Tuesday, May 21, 2013

अय्याशी, पैसा, ग्लैमर और आईपीएल

तकरीबन पांच साल पहले मनोरंजन के बाप के नाम से प्रचारित किया गया आईपीएल, जैसे-जैसे आगे बढ़ रहा है ये विवादों का बाप बनता जा रहा है। बिना किसी विवाद के शांतिपूर्वक ढंग से इस खेल का ख़त्म हो जाना महज एक स्वपन बनके रह गया है। खिलाड़ियों की नीलामी, अय्याशी, अनावश्यक बिजली और पानी की बरबादी जैसी चीजों को लेकर कई बार क्रिकेट के इस ग्लैमराइज फार्म पर उंगली उठाई जा चुकी है। पर हाल में उजागर हुई मैच फिक्सिंग और कॉलगर्ल सप्लाई जैसी चीजों ने इसकी प्रतिष्ठा को जघन्यतम बना दिया है।

इंडियन प्रीमियर लीग के वर्तमान संस्करण में टेलीविजन पर दिखाए जाने वाले इस खेल के प्रोमो में दर्शकों से गुहार की जाती है कि सिर्फ देखने का नहीं। दर्शक ने भी बखूब इस नसीहत को माना और अब वो इसे देखने के अलावा नाचता है, गाता है और इसमें सट्टा भी लगाता है। इसी तरह खिलाड़ियों ने भी कुछ ऐसी ही नसीहत को अपना लिया है कि सिर्फ खेलने का नहींऔर यही वजह है कि अब वो मैदान पर खेलने के अलावा गालियां देता है, भौंडे प्रदर्शन करता है, प्रतिद्वंदी खिलाड़ियों से झगड़ता है और मैदान के बाहर नशे और अय्याशियों में चूर रहता है, सौदेबाजियां करता है, फिक्सिंग में सहभागी बनता है। इस खेल में सब कुछ है पर खेलभावना हासिये पर फेंक दी गई है। सच्चाई ये है कि दर्शक और खिलाड़ी दोनों ही अनावश्यक खर्च होते हुए भी जश्न मना रहे हैं।

आईपीएल के दूसरे संस्करण की मार्केटिंग करते वक्त बताया गया था "उपरवाले ने एक धरती बनाई हमने उस पर सरहदें बनाकर उसे कई देशों में बाँट दिया, लेकिन अब ये सरहदें मिटेंगी और सारे विश्व का एक देश, एक जूनून होगा।" आई पी एल के ज़रिये दुनिया को एक करने का राग आलापा गया था। इसे मनोरंजन का बाप कहा गया और इसका ग्लैमर कुछ ऐसा रहा कि दिग्गज उद्योगपति से लेकर फ़िल्मी सितारे तक खुद को इसकी नाजायज़ औलादें बनाने पर आमादा रहे। बड़े-बड़े संत, महात्माओं से जो काम न हो सका वो काम इस पैसा लीग से किये जाने का दंभ भरा गया और शायद ये सही भी है कि आधुनिक विश्व में लोगों को एक मंच पर लाने का काम सिर्फ पैसा ही कर सकता है। बीसीसीआई ने अपनी रईसी से दिग्गज क्रिकेट सितारों को तमाशा दिखाने इकठ्ठा कर लिया। पैसे और ग्लैमर की बिसात पर रिश्तों का ताना-बना बुना गया। लक्ष्मी के आगे दोस्त, दुश्मन और दुश्मन, दोस्त बन गये। मनीपावर का ही खेल है जो एक भाई कोलकाता और दूसरा दिल्ली से एक दूसरे के खिलाफ जंग लड़ रहे है। इतना सब होने पर भी सरहदें मिटाने के गीत गाये जाते हैं।

देखा जाये तो सरहदें ज़मीन पर नहीं इन्सान के दिमाग में होती है। दिमागी सरहदें ही इस दुनिया को आज तक बांटते चली आ रही हैं। पैसा, शोहरत आधुनिक विश्व की वे लकीरें हैं जो सरहदें बनाती है यही वजह है कि कभी एक परिवार में रहने वाले दो भाईयों के बीच लंबी दूरियां होती हैं और कभी दो दुनिया के लोग भी एक-दूसरे से जुड़े होते हैं। प्रसिद्द व्यंग्यकार सुरेन्द्र शर्मा कहते हैं कि-"लोग गलत कहते हैं दीवार में दरार पड़ती है दरअसल जब दिल में दरार पड़ती है तब दीवार बनती है।" आई पी एल के ज़रिये विश्व को एक करने की बात रास नहीं आती क्योंकि इसमें सरहदें बनाने वाले सारे फ्लेवर मौजूद हैं इसे देख लगता है की मोहल्ले की एकता के लिए घर में सरहदें बनायीं जा रही है।

"वसुधैव कुटुम्बकम" का सपना क्रिकेट से नहीं बल्कि "परस्परोपग्रहो जीवानाम्" अर्थात एक दुसरे के प्रति प्रेम और उपकार की भावना से पूरा होगा। इंसानियत के आलावा दूजा कोई विकल्प नहीं जो हमें एक कर सके। आई पी एल खिलाडियों और उद्योगपतियों को तो ख़ुशी दे सकता है पर आम आदमी इससे ठगाया ही जा रहा है। प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से हमारी जेबों से निकला हुआ पैसा ही इन तमाश्गारों की तिजोरी हरी कर रहा है। सारा ताम-झाम विज्ञापन और टी आर पी का है। ऐसे में सट्टेबाजी का भूत और पैसा कमाने की तीव्र उत्कंठा स्पॉट फिक्सिंग जैसी विसंगतियों को पैदा कर रहे हैं। 

आईपीएल नातो राष्ट्र भावना का संचार करता है न ही ये विशुद्ध क्रिकेट है। मनोरंजन का बाप जब सुप्त अवस्था में जायेगा तो धोनी- चैन्नई का, सचिन-मुंबई का और विराट-बैंग्लौर का नहीं, ये सब अखंड भारत के सपूत होंगे। जब असली और जैंटलमेन क्रिकेट की बात होगी तो लोग पांच दिनी टेस्ट मैचों को ही ललचायेंगे। चीयरलीडर्स के कपड़ों की तरह काट-छांट के छोटा किया गया ये क्रिकेट असली क्रिकेट के पिपासुओं की प्यास नहीं बुझा सकता। इसकी बढती लोकप्रियता इसकी महानता का पैमाना नहीं है। दरअसल हम उस देश के वासी है जहाँ हर विचार हिट होता है। देश की दशमलव पांच प्रतिशत जनता किसी भी विचार को सुपर-डुपर हिट कराने को काफी है। इस छोटे से आंकड़े को इस देश में जुटाना बहुत मशक्कत का काम नहीं है। क्रिकेट का एक कल्चर रहा है और यही कल्चर इसके विकास का आधार है ग्लैमर कुछ समय के लिये वाहवाही तो दिला सकता है पर यह कभी भी जीवंत नहीं रहता। ग्लैमर सोने की लंका की तरह चकाचौंध तो पैदा करता है पर कल्चर, किसी जंगल की झोपड़ी की तरह खामोशी से सांस लेता है और अक्सर सोने की लंका तो भस्म हो जाती है पर झोपड़ी चिरजीवंत बनी रहती है।

बहरहाल, खिलाड़ियों और हुक्मरानों के लिए ये एक आत्ममंथन का वक्त भी है कि वो खुद को और इस खेल को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं। या तो अपनी चारित्रिक दृढता और खेल भावना के जरिये इस खेल की गरिमा को जिंदा रखा जाये, जिसके दम पर ये पिछले सवासौ साल से निरंतर प्रगति कर रहा है या फिर इस खेल को और स्वयं को नितांत बाजारु और बिकाऊ बना दिया जाय। हो सकता है इस खेल की अंधाधुंध व्यवसायिकता कुछ समय के लिये कुछ लोगों की जेबें हरी कर सकती है पर क्रिकेट के स्वर्णिम भविष्य पर यह निश्चित ही कालिख पोतने वाली साबित होगी।

Sunday, May 19, 2013

प्रेम की असंख्य परतें और 'आशिक़ी 2' की लोकप्रियता का रसायन....

फ़िल्म 'आशिक़ी-2' का प्रदर्शन हुए तकरीबन एक महीने से ऊपर हो चुका है लेकिन आज भी ये बेहद सामान्य सी फ़िल्म युवाओं और कुछ विशेष सेंटीमेंटल टाइप के दर्शकों को ख़ासी लुभा रही है। हालांकि मैनें सोचा नहीं था कि इस फ़िल्म पर कुछ लिखुंगा..लेकिन दिनोंदिन दर्शकों में बढ़ती इस फ़िल्म की खुमारी ने मुझे इस फ़िल्म की लोकप्रियता और मानव हृदय में स्थित भावनात्मक और वासनात्मक असंख्य परतों के रसायन को समझने पर विवश कर दिया। यद्यपि ये कभी संभव नहीं हो सकता कि आप व्यक्तित्व की परतों की उधेड़बुन करते हुए..किसी मानवमन का असल चित्रण प्रस्तुत कर सको या फिर किसी परिणाम के कारणों की कोई सार्वभौमिक, सर्वमान्य व्याख्या दे सको... क्योंकि हृदय की संकरी गलियों में कोई दूसरा व्यक्ति तो क्या हम स्वयं ही प्रवेश नहीं पा पाते। ये बता पाना नितांत नामुमकिन है कि किस परिस्थिति पर व्यक्ति का रवैया क्या होगा..और वो किस राह को चुनेगा।

हमारे सिनेमा ने हमेशा सुखांत का ही चुनाव किया है और सुखांत ही दर्शक के मनोरंजन की मुख्य धुरी रहा है। अपने अधूरे सपने, दबी-कुची इच्छाओं को पूरा करने और शोषण के विरुद्ध स्वर मुखर करने की वो मंशा जिसे दर्शक अपने यथार्थ में पूरा नहीं कर पाता...उसे इस 70 MM के परदे पर देख वो संतुष्ट भी होता है और मनोरंजित भी। ऐसे में 'आशिक़ी-2' के दुखांत को स्वीकार करना और उसे लोकप्रिय बनाना दर्शक की बदलती सोच का प्रतीक है या जिसे हम कह सकते हैं कि ये भावनात्मक परिपक्वता और यथार्थ की स्वीकारता का परिचायक है या फिर इसे हम भारतीय दर्शकों के मूड़ की बात मान सकते हैं जो दर्शक कभी तो कचरा-कूरा भी खा लेता है और कभी उसी कचरे को महज इसलिए नकार देता है कि उसपे मक्खी बैठी होती है। हिन्दी सिनेमा में पहले भी दुखांत प्रस्तुत हुए है लेकिन उनमें मजबूत तार्किकता थी लेकिन 'आशिक़ी-2' में एक सतही तर्क देकर और उथले हालात प्रस्तुत कर प्रेम कहानी का दुखांत कर दिया जाता है। यदि ये एक मुख्यधारा के सिनेमा के इतर, किसी शराब के साइडइफेक्टस का विज्ञापन होता तब बात समझी जा सकती थी...लेकिन हिन्दुस्तानी सिनेमा के सौ वर्ष पूरे होने पर..एक सामान्य सी फ़िल्म को मिलने वाली ये लोकप्रियता चौंकाने वाली है।

नायक बेइंतहा दीवानगी में पहले सबकुछ भुलाकर एक साधारण लड़की को सुपरस्टार बनाता है और फिर अपनी एक लत के चलते न सिर्फ अपने करियर बल्कि अपने प्यार और अपनी जिंदगी को भी छोड़ देता है...लेकिन उसके इन तमाम कृत्यों को भी अंत में त्याग की तरह बतलाकर महिमामंडित किया जाता है। नायिका एक सामान्य लड़की से सुपरस्टार तक का फासला तय करती है और नायक के जाने के बाद अपने स्टारडडम को बनाये रखके नायक के त्याग के प्रति आदरांजलि प्रस्तुत करती है। और इससे भी बड़ी आदरांजलि वो दर्शक इस फ़िल्म को लोकप्रिय बनाकर दे रहे हैं जिन्होने अपनी मोहब्बत के अधूरे सपनों की चिता दिल की जमीं पे जलाई है।

दरअसल 'आशिक़ी-2' 2011 में प्रदर्शित 'रॉकस्टार' फ़िल्म का अवरोही क्रम है। 'रॉकस्टार' में नायक एक आम आदमी है फिर उसका प्रेम, दर्द का जनक बनता है और प्रेम की पीड़ा से स्टारडम पैदा हुई है..वहीं 'आशिक़ी-2' में नायक की स्टारडम से प्रेम और फिर प्रेम की पीड़ा से वो गिरकर एक आम इंसान बन जाता है। परिवर्तन दोनो जगह हुआ है लेकिन फिर भी दोनों परिवर्तनों में फर्क है क्योंकि आम से खास तो बना जा सकता है पर खास से कभी कोई आम नहीं बन सकता..क्योंकि शिखर पे चढ़ते वक्त आपकी रफ्तार संतुलित होती है आप हांफ तो सकते हो पर चोटिल नहीं होते, पर शिखर से उतरते वक्त रफ्तार बहुत तेज होती है और अक्सर चोट भी लग जाती है। गोया इंसान शिखर से उतरता नहीं, गिर जाता है। इस फ़िल्म में ही एक संवाद है 'स्टार जब फ्लॉप होता है तो बड़ा मनहूस लगने लगता है।' एक बिन्दु ऐसा होता है जहां प्रेम, पीड़ा देता है और पीड़ा से बहुत कुछ मिलता है पर न प्रेम सहन होता है न वो पीड़ा और नाही उस पीड़ा से मिला बहुत कुछ। जनक और जन्य दोनों बर्दाश्त के बाहर होते है। इस बारे में मैं अपने एक पिछले लेख प्यार का सुर और दर्द का राग : रॉकस्टार में भी काफी कुछ कह चुका हूँ।

इंसान की दिग्भ्रमित प्रवृत्ति सबसे ज्यादा प्रेम के जज्बातों में ही परिलक्षित होती है जहां वो हमेशा एक भ्रम की स्थिति में बना रहता है। भ्रम के साथ ही प्रेम में आगे बढ़ता है, भ्रम के चलते ही अपने प्रेम को अपनाने से हिचकता है और भ्रम के साथ ही उसे छोड़ देता है और छोड़ने के बाद भी उसे ये भ्रम बना रहता है कि उसका फैसला सही है या गलत? और गर प्रेम को पा भी लेता है तब भी उसे यही भ्रम होता है कि जिसे उसने पाया है क्या वो वाकई उसे प्यार करता है? इसलिये प्रेम तब तक जिंदा रहता है जब तक भ्रम जिंदा रहता है और यही भ्रम इंसान को ये अहसास कराता रहता है कि वो अकेला नहीं है। सारा उत्साह और ग़म कल्पनाओं में ही होता है पर सच्चाई ये भी है कि कल्पनाओं का सौंदर्य यथार्थ से कई गुना बड़ा होता है। इस फ़िल्म के अंत में भी नायिका के चेहरे पर मुस्कान है क्योंकि अपने प्रेम की यादें और नायक का भ्रम उसके साथ है। इसी भ्रम के साथ शाहरुख ख़ान फ़िल्म 'मोहब्बतें' में संस्कृति की धज्जियां उड़ाते हुए युवाओं के दिलों के अंदर प्रेम की पींगे फोड़ते हैं।

बहरहाल, फ़िल्म का संगीत बेहतरीन है और संभवतः ये भी इसकी लोकप्रियता का कारण हो सकता है। सुपरहिट फ़िल्म आशिकी का रीमेक होना भी इसकी प्रारंभिक सफलता की वजह हो सकती है। आदित्य रॉय कपूर और श्रद्धा कपूर में संभावनाएं हैं। संपादन और सिनेमेटोग्राफी के स्तर पर फ़िल्म में कई खामियां हैं। फ़िल्म की कहानी मध्यांतर में सुस्त पड़ती है और स्क्रीनप्ले पर से भी निर्देशक की ग्रिप ढीली पड़ती है। कुल मिलाकर एक समान्य फ़िल्म है लेकिन फ़िल्म से जुड़े सभी लोगों का भविष्य उज्जवल है क्योंकि इसकी लोकप्रियता और भट्ट कैंप का साथ उन्हें आगे बढ़ाने के लिए काफी है। 

खैर, प्रेम और लोकप्रियता का रसायन समझना प्याज की परतें उतारने की तरह है इन परतों को उतारते-उतारते हाथ में कुछ नहीं आता..बस अंत में एक महक रह जाती है और आजकल तो वो महक भी नकली है..........

Thursday, May 2, 2013

हिन्दी सिनेमा के सौ बरस

(ये आलेख दैनिक समाचार पत्र 'पीपुल्स समाचार' के संपादकीय में कल अर्थात् 3 मई 2013 को प्रकाशित होने जा रहा है...अपने ब्लॉगर मित्रों से पहले ही इसे साझा कर रहा हूँ)

 कुछ तिथियां अनायास ही ऐसी क्रांतियों की गवाह बन जाती हैं जिन्हें सालों बाद बड़े उत्सवों के साथ याद किया जाता है। इन तिथियों पर किये गये कार्यों को इतिहास में सम्मान के साथ देखा जाता है लेकिन इन कार्यों को जन्म देने वाले लोगों को खुद पता नहीं होता कि वे भविष्य में एक क्रांति के जनक के तौर पर याद किये जायेंगे। 3 मई 1913, की तिथि एक ऐसी ही अभूतपूर्व क्रांति की गवाह है जिस दिन भारतीय सिनेमा के जनक दादा साहेब फाल्के ने एक ऐसे संचार माध्यम का भारतीय सरजमीं पर सूत्रपात किया था जो आगे चलकर समाज का प्रमुख मानसिक भोजन बन गया। पहली बार लोगों ने जिंदगियों को परदे पर अठखेलियां करते देखा और आज हालात यह है कि सिनेमा को निकालकर समाज की कल्पना करना ही मुश्किल हो गया है।

    सौ सालों का लंबा फासला और लाखों फिल्मों की बहुमूल्य विरासत की नींव पर खड़ा आज हमारे देश का सिनेमा पूरे विश्व में हर साल सर्वाधिक फिल्में बनाने के लिये जाना जाता है। अरबों के कारोबार का नियंता आज सिर्फ मनोरंजन का ही नहीं, व्यवसाय का भी प्रमुख माध्यम बन गया है। लेकिन आज के इस विकास के  परे एक लंबी संघर्ष की दास्तान इस रुपहले परदे के पीछे हैं जहां कई बार आलोचनाओं के स्वर मुखर हुए तो कई बार इसने मील के पत्थर समाज में स्थापित किये।
     वैसे तो कई महत्वपूर्ण वस्तुओं की तरह सिनेमा का जन्म भी विदेशी सरजमी पर हुआ। इसके तहत सबसे क्रांतिकारी प्रयोग ल्यूमियर बंधुओं के द्वारा 1890 में हुआ। तब इन्होंने सात लघु फिल्मों का निर्माण करकर उनका प्रदर्शन किया। भारतीय सिनेमा के नजरिए से सबसे महत्वपूर्ण घटना घटी 7 जुलाई 1896 को जब मुम्बई के वाटसन होटल में ल्यूमियर बंधुओं की उन फिल्मों को प्रदर्शित किया गया। भारत में पहली बार फिल्म विद्या का जादू परदे पर देखने को मिला।
इस घटना के बाद कई लोगों ने उन फिल्मों से प्रभावित होकर लघु फिल्मों का निर्माण किया। लेकिन इस कडी में सबसे बडा कार्य किया धुंडी राज गोविंद फाल्के यानि दादा साहेब फाल्के ने। जो लंदन से ‘‘द लाइफ क्राइस्ट’’ देखकर इस कदर प्रभावित हुए कि वहां से उन्होंने फिल्म निर्माण का सारा सामान खरीद लिया और फिल्म बनाने का मन बनाया। उनके मन का ये विचार 3 मई 1913 को साकार हुआ। जब हिन्दी सिनेमा की पहली फिल्म ‘‘राजा हरिशचन्द्र’’ रिलीज हुई। पर्दे पर जीवंत चित्रों को देखना लोगों को इस तरह रास आया कि फिल्म निर्माण की श्रृखंला चल पड़ी। लेकिन इस दौर का सिनेमा सिर्फ दृश्यात्मक था और मौन होकर ही समाज का मनोरंजन करता था।
इस दिशा में आमूल-चूल परिवर्तन हुआ 14 मार्च 1931 को जब इन मूक दृश्यों को जुवां मिली, और भारत की पहली बोलती फ़िल्म आलमआरा प्रदर्शित हुई। तीस का दशक हिंदी सिनेमा के लिये कई मायनों में खास था जहां इस दशक में मूक दृश्यों को आवाज नसीब हुई तो दूसरी ओर इसी दशक में देश की पहली रंगीन फ़िल्म किसान कन्या का प्रदर्शन हुआ। सिनेमा की मनोरंजन के साथ अपनी सामाजिक जिम्मेदारी वाली प्रकृति का दर्शन भी हमें इसी दौर में देखने को मिला। जब तत्कालीन सामाजिक परिदृश्य को लेकर वी.शांताराम, महबूब खान और ज्ञान मुखर्जी जैसे निर्देशकों नें अछूत कन्या, औरत और किस्मत जैसी फिल्मों का निर्माण किया। किस्मत फ़िल्म का गीत दूर हटो ऐ दुनिया वालों, हिन्दुस्तान हमारा है तो तत्कालीन भारतीय समाज में आजादी का जयघोष बन गया।

          आजादी के बाद हिनदुस्तानी सिनेमा को अंतर्राष्ट्रीय आयाम दिलाने में पचास के दशक की महत्वपूर्ण भूमिका रही। जहां बंगाली सिनेमा में सत्यजीत रे की पाथेर पांचाली, अपराजितो जैसी फ़िल्मों ने देश को अंतर्राष्ट्रीय मंच पर ख्याति दिलाई, जिससे सत्यजीत रे फ़िल्म विधा के अध्यापक की तरह देखे जाने लगे। वहीं हिन्दी सिनेमा में राजकपूर, विमलरॉय, गुरुदत्त जैसे फ़िल्मकारों ने नवीन मानवीय दर्शनों का सिनेमा में आविर्भाव करके सिनेमा को महज मनोरंजन की सतही श्रेणी से उठाकर बुद्धिमत्ता की परिपक्व कक्षा में स्थापित कर दिया। विमल रॉय की दो बीघा जमीन हिन्दी सिनेमा में नवयथार्थवाद की जनक बनी तो राजकपूर की आवारा और गुरुदत्त की प्यासा इंसान की भावनात्मक छटपटाहट को उजागर करने वाली महत्वपूर्ण फ़िल्में मानी गई।

          साठ के दशक में जब देश हरित क्रांति और श्वेत क्रांति के कारण आई समृद्धि का जश्न मना रहा था तो सिनेमा ने भी देश की सीमा से बाहर निकलकर खूबसूरत मखमली ख्वाबों को जीना शुरु किया। सिनेमा का कैमरा हमारे देश की सरहदों से बाहर निकलकर स्विटजरलैण्ड, लंदन और अमेरिका की चकाचौंध को दर्शकों के सामने लेकर आया। यश चोपड़ा का रोमांटिज्म और ऋषिकेष मुखर्जी के आदर्शवाद का बेहतरीन कॉकटेल देखने को मिला। तो देव आनंद, राजेश खन्ना और शम्मी कपूर जैसे सितारों ने कश्मीर की वादियों में जाकर मोहब्बत के पाठ पढ़ाये। सितारों की दीवानगी दर्शकों के सर चढ़कर बोलने लगी और युवतियों के सिरहाने सितारों की तस्वीरें और बदन पर गुदने नज़र आने लगे।

     देश में समृद्धि बढ़ी तो भ्रष्टाचार ने भी दस्तक दी। इंसान पहले हालात से मजबूर था अब भ्रष्ट सिस्टम ने उसे लाचार बना दिया। दिल में आक्रोश लिये आम आदमी किसी अवतार की तलाश में था जो उसके क्रोध को परिभाषित करे। सिनेमा ने समाज को इस दौर में एक ऐसा ही एंग्री यंग मेन दिया जो सिस्टम से लड़ता-जूझता नज़र आता था। जंजीर, दीवार और त्रिशूल जैसी फ़िल्मों ने अमिताभ बच्चन को आम आदमी का सितारा बना दिया। तो इसी दौर में श्याम बेनेगल और गोविंद निहलानी जैसे फिल्मकारों ने लीक से हटकर अव्यवसायिक समानांतर सिनेमा का निर्माण कर समाज के स्याह पक्ष को उजागर किया। बेनेगल की अंकुर, निशांत, मंथन और निहलानी की आक्रोश, अर्धसत्य उपेक्षित समाज का आईना साबित हुई।

     सिनेमा ने अधिक लोकतांत्रिक स्वरूप अख्तियार किया और हर दर्शक वर्ग के हिसाब से एक तरफ शोले और मिस्टर इंडिया जैसी मसाला फ़िल्में थी तो दूसरी तरफ मजबूरियों को बताती अर्थ और सारांश जैसी यथार्थवादी फ़िल्में। नब्बे के दशक से पहले सिनेमा में प्रेम कहानियां तो थी पर वो आज के पारंपरिक प्रेमपाश के बजाय परिस्थितियों को भलीभांति समझ के पैदा होने वाले प्रेम को प्रदर्शित करती थी। नब्बे के दशक की शुरुआत में देश ने उदारवाद और भूमंडलीकरण को अपनाया, देश में पैसा आया और लाचारियां धीरे-धीरे विदा होने लगी। लोगों के पेट भराने लगे तो उन्होंने दिल लगाना शुरु कर दिया। सिनेमा में भी नायक-नायिका के संबंधों में बदलाव आया, कॉलेज रोमांस ने दस्तक दी। कयामत से कयामत तक, दिल, दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे और कुछ-कुछ होता है जैसी विशुद्ध प्रेमकहानियों का समावेश हुआ। शाहरुख, सलमान, आमिर लोगों के चहेते बने। तो आदित्य चोपड़ा, सूरज बड़जात्या और करण जौहर का स्विटजरलैण्ड, शिफॉन और करवाचौथ वाला सिनेमा हिट हुआ। इसी दौर में रामगोपाल वर्मा और राजकुमार संतोषी का नायक अभी भी सिस्टम से लड़ रहा था। 

     सदी बदली, सोच बदली और सिनेमा ने भी नई उम्र के दर्शक का दामन थामा। पारंपरिक, आदर्शवादी सोच से बाहर निकलकर युवा प्रेक्टिकल हुआ। प्रेम और विवाह अब उसकी मंजिल नहीं, रास्ते के पड़ाव भर रह गये। दिल चाहता है, वेकअपसिड, रंग दे बसंती, थ्री इडियट्स जैसी फ़िल्में बनी जिन्हें न्यू एज्ड सिनेमा के नाम से जाना गया। आज के सिनेमा में कई धारायें एकसाथ प्रवाहित हो रही हैं। दबंग, सिंघम और राउड़ी राठौड़ का एक्शन है तो जब वी मेट, लव आजकल, बरफी के रुहानी मोहब्बती जज्बात भी। अनुराग कश्यप का विशुद्ध डार्क कलेवर वाला वासेपुर है तो प्रकाश झा का गंगाजल, राजनीति और चक्रव्यूह वाला अपराध जगत।
 
     बहरहाल, 3 मई 2013 को शूटआउट एट वडाला प्रदर्शित हो रही है यह महज संयोग ही है कि आज से सौ साल पहले इस दिन प्रदर्शित होने वाली फ़िल्म राजा हरिश्चन्द्रतत्कालीन धार्मिक और पौराणिक मान्यता वाले समाज को बयां करती थी और शूटआउट एट वडाला वर्तमान के आपराधिक वृत्ति वाले समाज की प्रतिनिधि है। जिस समाज में दामिनी और गुड़िया पे हुए दुष्कृत्यों पर इंसाफ मांगने के लिए जनता सड़क पर है। सिनेमा भी तो आखिर समाज और सड़क का ही आईना है......