंगे,

यह भ्रम भी सदा पलता रहेगा।


अपने सामने मौत का मचा यह तांडव देखके भी हृदय में कोई कौंध नहीं उठती, वैराग्य नही जगता। मसलन, सद्विचार के अनेक कारण मिलने पर भी सम्यक परिणमन नही होता। सोचें, हम क्यों चाहते हैं कि ये महामारी दूर हो? ताकि हम फिर से अतृप्त वासनाओं, कामनाओं, अपने अहम, काम-क्रोध व मोह को जी सकें। महत्वाकांक्षाओं के नाम पे अपने स्वार्थ व लालच को पूरा कर सकें। 

क्या है ये जो इस महान विपदा में भी लोगों को 'रेमडेसिवीर' की कालाबाज़ारी करने, 100 की दाल 120में बेचने, जिंदगियों को ताक पे रखके नेताओं को चुनाव लड़ने के लिए प्रेरित करता है। वास्तव में ये जो भी है न ये कोरोना से भी खतरनाक वायरस है।

कोरोना देर सबेर चला जायेगा पर ये स्वार्थ, लालच, अहंकार, वासनाओं और अतृप्त इच्छाओं का वायरस आखिर कब जाएगा? क्या बनेगी इसके लिए भी कोई वैक्सीन?

आचार्य पूज्यपाद 'इष्टोपदेश' में लिखते हैं-

विपत्तिमात्मनो मूढ़ः परेषामिव नेक्षते।

दह्यमान- मृगाकीर्णवनांतर- तरुस्थवत्।।

(यानि जंगल मे लगी आग की ज्वाला से जल रहे मृगों से आच्छादित वन के मध्य खड़े पेड़ पर बैठे मनुष्य की तरह मूर्ख प्राणी अन्य की विपत्ति/मृत्यु तो देखता है पर अपनी विपत्ति की सुध नहीं लेता।)

ये विपत्ति भी एक ऐसा ही मेगा अलार्म है जो हमें उस नींद से जगा रहा है जिसके आगोश में हम खुद को इतना बड़ा समझ बैठे हैं कि 'कोई और' व 'कुछ और' नज़र ही नहीं आता। बस अब फिर कहीं हम इसे Snooze करके न सो जाएं।

अहमद फ़राज़ लिखते हैं-

मैं आज ज़द पे अगर हूँ, तो ख़ुश-गुमान न हो।

चराग़ सब के बुझेंगे, हवा किसी की नहीं।।


~अंकुर


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