मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास 'प्रेमाश्रम' में जवानी का चित्र कुछ इस तरह खीचा गया है-"बाल्यावस्था के पश्चात् ऐसा समय आता है जब उद्दंडता की धुन सवार रहती है...इसमें युवाकाल की सुनिश्चित इच्छा नहीं होती, उसकी जगह एक विशाल आशावादिता होती है जो दुर्लभ को सरल और असाध्य को मुंह का कौर समझती है..भांति-भांति की मृदु कल्पनाएँ चित्त को आंदोलित करती रहती है..सैलानीपन का भूत सा चढ़ा रहता है..कभी जी में आया की रेलगाड़ी में बैठ कर देखूं कि कहाँ तक जाती है..अर्थी को देख श्मशान तक जाते हैं कि वहां क्या होता है..मदारी को देख देख जी में उत्कंठा होती है कि हम भी गले में झोली लटकाए देश-विदेश घूमते और ऐसे ही तमाशे दिखाते..अपनी क्षमताओं पर ऐसा विश्वास होता है कि बाधाएँ ध्यान में ही नहीं आती..ऐसी सरलता होती है जो अलादीन का चिराग ढूंढ़ लेना चाहती है...इस काल में अपनी योग्यता की सीमायें अपरिमित होती है..विद्या क्षेत्र में हम तिलक को पीछे हटा देते हैं, रणक्षेत्र में नेपोलियन से आगे बढ़ जाते हैं...कभी जटाधारी योगी बनते हैं, कभी टाटा से भी धनवान हो जाते हैं.."
जीवन का ऐसा समय जिसे बड़ा हसीन समझा जाता है लेकिन ये उद्दंडता का समय कई बार चरित्र पे ऐसी खरोंचे दे जाता है जिसके दाग जीवन भर नहीं भरते..अनुशासन और संस्कारों का नियंत्रण अगर न हो तो स्वयं की तवाही के साथ परिवार और समाज की बरबादी भी सुनिश्चित है..ये दौर दहकते शोले की तरह होता है चाहो तो उन शोलों पर स्वर्ण को कुंदन में बदल लो चाहो तो महल-अटारी को भस्म कर दो..या ये दौर बाढ़ के उस उफनते पानी की तरह है चाहो तो इसपे बांध बना के जनोपयोगी बना लो चाहो तो यूँही इसको स्वछंद छोड़ कर बस्तियों को बहा ले जाने दो..इन सारी चीजों में जो एक बात कॉमन है वो ये कि विवेक और नियंत्रण के साथ इनका प्रयोग ही सार्थक फल दे सकता है..अन्यथा परिणाम की भयंकरता के लिए तैयार रहे..
आनंद के मायने अलग होते हैं, अधिकारों को हासिल करने की तमन्नाएं ह्रदय में कुलाटी मारती है..मस्ती-अय्याशी-हुड़दंग जीवन का सार लगने लगते हैं..तरह-तरह के सपने नजरों के सामने नृत्य करते हैं..प्रायः इस उम्र में लक्ष्य नहीं, इच्छाएं सिर पे सवार होती हैं..गोयाकि "काट डालेंगे-फाट डालेंगे" टाइप अनुभूतियाँ होती है..
पहली सिगरेट होंठो को छूती है फिर उससे मोहब्बत हो जाती है..दारू का पहला घूंट कंठ को तर करता है फिर उसमे ही डुबकियाँ लगाई जाने लगती हैं..घर से नाता बस देर रात में सोने के लिए ही होता है..होटलों का खाना सुहाने लगता है..दाल-रोटी से ब्रेक-अप और पिज्जा-वर्गर से दोस्ती हो जाती है..गालियों से दोस्तों का स्तुतिगान और लड़की देख सीटी बजने लगती है..स्थिरता का पलायन और चंचलता स्थिर हो जाती है..जी हाँ जवानी की आग दहक चुकी है..
बड़े-बूढों की बातें कान में गए पानी के समान कष्ट देते हैं..और अनुशासन का उपदेश देने वाला सबसे बड़ा दुश्मन नजर आता है..इस उम्रगत विचारों के अंतर को ही जनरेशन गेप कहा जाता है..जिन्दगी जीना बड़ा सरल नजर आता है जिम्मेदारी बस इतनी लगती है कि दोस्तों का बर्थ डे याद रहे, और अगली पार्टी मुझे देना है..वक़्त बीतने का साथ ज्ञान चक्षु खुलते जाते हैं और समझ आता है कि जिन चीजों को पाने के हम लालायित थे वो उतनी हसीन नहीं है जितना हम समझ रहे थे..चाहे नौकरी हो चाहे शादी..जिम्मेदारी और हालातों के थपेड़े 'सहते जाना' बस 'सहते जाना' सिखा देते हैं...और समझ आ जाता है कि जिन्दगी दोस्तों की महफ़िल और कालेज की केन्टीन तले ही नहीं गुजारी जा सकती..
एक-एक कर जब हम अपनी इच्छित वस्तुओं को पाते जाते हैं तो उनकी उत्सुकता भी ख़त्म होती जाती है..वांछित का कौतुहल बस तब तक बना रहता है जब तक हम उन्हें हासिल न कर लें..हासिल करने के बाद कुछ नया पाने को मन मचल जाता है..संतोष और धैर्य के अमृत से प्रायः अनभिज्ञता बनी रहती है..और उतावलेपन में लिए गए फैसले बुरे परिणाम दे जाते हैं..
ऐसी दीवानगी होती है कि 'जो मन को अच्छा लगे वो करो' की धुन सवार रहती है..लेकिन इसका पता नहीं होता कि "जाने क्या चाहे मन बावरा" और मन तो न जाने क्या-क्या चाहता है यदि वो सब किया जाने लगे तो क़यामत आ सकती है..ये मन तो सर्व को हड़प लेना चाहता है, सर्व पे अधिकार चाहता है, सर्व को भोगना चाहता है, सारी दुनिया मुट्ठी में करना चाहता है...यदि इसे नियंत्रण में न रखा गया तो कैसा भूचाल आ जाये इसका अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता...
बहरहाल, जवानी-दहकते शोले और उफनते बाढ़ के पानी से सतर्क रहिये और यथा संभव इनपे नियंत्रण रखिये..संयम, संस्कारो से इन्हें काबू में रखिये अन्यथा बिना संस्कारो की ये जवानी ठीक बिना ब्रेक की गाड़ी की तरह है..जो खुद अपना अनिष्ट तो करेगी ही साथ ही दूसरों को भी ठोक-पीट के उनको भी मिटा देगी..इस बारे में और कथन मैं अपने इसी ब्लॉग पर प्रकाशित लेख "जोश-जूनून-जज्बात और जवानी" में कर चूका हूँ..जिन्दगी के इस ख़ूबसूरत समय की अहमियत समझिये और कुछ ऐसा करिए जो ताउम्र आपको फक्र महसूस कराये...क्षणिक आनंद के चक्कर में कुछ ऐसा न कर गुजरिये जिससे जवानी के ये जख्म जीवन के संध्याकाल में दर्द दें..क्योंकि ख़ता लम्हों की होती है और सजा सदियों की मिलती है......