तकरीबन
पांच साल पहले मनोरंजन के बाप के नाम से प्रचारित किया गया आईपीएल, जैसे-जैसे आगे
बढ़ रहा है ये विवादों का बाप बनता जा रहा है। बिना किसी विवाद के शांतिपूर्वक ढंग
से इस खेल का ख़त्म हो जाना महज एक स्वपन बनके रह गया है। खिलाड़ियों की नीलामी,
अय्याशी, अनावश्यक बिजली और पानी की बरबादी जैसी चीजों को लेकर कई बार क्रिकेट के
इस ग्लैमराइज फार्म पर उंगली उठाई जा चुकी है। पर हाल में उजागर हुई मैच फिक्सिंग
और कॉलगर्ल सप्लाई जैसी चीजों ने इसकी प्रतिष्ठा को जघन्यतम बना दिया है।
इंडियन प्रीमियर लीग के वर्तमान संस्करण में
टेलीविजन पर दिखाए जाने वाले इस खेल के प्रोमो में दर्शकों से गुहार की जाती है कि
‘सिर्फ देखने का नहीं’। दर्शक ने भी बखूब इस नसीहत को माना और
अब वो इसे देखने के अलावा नाचता है, गाता है और इसमें सट्टा भी लगाता है। इसी तरह
खिलाड़ियों ने भी कुछ ऐसी ही नसीहत को अपना लिया है कि ‘सिर्फ
खेलने का नहीं’ और यही वजह है कि अब वो मैदान पर खेलने के अलावा
गालियां देता है, भौंडे प्रदर्शन करता है, प्रतिद्वंदी खिलाड़ियों से झगड़ता है और
मैदान के बाहर नशे और अय्याशियों में चूर रहता है, सौदेबाजियां करता है, फिक्सिंग
में सहभागी बनता है। इस खेल में सब कुछ है पर खेलभावना हासिये पर फेंक दी गई है।
सच्चाई ये है कि दर्शक और खिलाड़ी दोनों ही अनावश्यक खर्च होते हुए भी जश्न मना
रहे हैं।
आईपीएल के दूसरे संस्करण की मार्केटिंग करते
वक्त बताया गया था "उपरवाले ने एक
धरती बनाई हमने उस पर सरहदें बनाकर उसे कई देशों में बाँट दिया, लेकिन अब ये सरहदें मिटेंगी और सारे विश्व का एक देश, एक जूनून होगा।" आई पी एल के ज़रिये दुनिया को एक करने का राग आलापा गया था। इसे मनोरंजन का
बाप कहा गया और इसका ग्लैमर कुछ ऐसा रहा कि दिग्गज उद्योगपति से लेकर फ़िल्मी सितारे तक खुद को इसकी नाजायज़ औलादें
बनाने पर आमादा रहे। बड़े-बड़े संत, महात्माओं से जो काम न हो सका वो काम इस पैसा
लीग से किये जाने का दंभ भरा गया और शायद ये सही भी है कि आधुनिक विश्व में लोगों
को एक मंच पर लाने का काम सिर्फ पैसा ही कर सकता है। बीसीसीआई ने अपनी रईसी से
दिग्गज क्रिकेट सितारों को तमाशा दिखाने इकठ्ठा कर लिया। पैसे और ग्लैमर की बिसात
पर रिश्तों का ताना-बना बुना गया। लक्ष्मी के आगे दोस्त, दुश्मन और दुश्मन, दोस्त बन गये। मनीपावर का ही खेल है जो एक भाई कोलकाता और दूसरा दिल्ली से एक दूसरे के खिलाफ जंग लड़ रहे है। इतना सब होने पर भी सरहदें मिटाने के
गीत गाये जाते हैं।
देखा जाये तो सरहदें ज़मीन पर नहीं इन्सान के दिमाग में होती
है। दिमागी सरहदें ही इस दुनिया को आज
तक बांटते चली आ रही हैं। पैसा, शोहरत आधुनिक विश्व की वे लकीरें हैं जो सरहदें
बनाती है यही वजह है कि कभी एक परिवार में रहने वाले दो भाईयों के बीच लंबी
दूरियां होती हैं और कभी दो दुनिया के लोग भी एक-दूसरे से जुड़े होते हैं। प्रसिद्द
व्यंग्यकार सुरेन्द्र शर्मा कहते हैं कि-"लोग गलत कहते हैं दीवार में दरार पड़ती है दरअसल जब दिल में दरार पड़ती है तब दीवार बनती
है।" आई पी एल के ज़रिये विश्व को
एक करने की बात रास नहीं आती क्योंकि इसमें सरहदें बनाने वाले सारे फ्लेवर मौजूद
हैं इसे देख लगता है की मोहल्ले की एकता
के लिए घर में सरहदें बनायीं जा रही है।
"वसुधैव कुटुम्बकम" का सपना क्रिकेट
से नहीं बल्कि "परस्परोपग्रहो जीवानाम्" अर्थात एक दुसरे
के प्रति प्रेम और उपकार की भावना से पूरा होगा। इंसानियत के आलावा दूजा कोई विकल्प नहीं जो हमें एक कर सके।
आई पी एल खिलाडियों और उद्योगपतियों को तो
ख़ुशी दे सकता है पर आम आदमी इससे ठगाया ही जा रहा है। प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से हमारी जेबों से निकला हुआ पैसा ही इन तमाश्गारों की तिजोरी हरी कर रहा है। सारा ताम-झाम
विज्ञापन और टी आर पी का है। ऐसे
में सट्टेबाजी का भूत और पैसा कमाने की तीव्र उत्कंठा स्पॉट फिक्सिंग जैसी
विसंगतियों को पैदा कर रहे हैं।
आईपीएल नातो राष्ट्र भावना का संचार करता है न ही ये विशुद्ध क्रिकेट है। मनोरंजन का बाप जब सुप्त अवस्था में जायेगा तो धोनी-
चैन्नई का, सचिन-मुंबई का और विराट-बैंग्लौर का
नहीं, ये सब अखंड भारत के सपूत होंगे। जब असली और जैंटलमेन क्रिकेट की बात होगी तो लोग पांच दिनी टेस्ट मैचों को
ही ललचायेंगे। चीयरलीडर्स के कपड़ों की
तरह काट-छांट के छोटा किया गया ये क्रिकेट असली क्रिकेट के पिपासुओं की प्यास नहीं बुझा सकता। इसकी बढती
लोकप्रियता इसकी महानता का पैमाना
नहीं है। दरअसल हम उस देश के वासी है जहाँ हर विचार हिट होता है। देश की दशमलव पांच प्रतिशत जनता किसी भी विचार को
सुपर-डुपर हिट कराने को काफी
है। इस छोटे से आंकड़े को इस देश में जुटाना बहुत मशक्कत का काम नहीं है। क्रिकेट
का एक कल्चर रहा है और यही कल्चर इसके विकास का आधार है ग्लैमर कुछ समय के लिये
वाहवाही तो दिला सकता है पर यह कभी भी जीवंत नहीं रहता। ग्लैमर सोने की लंका की
तरह चकाचौंध तो पैदा करता है पर कल्चर, किसी जंगल की झोपड़ी की तरह खामोशी से सांस
लेता है और अक्सर सोने की लंका तो भस्म हो जाती है पर झोपड़ी चिरजीवंत बनी रहती
है।
बहरहाल,
खिलाड़ियों और हुक्मरानों के लिए ये एक आत्ममंथन का वक्त भी है कि वो खुद को और इस
खेल को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं। या तो अपनी चारित्रिक दृढता और खेल भावना
के जरिये इस खेल की गरिमा को जिंदा रखा जाये, जिसके दम पर ये पिछले सवासौ साल से
निरंतर प्रगति कर रहा है या फिर इस खेल को और स्वयं को नितांत बाजारु और बिकाऊ बना
दिया जाय। हो सकता है इस खेल की अंधाधुंध व्यवसायिकता कुछ समय के लिये कुछ लोगों
की जेबें हरी कर सकती है पर क्रिकेट के स्वर्णिम भविष्य पर यह निश्चित ही कालिख
पोतने वाली साबित होगी।