Saturday, March 27, 2010

यादों की जुगाली


अक्सर लोगों के सेल फोन में एक मैसेज पड़ने को मिलता है.."वादे और यादें में क्या फर्क है, जिसका उत्तर है-वादे इन्सान तोड़ते हैं, और यादें इन्सान को तोड़ती हैं।" क्या वास्तव में यादें इतनी निर्मम होती हैं जबकि इन्सान उन्हें रंगीन कहता है, उनके सहारे जिंदगी गुज़ारने की बात करता है। खैर.....

दरअसल इन्सान के नन्हे से दिल में स्थित स्मृतियों का समंदर ही उसे एक सामाजिक प्राणी बनाता है जिसके बल पर वह ताउम्र आचार-विचार और व्यवहार करता है। यादों का विसर्जन पागलपन की शुरुआत है। यादों का कमजोर होना इन्सान का कमजोर होना है। फिर कैसे उन्हें निर्मम कहा जा सकता है, जालिम कहा जा सकता है।

इन्सान का टूटना उसकी अपनी वैचारिक विसंगति है, उसमें यादों को दोष नहीं दिया जा सकता। अतीत की कड़वाहट का असर यादों पर नहीं पड़ता, इसलिए शायद कहा जाता है कि "अतीत चाहे कितना भी कड़वा क्यों हो उसकी यादें हमेशा मीठी होती है। दरअसल यादें तो मीठी होती है नाही कड़वी, यादें तो बस यादें होती है। इन्सान अपनी तत्कालीन परिस्थितियों के अनुसार उन पर अच्छा या बुरा होने का चोगा उड़ा देता है।

यादों का जीवन में अमूल्य स्थान है, यादें ही मनुष्य को कुदरत कि असीम संरचनाओं से अलग करती हैं। इन यादों पर ही गीत है, संगीत है, साहित्य है, संस्कृति है, धर्म है सारा समाज है। हिंदी फिल्मों में तो यादें समरूपता से नजर आने वाला विषय है। कालिदास के प्रसिद्ध नाटक "अभिज्ञान शाकुंतलम" का क्लाइमेक्स ही यादों के विस्मरण पर केन्द्रित है। यादों में इश्क है, नफरत है, दोस्ती है, दर्द है, ख़ुशी है, हसरत है और सबसे बड़ी चीज यादों में यादें हैं।

इन यादों के सहारे ही आदमी तन्हाइयों में भी तन्हा नहीं होता, तो कभी-कभी भीड़ में भी तन्हा हो जाता है। नमस्ते लन्दन फिल्म के एक गीत में जावेद अख्तर ने लिखा है-"कहने को साथ अपने इक दुनिया चलती है पर चुपके इस दिल में तन्हाई पलती है...बस याद साथ है तेरी याद साथ है" इस दुनिया से इन्सान चला जाता है पर कम्बख़त यादें नहीं जाती। लेकिन यादों का स्थायित्व भी सदा के लिए नहीं है दिल में बसने वाली यादें उसके रुकने के साथ ही ख़त्म हो जाती है।

दरअसल इन्सान यादों से दुखी नहीं होता, नाही उनसे टूटता है उसके दुःख का कारण यादों में छुपी हसरतों कि पूर्ति हो पाना है या यादों के माध्यम से सफलता की जुगाली है। सफल या सितारा व्यक्ति के सफल दिनों में गूंजा तारीफ का स्वर गैरसितारा दिनों में भी सुनाई देता है। सितारा दिनों में बजी तालियों की गडगडाहट, यादों में आज भी कायम रहती है। यादों की जुगाली में आज को जी पाना दुःख का कारण है। इन्सान को यादों का नहीं हसरतों का सैलाब तोड़ता है।

अतीत की यादों का हथोडा हम आज पर मारकर अपना भविष्य ज़ख्मी करते हैं। अतीत से हमें सिर्फ यादें मिलती हैं और यादों का कोई भविष्य नहीं होता। जिंदगी आज में जीने का नाम है, यादों की जुगाली से इसे गन्दा करना समझदारी का काम नहीं है।

दिल से यादों को नहीं अपनी इच्छाओं को समेटना होगा। मरकर भी किसी की यादों में जीने की हसरत मिटाना होगी, यश का लोभ समुद्र में विसर्जित करना होगा। इस झूटे संसार का राग भी झुटा है, इन्सान के मरने के बाद उसे यादों में भी जगह नहीं मिलती। आकाश के टूटते तारों से आकाश को कोई फर्क नहीं पड़ता, ज़मीन पर हमारी भी वही स्थिति है। कभी-कभी फिल्म के इक गीत में कुछ बोल इस तरह हैं-"क्यों कोई मुझको याद करे..क्यों कोई मुझको याद करे, मशरूफ ज़माना मेरे लिए क्यों वक़्त अपना बर्बाद करे...मै पल दो पल का शायर हूँ"
यादों की क्या अहमियत है, कितनी जरुरत है, निर्णय आप स्वयं करे, फैसला आप सब पर है। सबके फैसले अलग-अलग आयेंगे इससे मुझे आश्चर्य नहीं होगा। यादों की अहमियत सबके लिए जुदा-जुदा है। प्रतिक्रिया देकर यादों के विषय में ज़रूर बताएं........
अंकुर'अंश'

Tuesday, March 16, 2010

खान बनाम इडियट्स....




दो बड़े सितारे, दो बड़ी फ़िल्में मुकाबला महज फिल्म को हिट-सुपरहिट कराने का नहीं था, मुकाबला था बादशाहत का। मुकाबले में इंडस्ट्री के दो बड़े सितारे शुमार थे और ये इनके बीच पहला मुकाबला नहीं था। इससे पहले भी ये रब की जोड़ी और गजनी को मैदान में लड़ा चुके हैं। उस दौरान आमिर ने बाद में ज़िम्मा संभाला था इस बार शाहरुख़ बाद में मैदान में आये।

बहरहाल परिणाम सबके सामने आ चूका है 'इडियट्स ' हिंदी सिनेमा की सर्वकालिक महान फिल्मों में शामिल हो गयी है जबकि 'माय नेम इज खान' शाहरुख़ की खुद की फिल्मों में ही सर्वश्रेष्ठ नहीं है। न तो ये ' चकदे ' जैसी क्रिटिकली हिट है नाही DDLJ या 'कुछ-कुछ होताहै ' जैसी कमर्शियल हिट है। एक बेहद औसत फिल्म है जिसे शाहरुख़ महानतम होने का भ्रम पाल रहे हैं।

आमिर ने हमेशा आग में हाथ डालकर नगीने बाहर निकाले हैं। चाहे आशुतोष गोवारिकर की वो स्क्रिप्ट हो जिसे दर्जनों दरबाजों पर नकार दिया था उसी स्क्रिप्ट पर आमिर ने 'लगान' रचकर आस्कर का दरबाजा खटखटाया। 'तारे ज़मीन पर जैसे नान कमर्शियल सब्जेक्ट पर सिनेमा बनाकर वाहवाही लूटी। 'अक्स' जैसी फ्लाप फिल्म के निर्देशक से 'रंग दे बसंती' जैसी महान फिल्म बनवाई। वहीँ शाहरुख़ की सारी सफलता चोपड़ा केम्प के इर्द-गिर्द घूमकर दम तोड़ देती है और जब वे खुद फिल्म निर्माण में उतरते हैं तो 'हे राम', 'फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी' और 'बिल्लू' जैसे डिब्बों को जन्म देते हैं।
'माय नेम इज खान' का विषय उम्दा था और ये एक बेहद उम्दा फिल्म हो सकती थी अगर ये शाहरुख़ के प्रभाव से मुक्त होकर मात्र करण जौहर की फिल्म होती। प्रसिद्ध फिल्म समीक्षक जयप्रकाश चौकसे ने कहा था कि ''शाहरुख़ पूरी फिल्म में इस भाव से ग्रस्त नज़र आ रहे हैं मानो वे कोई इतिहास रचने जा रहे है' इस भाव के करण ही शाहरुख़ स्वाभाविक शाहरुख़ नहीं रह जाते।
सारी फिल्म एक विशिष्ट पक्ष की ओर झुकी है इस फिल्म से ज्यादा निष्पक्ष प्रस्तुतिकरण करण की 'कुर्बान' में देखने को मिला। फिल्म के संवाद और काजोल का अभिनय तारीफे काबिल है। बाकि पूरी फिल्म एक खास वर्ग की ही तालिया बटोरसकी। ये एक कम्प्लीट पैकेज नहीं हैं। शाहरुख़ को बाला साहेब का शुक्रिया अदा करना चाहिए जिनके कारण फिल्म को शुरूआती भीड़ मिल गयी। फिल्म देखकर मीडिया कि हकीकत भी जान पड़ती है जो वेश्यावत बर्ताव करती है। मीडिया चेनल जिस भांति फिल्म का महिमा मंडन कर रहे थे वैसा फिल्म में कुछ नहीं है। वे सभी चेनल फिल्म के मीडिया पार्टनर थे।

दूसरी ओर बात 'थ्री इडियट्स ' की हो तो नाम सुनते ही दिल में गुदगुदी होने लगती है। इस फिल्म कि सफलता का कारण मात्र आमिर हों ऐसी बात नहीं है वे तो बस इस सफलता में शुमार कई लोगों में से एक हैं। लेकिन फिल्म चयन और समर्पण उनका अपना है। लोग कहते हैं फिल्म निर्माण में आमिर दखलंदाजी करते हैं मगर इस फिल्म में यदि हिरानी सही थे तो उन्होंने कुछ सुधार नहीं किया तथा उनके हाथ कि कठपुतली बनना ही मंज़ूर किया।

शाहरुख़ और आमिर में कौन श्रेष्ठ है ये मैं बताना नहीं चाहता, ये सबकी अपनी-अपनी पसंद है। मैं सिर्फ उस फिल्म कि तारीफ कर रहा हूँ जो लोगों के लिए एक फिल्म से बढकर एक पुराण बन गयी। उस फिल्म के विषय में शाहरुख़ कहते हैं कि उन्होंने अब तक 'थ्री इडियट्स' नहीं देखी। आप हीसोचिये-क्या ऐसा हो सकता है? या यह महज झूठी बांग है। और यदि ये सच है तो शाहरुख़ के अभाग्य की महिमा हमसे तो नहीं कही जा सकती। शाहरुख़ ये फिल्म देखें और कुछ सीखने का प्रयास करें।

खैर, दोनों खान बढ़िया सितारे हैं। बस दोनों में जरा सा अंतर है। आमिर समझदार इन्सान है और शाहरुख़ ज्यादा समझदार इन्सान है।

Friday, March 12, 2010

एक देश-एक जूनून : IPL-3


आई पी एल -३ ने दस्तक दे दी है। पिछले वर्ष इसकी मार्केटिंग कुछ इस तरह हुई थी-"उपरवाले ने एक धरती बनाई हमने उस पर सरहदें बनाकर उसे कई देशों में बाँट दिया, लेकिन अब ये सरहदें मिटेंगी और सारे विश्व का एक देश एक जूनून होगा। " जी हाँ आई पी एल के ज़रिये दुनिया को एक करने का राग आलापा जा रहा है। इसे मनोरंजन का बाप कहा जाता है और इसका ग्लैमर कुछ ऐसा है की दिग्गज उद्योगपति और फ़िल्मी सितारे भी खुद को इसकी नाजायज़ औलादें बनाने पर आमदा है।


बड़े-बड़े संत महात्मा जो काम न कर पाए वो काम अब ललित मोदी की क्रिकेट लीग करने चली है। BCCI ने अपनी रईसी से दिग्गज क्रिकेट सितारों को तमाशा दिखाने इकठ्ठा कर लिया है। परिस्थितियों की बिसात पर रिश्तों का ताना-बना बुना जा रहा है। लक्ष्मी के आगे दोस्त, दुश्मन और दुश्मन, दोस्त बन रहे हैं। मनीपावर का ही खेल है जो एक भाई राजस्थान और दूसरा पंजाब से एक दुसरे के खिलाफ जंग लड़ रहे है। इतना सब होने पर भी सरहदें मिटने का राग आलापा जा रहा है।


दरअसल सरहदें ज़मीन पर नहीं इन्सान के दिमाग में होती है। दिमागी सरहदें ही इस दुनिया को आज तक बांटते चली आ रही हैं। एक घर में रहने वाले भाई, देवरानी-जेठानी, सास-बहु को यही सरहदें अलग करती है और इनके न होने पर कई बार दो दुनिया के लोग भी एक होते हैं। प्रसिद्द व्यंग्यकार सुरेन्द्र शर्मा कहते हैं-"लोग गलत कहते हैं दीवार में दरार पड़ती है दरअसल जब दिल में दरार पड़ती है तब दीवार बनती है।" आई पी एल के ज़रिये विश्व को एक करने की बात रास नहीं आती है। इसे देख लगता है की मोहल्ले की एकता के लिए घर में सरहदें बनायीं जा रही है।


"वसुधैव कुटुम्बकम" का सपना क्रिकेट से नहीं बल्कि "परस्परोपग्रह जीवानाम " अर्थात एक दुसरे के प्रति प्रेम और उपकार की भावना से पूरा होगा। इंसानियत के आलावा दूजा कोई विकल्प नहीं जो हमें एक कर सके। आई पी एल खिलाडियों और उद्योगपतियों को तो ख़ुशी दे सकता है पर आम आदमी इससे ठगाया ही जा रहा है। प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से हमारी जेबों से निकला हुआ पैसा ही इन तमाश्गारों की तिजोरी हरी कर रहा है। सारा ताम-झाम विज्ञापन और टी आर पी का है।

ये क्रिकेट नातो राष्ट्र भावना का संचार करता है न ही ये विशुद्ध क्रिकेट है। मनोरंजन का बाप जब सुप्त अवस्था में जायेगा तो गंभीर-दिल्ली का, सचिन-मुंबई का और युवराज-पंजाब का नहीं ये सब अखंड भारत के सपूत होंगे। जब असली क्रिकेट कि बात होगी तो लोग पांच दिनी टेस्ट मैचों को ही ललचायेंगे। चीयरलीडर्स के कपड़ों की तरह छोटा किया गया ये क्रिकेट असली क्रिकेट के पिपासुओं कि प्यास नहीं बुझा सकता। इसकी बढती लोकप्रियता इसकी महानता का पैमाना नहीं है। दरअसल हम उस देश के वासी है जहाँ हर विचार हिट होता है। देश की दशमलव पांच प्रतिशत जनता किसी भी विचार को सुपर-डुपर हिट करने को काफी है। इस छोटे से आंकड़े को जुटाना बहुत मशक्कत का काम नहीं है।

इस क्रिकेट के होने से सरहदों के मिटने का भ्रम न पाले। सरहदों का निर्माण हमारी कुछ ज्यादा ही समझ का परिणाम है। विभाजन हमारे स्वार्थ से पैदा हुआ है। दीवारें हमारी कभी न मिटने वाली इच्छाओं का परिणाम है। गनीमत है हवा-पानी और ये ज़मीन खुद नहीं बटती नहीं तो इंसानी अस्तित्व ही खतरे में हो जाये। रिफ्यूजी फिल्म का एक गीत है "पंछी नदिया पवन के झोंके कोई सरहद न इन्हें रोके, सरहद इंसानों के लिए है सोचो मैंने और तुमने क्या पाया इन्सान होके" खुद से यही हमारा प्रश्न है कि इन्सान होके हमने कर क्या लिया? शिक्षित होकर हम वेवकूफ क्यों हो रहे हैं, हम पैदा तो ऐसे नहीं हुए थे।

खैर दुनिया की गतिविधियों के बारे में सोचना तो संभव है पर उन्हें बादल पाना मुश्किल। हर चीज का तार्किक होकर खुद को विचार करना है। सही-गलत का उत्तर हमें अपने-आप से ही मिलेगा। बहरहाल देखते हैं इस बार आईपीएल क्या रंग दिखाता है।