वर्तमान में आम धारणा रही है कि महिला शिक्षा के क्षेत्र में ब्रिटिश काल के बाद जागरुकता आई है जबकि प्राचीन भारत में ऐसे कई पौराणिक ऐतिहासिक व साहित्यिक उल्लेख प्राप्त होते हैं जहां नारी की बौद्धिकता के प्रमाण मिलते हैं, बल्कि कन्या को भी विवाह के लिये ऐसे वर चुनने की समझाईश दी जाती है जो पुरुष धन संपन्न नहीं बल्कि बुद्धि संपन्न हो और व्याकरण, साहित्य, दर्शन, विज्ञान व अध्यात्म विद्या का पारगामी हो, ऐसे ही कुछ रोचक उद्धरण देखिये....
अजर्घा यो न जानाति यो न जानाति वर्वरी।
अचिकमत यो न जानाति तस्मै कन्या न दीयताम्।।
अर्थात्- अजर्घा, वर्वरी और अचिकमत इन पदों की सिद्धि जो न जानता हो उसे कन्या नहीं देनी चाहिए।
व्याकरण न जानने वाले का विवाह होना कठिन हो सकता है। देखिये वर को नकारने का कन्या द्वारा दिया गया बौद्धिक तर्क-
"यस्य षष्ठी चतुर्थी च विहस्य च विहाय च।
यस्याहं च द्वितीया स्यात् द्वितीया स्यामहं कथम्।।"
अर्थात्- 'जिसके लिए विहस्य, विहाय और अहम् क्रमशः षष्ठी, चतुर्थी और द्वितीया विभक्ति के रूप हों, मैं उसकी पत्नी कैसे बन सकती हूँ!'
व्याकरण की अशुद्धि के कारण राजा भोज को एक लकड़हारिन से अपमानित होना पड़ा था-
"भूरिभारभराक्रान्तस्तत्र स्कन्धो न बाधति?
न तथा बाधते राजन् यथा बाधति बाधते।"
अर्थात्-
राजा भोज लकड़हारिन से पूछते है~ भारी बोझ उठाते तुम्हारे कंधे नहीं दुखते?
जिस पर लकड़हारिन का उत्तर~ बोझ से नहीं, राजन्! 'बाधते' के स्थान पर 'बाधति' सुनकर अधिक कष्ट होता है!
इसी तरह पिता द्वारा व्याकरण पढ़ने के लिये पुत्र को प्रेरित करने का रोचक उदाहरण देखिये-
यद्यपि बहुनाधीषे तथापि पठ पुत्र व्याकरणम्।
स्वजनः श्वजनः मा भूत् सकलः शकलः सकृत्छकृत्।।
बेटे, व्याकरण इसलिए भी पढ़ो कि उच्चारण में स और श का अंतर न जानने से ही अनर्थ हो सकता है। जैसे:
स्वजन – संबंधी,
श्वजन – कुत्ता।
सकल – सम्पूर्ण,
शकल – खण्ड।
सकृत् – एक बार,
शकृत् – विष्ठा।
वैदिक काल में स्त्रीशिक्षा के दो रूप थे-1. सद्योवधू (वे विवाह होने से पूर्व ज्ञान प्राप्त करने वाली) तथा २. ब्रह्मवादिनी (ब्रह्मचर्य का पालन कर जीवनपर्यंत ज्ञानार्जन करने वाली)। ऋग्वेद में गार्गी, मैत्रेयी, घोषा, गोधा, विश्ववारा, अपाला, अदिति, इन्द्र्राणी, लोपामुद्रा, सार्पराज्ञी, वाक्क, श्रद्धा, मेधा, सूर्या व सावित्री जैसी अनेक वेद मंत्रद्र्रष्टा विदुषियों का उल्लेख मिलता है जिनके ब्रह्मज्ञान से समूचा ऋषि समाज आह्लादित था। जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने अपनी पुत्रियों ब्राह्मी-सुंदरी को विविध विषयों का गहन प्रशिक्षण दिया, "ब्राह्मी लिपि" उनकी पुत्री के नाम पर ही प्रचलित हुई।
इसी तरह आश्वालायन के गृहसूत्र में गार्गी, मैत्रेयी, वाचक्नवी, सुलभा, वडवा, प्रातिथेयी आदि शिक्षिकाओं के नाम मिलते हैं जिन्हें उपाध्याया का सम्बोधन दिया गया है। महाभारत में काशकृत्स्नी नामक विदुषी का उल्लेख है जिन्होंने मीमांसा दर्शन पर काशकृत्स्नी नाम के ग्रंथ की रचना की थी। इसके अलावा 8वी सदी में मिली रूसा नाम की एक लेखिका की एक कृति में धातुकर्म पर अनेक विवरण मिलते हैं। 12वीं सदी में भास्कराचार्य ने अपनी पुत्री लीलावती को गणित का अध्ययन कराने के लिए लीलावती ग्रंथ की रचना की थी।
महिला शिक्षा के ये विविध उद्धरण निश्चित ही गौरवान्वित करते हैं; साथ ही पद, प्रभाव, पैसा और प्रतिष्ठा जैसे मापदंडों पर ज्ञान का वर्चस्व स्थापित करते हैं।
-अंकुर