(ये लेख आज से लगभग चार वर्ष पहले अपने रायपुर प्रवास के दौरान..होली के दिन भांग के नशे में लिखा था..पर आज भी जब इसे पढ़ता हुं तो इसकी यथावत् प्रासंगिकता को पाता हुं..कृप्या इस अचेत अवस्था में लिखे गये लेख को साहित्यिक पैमानों पर तौलने की कोशिश न करें...)
जिंदगी में रास्ते लंबे भले हों, मगर मुश्किल नहीं होने चाहिए..इससे भी ज्यादा दुखद है उनका असमंजस भरा होना। कठिनाईयों से ज्यादा संशय परेशान करता है। राही की मुश्किल भी तब बढ़ जाती है जब सीधे-सादे रास्तों के बाद चौराहे आते हैं और उन चौराहों का तो क्या कहना, जहाँ रास्ते दिखाने वाले बोर्ड नहीं लगे हों। जिंदगी में भी इंसान ऐसे कई चौराहों से रूबरू होता है और जिंदगी के चौराहों में कोई इंडिकेशन बोर्ड नहीं होता। सही रास्तों को चुनने का बोझ होता है, एक अनचाहा डर सताता है। कई बार चौराहे कुछ ऐसे होते हैं कि कोई रास्ता ही नज़र नहीं आता। ऐसे ही समय में इंसान के असली हुनर और दूरदर्शिता की पहचान होती है।
समाज में एक ओर पहचान, सुरक्षा, स्थायित्व पाने की चाहत तो दूसरी ओर शारीरिक परिवर्तन, विलासिता की तमन्ना, रिश्तों के बंधन जटिलताओं का निर्माण करते हैं। ऐसे हालातों में बीता हुआ सफ़र याद आता है जहां बेरोकटोक हम जिंदगी की गाड़ी को सरपट भगाये जा रहे थे। दरअसल, हम गतिमान जीवन में ही इतना मस्त हो जाते हैं कि उस जीवन से परिवर्तन हमें विचलित कर देता है। पुराने रिश्ते जब परबान चढ़ते हैं तभी उनके बिखरने का वक्त आ जाता है। वक्त तो बीत जाता है पर बीते हुए लम्हों की कसक साथ रह जाती है..अब जो नया रास्ता शुरू होता है वहां प्रारंभ फिर शून्य से होता है।
लोग अपने वर्तमान स्वच्छंद जीवन को देख कहते हैं कि काश! ताउम्र बस ऐसे ही जीवन चलता रहे, बस युंही मौज-मस्ती में वक्त गुज़र जाये और किसी तरह का कोई परिवर्तन न हो...पर इस वक्त वो भूल जाते हैं कि गतिमान लम्हों की कीमत ही इसलिए है कि ये हमेशा नहीं रहने वाले। अंतहीन सफ़र कभी सुहाना नहीं होता। परिवर्तन में नवीनता गर्भित है।
इंसान एक अजीब सी खींझ महसूस करता है...एक तरफ कुछ सार्थक न कर पाने की बेवशी...दूसरी तरफ मृत्यु, स्वास्थ्य, असुरक्षा का अदृश्य भय..जो प्रगट नहीं होता। दरअसल, अनिष्ट की आशंका अदृश्य ही होती है। अपने ही सपनों का सैलाब हमें तंग करता है क्योंकि लोगों को मुकम्मल जहां नहीं मिलता। हर एक उपलब्धि एक नई ज़रूरत को जन्म देती है और ज़रूरत से फिर नई उपलब्धि होती है। जीवन का चक्र घूमकर हमें फिर वहीं खड़ा कर देता है जहाँ से हमने सफ़र की शुरुआत की थी। सच, परिवर्तनीय जगत वास्तव में कितना अपरिवर्तनीय होता है। दुनिया के परिवर्तनीय स्वरूप को देखने के कारण अप्रसन्नता है...अपरिवर्तनीय का दीदार हो जाये तो तकलीफ कभी छू भी न पायेगी। परेशानी ये है कि जीवन-चक्र में घूमते हुए हमारे हाथ खाली ही होते हैं।
हर चाही हुई चीज को पाने की कोशिश अनैतिक बना देती है। परिस्थितियों की बेवफाई चरित्र को नष्ट कर देती है और इन सारी चीजों का जन्म चौराहों पर लिये गए हमारे फैसलों के कारण होता है। सही-गलत की उलझन नतीजे आने तक बरकरार रहती है...और नतीजे आने के बाद हमारे हाथ कुछ नहीं होता, महज अनुभव के। जिस अनुभव को यदि हम दूसरों को बताए तो वो भी इन्हें नहीं मानता क्योंकि अधिकतर इंसान अपनी गलतियों से ही सीखते हैं।
तथाकथित सफलता की चकाचौंध ने इंसान की जिंदगी को आवृत्त कर दिया है। दुनिया में सक्सेस और स्टेटस के मायनों के चलते लाइफ के मायने घट गये हैं। एक स्टेज पर सक्सेस इतनी ख़ास हो जाती है कि उसके आगे जिंदगी बहुत छोटी नज़र आती है। चुंकि हर इंसान के हिसाब से सक्सेस के पैमाने अलग होते हैं, पर आज सफलता- करियर, पैसे के अर्थ में रूढ़ हो गई है। और उस भौतिकीय सफलता को ही सब कुछ माना जाता है। उस सफलता का आकर्षण हमें एक ऐसी दिशा में ले जाता है जहाँ आफतों को आदत बनाना पड़ता है। मंजिल पर पहुंचने के बाद रास्तों का सुकून याद आता है और मंजिल से बेहतर रास्ते लगने लगते हैं।
खैर, जीवन की हर चीज पर अपना ही एक दार्शनिक विचार खड़ा हो सकता है। अंत में मैं सिर्फ एक बात कहुंगा जो मैं बहुत सीधे-सादे अंदाज में बिना किसी चमत्कारिक शब्दों के कहुंगा...कि कुछ भी हो, रास्ते का चुनाव हो पाए या नहीं, सफलता मिले या नहीं या फिर किसी वा़ञ्छित वस्तु या व्यक्ति की दूरी ही क्यों न हो जाए...पर अपना चरित्र नीलाम मत कीजिए, सिद्धांतों से समझौता मत कीजिए। हमारी सबसे बड़ी पूंजी हमारा चरित्र है..अपनी पूंजी गंवाकर उपलब्धियों की प्राप्ति कभी सुखकर नहीं हो सकती। यकीन मानिए, अंततः सब ठीक हो जाएगा...............