Tuesday, July 30, 2024

जुलाई, पीएचडी और बीते हुये वो 14 साल....

अपने 36वें जन्मदिवस की पूर्व संध्या पर आज डॉक्टरेट ऑफ फिलोसोफी "पीएचडी" उपाधि प्राप्त होने की अधिसूचना प्राप्त हुई। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय से एमएससी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के अध्ययन के अंतिम वर्ष में ही बतौर प्राध्यापक बनकर अपने करियर को दिशा देने का ख्याल मन में आया था जिसका पहला पायदान पीएचडी की डिग्री लेना ही था... लिहाजा उस दौर में मेरे लिये एक अति महत्त्वाकांक्षी कार्य पीएचडी करना ही था किंतु कालांतर में जीवन की अनेक घटना प्रघटनाओं के चलते अपनी ये आकांक्षा कुंद होती चली गई और जीवन एक अलग ही दिशा में गतिमान होते हुये अपने को गढ़ रहा था।

30 जुलाई 2024 को जब पीएचडी का ये नोटिफिकेशन प्राप्त हुआ तो बीते चौदह वर्ष मानो आंखों के सामने एक बार फिर घूम गये। फ्लैश बैक में जाने पर बचकाने सपने, करियर बुनने की जद्दोजेहद, महत्वाकांक्षाओं की बाढ़ और अदृश्य भविष्य की धुंधली तस्वीरों में खोया चित्त... सब कुछ मानो एक बार फिर सामने तैर गया। जुलाई का महीना यूं तो मेरे जन्म का माह होने से हमेशा ही अन्य महीनों की तुलना में कुछ खास रहा है लेकिन मेरी पीएचडी के विभिन्न चरणों के दरमियान भी जुलाई माह की तारीखें अहम् रही हैं लिहाजा 14 सालों के सफर में जुलाई की तारीखें अनायास ही याद आ जाती हैं।

पीएचडी का ये सफर 6 जुलाई 2010 को उस वक्त शुरु हुआ... जब माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय द्वारा पहली बार पीएचडी के एंट्रेंस टेस्ट की अधिसूचना जारी की गई। पीएचडी के लिये छह माह का कोर्स वर्क उस वक्त नया-नया ही इंट्रोड्यूस हुआ था लिहाजा पत्रकारिता के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय से पीएचडी करने के लिये संचार एवं पत्रकारिता में अध्ययन कर चुके सैंकड़ों युवा सपने पीएचडी करने को तैयार थे, उनमें ही एक 22 साल का लड़का जो हाल ही में अपनी मास्टर और एमफिर पूरी कर पीएचडी करने की बाट जोह रहा था। फिर क्या था 6 जुलाई 2010 को फॉर्म भरा गया और तभी से यूजीसी नेट के साथ साथ इस एंट्रेंस की तैयारी भी शुरु कर दी।

हालांकि, युवा अवस्था का ये वक्त बड़ा उलझनों भरा होता है जब एक अनजाने करियर को संवारने के लिये आप कोशिशों में लगे होते हैं तो दूसरी ओर इसी वक्त अतृप्त लिप्साएं, महत्वाकांक्षाओं का गुबार, अधीरता, मोहब्बत के जज़्बात और अन्य यौवनिक चपलताएं चित्त को गुमराह किये रहते हैं। फिर भी अपने सपने के पीछे दौड़ते हुये वो तारीख आई जब 9 जनवरी 2011 को इस पीएचडी का इंट्रेंस टेस्ट दिया। महज 22 साल 6 माह की उम्र में पीएचडी की राह में आगे बढ़ते हुये ख्यालों का परिंदा उड़कर उस दौर में पहुंच गया था कि लगने लगा मानो 25 या 26 वर्ष की उम्र में ही ये युवा अंकुर से, डॉ अंकुर हो जायेगा।

किंतु नियति को कुछ और ही मंजूर था... वक्त के साथ ये कोशिशें असफल होती चली गईं... कई विषमताएं जीवन में आती गईं, निराशाओं के भंवर मंडराने लगे और ऐसा दौर भी आया जब पीएचडी जो कभी पहली प्राथमिकता थी वो अब प्राथमिकता सूची में कहीं रही ही नहीं और दूसरी जिम्मेदारियों को पूरा करना अधिक जरुरी बन पड़ा। इक दौर ऐसा भी आया कि जब पीएचडी के प्रयास से सरेंडर ही कर देने का मन हुआ, पर रास्ते में कुछ जामवंत मिलते चले गये और इस हनुमान ने पीएचडी का ये समंदर पार कर ही लिया। इस उड़ान में ज़िगर मुरादाबादी का शेर कुछ बदले हुये अंदाज में यूँ याद आता रहा-

ये पीएचडी नहीं आसां, बस इतना समझ लीजिये।

कुछ अड़चनों का दरिया है, और 'सब्र' से जाना है।।

तो इक पैराग्राफ में इस सफर को बतायें तो ये कुछ यूं रहा कि 9 जनवरी 2011 को एंट्रेंस हुआ, 27 मार्च 2011 को एंट्रेंस का परिणाम आया, 12 नवंबर 2011 से कोर्स वर्क शुरु हुआ, जिसकी परीक्षा 24 जुलाई 2012 को हुई, फिर करीब 2-3 महीने बाद इस प्री-पीएचडी परीक्षा का परिणाम आया। फरवरी, 2013 में सिनोप्सिस जमा करी, 16 जुलाई 2013 को आरडीसी हुई लेकिन पता चला कि मेरी सिनोप्सिस कहीं मिसप्लेस होने से जमा ही नहीं हुई लिहाजा आरडीसी न हो सकी। सपनों की हवा कैसे निकलती है इसका अहसास बड़ा जोर से हुआ। अगली आरडीसी 12 फरवरी 2015 को हुई, एक बार फिर सिनोप्सिस को पीएचडी के लिये उपयुक्त नहीं पाया गया। फिर सिनोप्सिस का विषय परिवर्तित कर पुनः इसे जमा किया गया,  15 अक्टूबर 2016 को आरडीसी हुई किंतु एक बार फिर सिनोप्सिस को उपयुक्त नहीं पाया गया। करीब 6 साल और 3 आरडीसी की असफलताएं पर्याप्त थीं कि मैं ये ख्याल छोड़ दूं कि अब पीएचडी करना है। जबकि मेरे सहपाठी अनेक अभ्यर्थी इस दौर में अपनी पीएचडी थीसिस जमा करने के करीब पहुंच चुके थे।

इस गुजरे हुये वक्त में इस नाचीज़ ने ज़िंदगी के कई दौर देख लिये थे। मसलन, पीएचडी एंट्रेंस का रिजल्ट आने के 5 दिन बाद स्वास्थ्य कारणों से अस्पताल में भर्ती होना पड़ा, पता चला कि मामला गंभीर है... फिर 18 मई 2011 को रीनल ट्रांस्प्लांट जैसी बड़ी सर्जरी से गुजरा। रिकवरी के दौर में ही कोर्स वर्क पूरा किया। बतौर व्याख्याता एक मीडिया कॉलेज में अध्यापन किया। दिल भी टूटा। सिविल सर्विसेज की तैयारी की, कुछ परीक्षाएं उत्तीर्ण भी की। इसी दौर में फरवरी 2014 में प्रसार भारती की एक परीक्षा पास कर, 27 मार्च 2014 से दूरदर्शन समाचार भोपाल में  बतौर आलेख संपादक सेवा शुरु हुई, जो अब तक जारी है। 17 जनवरी 2015 को विवाह बंधन में बंधा, 24 अप्रैल 2018 को पहली बार पितृत्व के अहसास से गुजरा, और 26 फरवरी 2021 को एक बार फिर अपने जीवन में एक नन्ही परी का प्रवेश हुआ। अकदामिक स्तर पर बात करूं तो इस दौर में डिस्टेंस से अध्ययन करते हुये एजुकेशन, हिन्दी, फिलोसोफी से मास्टर डिग्री पूरी की, हिस्ट्री से एमए अब भी जारी है। बैकग्राउंड में पीएचडी भी चलती रही। 

जिसके रजिस्ट्रेशन के लिये अंततः आरडीसी 16 जुलाई 2018 को हुई थी और 30 जुलाई 2018 को रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया पूरी हुई थी। "दूरदर्शन और निजी समाचार चैनलों की विकासात्मक खबरों का तुलनात्मक अध्ययन" विषय पर शोधकार्य की यहाँ से शुरुआत हुई। हर साल पीएचडी की छह माही प्रोग्रेस रिपोर्ट, वार्षिक प्रस्तुतिकरण, प्री-सब्मिशन जैसी प्रक्रियाओं को पूरा करते हुये और कोविड के दौर में हिचकोले खाता हुआ यह सफर आखिरकार 23 जुलाई 2024, सावन की दूज यानि हिन्दी तिथि अनुसार मेरे जन्मदिन पर पीएचडी के फाइनल वाइवा के साथ पूरा हुआ, जिस पर आखिरी मोहर 26 जुलाई 2024 को अधिसूचना जारी होने के साथ लगी और विश्वविद्यालय का यह उपहार मुझे अपने जन्मदिवस के ठीक एक दिन पहले प्राप्त हुआ। इस दौर में कई शोधपत्र लिखे, कई शोध संगोष्ठियों में प्रस्तुतियां दीं जिनमें वर्ष 2023 में युनिवर्सिटी ऑफ लंदन में प्रस्तुत किया गया शोधपत्र भी शामिल है। इन सबसे काफी कुछ सीखने, समझने और अनुभव करने को मिला।

इस सफर के सहयोगियों की बात करूं तो अनेक लोगों की वजह से ही ये मुकाम मुमकिन हो सका है। मुझे नहीं पता दूसरों के लिये पीएचडी कितनी आसान या कठिन होती है पर मेरे लिये ये जीवन का एक दौर ही था जिसे सतत् कोशिशों, सब्र, इंतजार, इम्तिहान, अनेक लोगों की प्रेरणा, सहयोग और मुकद्दर से हासिल कर पाया हूँ। मेरा पुरुषार्थ तो इसमें बस यही रहा कि गिव अप न कर इस प्रवाह में मैं बना रहा। विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. के जी सुरेश सर, मेरे शोध के मार्गदर्शक डॉ संजीव गुप्ता सर, इलेक्ट्रानिक मीडिया विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष डॉ श्रीकांत सिंह सर, मेरे मित्र हुसैन ताबिश, चंदन सिंह, अर्जुन गोटेवाल, पंकज शर्मा, हितेश शुक्ला, पूजा मिश्रा सहित कई लोगों का प्रत्यक्ष परोक्ष सहयोग इस कार्य में रहा। साथ ही माता पिता, पत्नी, बच्चे, परिवार, अपने ऑफिस के सहकर्मी, अधिकारी आदि की प्रेरणा और सहयोग भी सतत् इस कार्य में आगे बढ़ाने वाला रहा। हर तरह से साथ के लिये इन सबके प्रति अत्यंत कृतज्ञता से ये दिल भरा हुआ है।


अपने इस शोध कार्य में यदि इंट्रेंस देने, कोर्स वर्क करने के समय से लेकर अब तक का काल इसमें जोड़ दूं तो 14 साल के बाद ये शोध प्रबंध सामने आया है। आखिर में अर्जित चर्चित बन पड़ता है पर असल में पग पग पर सीखी गई छोटी छोटी बातों से ही जीवन गढ़ता है। हर अर्जित ज्ञान अपने परम गंतव्य के पथ का पाथेय ही है इन पड़ावों में न अटक, मूल लक्ष्य को भेदने की दृष्टि प्रगाढ़ हो इसी भावना के साथ सबके सहयोग और शुभकामनाओं को विनम्रता से स्वीकारते हुए आभार जताता हूं।

वस्तुतः पीएचडी ने अनुसंधान की आंशिक समझ भर पैदा की है अन्वेषण का ये सफर तो सतत् अब भी जारी है... आत्मअनुसंधान के परम गंतव्य को पाकर ही, अंततः ये खोज पूरी हो सकती है और तब तक मैं शोधार्थी ही बना रहना चाहता हूँ।

अस्तु।