फ़िल्मकार तिग्मांशु धुलिया की कमाल की फिल्म 'पान सिंह तोमर' देखी। अंतरराष्ट्रीय पदकविजेता धावक से बागी बने पान सिंह तोमर की ये कहानी हमारे तंत्र को आइना दिखाती है..और बताती है कि किस तरह इस देश में राजनीति और व्यवस्था के तवे पे स्वार्थ की रोटी तंत्र सेंकता है...जिससे मजबूरन एक राष्ट्रीय प्रतिभा को अपने हाथ में बंदूक उठाना पड़ता है।
फिल्म की शुरुआत में ही एक गजब का संवाद है..जब पत्रकार द्वारा पानसिंह से पूछा जाता है कि आप कैसे एक धावक से डकैत बने...जिसपे पानसिंह का जबाव कि ''डकैत नहीं, बागी..डकैत तो देश की संसद में बैठते है"। चम्बल कि पृष्ठभूमि पे निर्मित इस फिल्म का समग्र प्रभाव कुछ ऐसा है..कि फिल्म देखने के बाद भी आप खुद को इससे अलग नहीं कर पाते। अपनी व्यवस्था और तंत्र पे मन में रोष उठता है...पानसिंह की मज़बूरी खुद की मज़बूरी लगने लगती है...और दिल में एक उमंग ऐसी भी जगती है कि पानसिंह हमें भी बंदूक थमा के अपनी गेंग में शामिल कर ले।
फिल्म में निर्देशक के कैमरे ने चम्बल के बीहड़ को प्रभावकारी ढंग से प्रस्तुत किया है पर चम्बल के बीहड़ से ज्यादा प्रभावकारी चित्रण उस बीहड़ का है जो हमारे तंत्र में पसरा हुआ है...जहाँ पढ़े-लिखे तथाकथित सभ्य लोगो द्वारा गरीब-अनपढ़ लोगों की मजबूरियों का जनाज़ा निकला जाता है। साथ ही फ़िल्मकार ने ठेठ-गंवारू बाहुबलीय सोच को भी उजागर किया है..जहाँ बन्दूक चलाने, रौब झाड़ने, जोर आजमाने को ही पुरुषार्थ समझा जाता है...जहाँ प्रशासन की औकात अपनी रखैल से ज्यादा नहीं है।
पानसिंह इन दोनों ही पाट के बीच पिस रहा है..जहाँ उसका चचेरा भाई बन्दूक की नोक पे उसकी सारी ज़मीन हथियाए हुए है और प्रशासन उसकी मज़बूरी पे आँख मूंदे हुए है। ज़मीन की जद्दोजहद में उसकी माँ को मार दिया जाता है, बेटे को पीट-पीट के अधमरा कर दिया जाता है, उसे अपना घरबार छोड़ना पड़ता है...और अपनी इन परेशानियों को लेकर जब वो सिस्टम का दरवाजा खटखटाता है तो उससे उसके पदकविजेता होने का सबूत माँगा जाता है। उन पदकों को जमीन में फेंक दिया जाता है।
फ्रेम दर फ्रेम जैसे-जैसे फिल्म आगे बढती है..कदम-कदम पे सिस्टम के द्वारा एक नागरिक की राष्ट्रीय भावना, उसका प्रशासन के प्रति सम्मान को कुचलते हुए हम देखते हैं। जब इस कदर अपने ही तंत्र द्वारा उसका दमन होता है..तो आखिर उसे भी अपने हाथ में बंदूक उठाना पड़ती है। एक बेहद सीधे-सादे इन्सान को क़त्ल, अपहरण, लूट जैसे अपराध करने पे मजबूर होना पड़ता है...जो इन सबसे पहले तक ये कहता था कि 'हिंसा से कुछ हासिल नहीं होगा'..जो देश के लिए अपनी जान देने तक को तैयार था...जिसे अपने काम के लिए किसी के सामने झुकने, पैर पड़ने से भी गुरेज नहीं था..जो हर काम कानून के दायरे में ही करना चाहता था। एक ऐसे नागरिक को बागी बनने में, कानून तोड़ने को मजबूर करने में हमारे सिस्टम का ही हाथ है...ये फिल्म हमारे तंत्र को अपनी गिरेबान में झाँकने पे मजबूर करती है। पान सिंह तोमर से लेकर फूलन देवी तक सबके हाथ में बन्दूक थमाने में कहीं न कहीं हमारे सिस्टम का ही हाथ है...चम्बल के पानी को यूँही दोष दिया जाता है।
बहरहाल, एक बेहद कसी हुई, सार्थक फिल्म का निर्माण धुलिया ने किया है..जिसे इरफ़ान खान के अद्भुत अभिनय ने बेजोड़ बना दिया है..इरफ़ान ने अपनी अदाकारी से पानसिंह तोमर को जिया है। फिल्म के संवाद कमाल के हैं जो दर्शक को भी भिंड-मुरैना में होने का अहसास कराते हैं। गीत-संगीत के लिए फिल्म में कोई जगह नहीं है..जो इक्का-दुक्का गीत है वो भी पार्श्व में सुनाई देते है और कथा के भाव को ही दर्शाते हैं। सेट डिसाइन और कास्ट्यूम पे अच्छा काम किया है..जो फिल्म को यथार्थ का रूप देने का काम करते हैं..ड्रेस का ही कमाल है कि मूलतः पंजाब की माही गिल और राजस्थान के इरफ़ान खान ऐसे जान पड़ते हैं मानो उनकी रगों में चम्बल का पानी बहता हो।
अग्निपथ जैसी कमर्शियल फिल्म की सक्सेस के बाद एक यथार्थपरक सिनेमा का निर्माण और दर्शकों द्वारा इसे पसंद किया जाना सुखद अहसास देता है। इस तरह की फिल्मों की सफलता ही..बालीवुड को मसालेदार व्यावसायिक सिनेमा के इतर सार्थक फ़िल्में रचने की उर्जा प्रदान करती है..........