फ़िल्म 'आशिक़ी-2' का प्रदर्शन हुए तकरीबन एक महीने से ऊपर हो चुका है लेकिन आज भी ये बेहद सामान्य सी फ़िल्म युवाओं और कुछ विशेष सेंटीमेंटल टाइप के दर्शकों को ख़ासी लुभा रही है। हालांकि मैनें सोचा नहीं था कि इस फ़िल्म पर कुछ लिखुंगा..लेकिन दिनोंदिन दर्शकों में बढ़ती इस फ़िल्म की खुमारी ने मुझे इस फ़िल्म की लोकप्रियता और मानव हृदय में स्थित भावनात्मक और वासनात्मक असंख्य परतों के रसायन को समझने पर विवश कर दिया। यद्यपि ये कभी संभव नहीं हो सकता कि आप व्यक्तित्व की परतों की उधेड़बुन करते हुए..किसी मानवमन का असल चित्रण प्रस्तुत कर सको या फिर किसी परिणाम के कारणों की कोई सार्वभौमिक, सर्वमान्य व्याख्या दे सको... क्योंकि हृदय की संकरी गलियों में कोई दूसरा व्यक्ति तो क्या हम स्वयं ही प्रवेश नहीं पा पाते। ये बता पाना नितांत नामुमकिन है कि किस परिस्थिति पर व्यक्ति का रवैया क्या होगा..और वो किस राह को चुनेगा।
हमारे सिनेमा ने हमेशा सुखांत का ही चुनाव किया है और सुखांत ही दर्शक के मनोरंजन की मुख्य धुरी रहा है। अपने अधूरे सपने, दबी-कुची इच्छाओं को पूरा करने और शोषण के विरुद्ध स्वर मुखर करने की वो मंशा जिसे दर्शक अपने यथार्थ में पूरा नहीं कर पाता...उसे इस 70 MM के परदे पर देख वो संतुष्ट भी होता है और मनोरंजित भी। ऐसे में 'आशिक़ी-2' के दुखांत को स्वीकार करना और उसे लोकप्रिय बनाना दर्शक की बदलती सोच का प्रतीक है या जिसे हम कह सकते हैं कि ये भावनात्मक परिपक्वता और यथार्थ की स्वीकारता का परिचायक है या फिर इसे हम भारतीय दर्शकों के मूड़ की बात मान सकते हैं जो दर्शक कभी तो कचरा-कूरा भी खा लेता है और कभी उसी कचरे को महज इसलिए नकार देता है कि उसपे मक्खी बैठी होती है। हिन्दी सिनेमा में पहले भी दुखांत प्रस्तुत हुए है लेकिन उनमें मजबूत तार्किकता थी लेकिन 'आशिक़ी-2' में एक सतही तर्क देकर और उथले हालात प्रस्तुत कर प्रेम कहानी का दुखांत कर दिया जाता है। यदि ये एक मुख्यधारा के सिनेमा के इतर, किसी शराब के साइडइफेक्टस का विज्ञापन होता तब बात समझी जा सकती थी...लेकिन हिन्दुस्तानी सिनेमा के सौ वर्ष पूरे होने पर..एक सामान्य सी फ़िल्म को मिलने वाली ये लोकप्रियता चौंकाने वाली है।
नायक बेइंतहा दीवानगी में पहले सबकुछ भुलाकर एक साधारण लड़की को सुपरस्टार बनाता है और फिर अपनी एक लत के चलते न सिर्फ अपने करियर बल्कि अपने प्यार और अपनी जिंदगी को भी छोड़ देता है...लेकिन उसके इन तमाम कृत्यों को भी अंत में त्याग की तरह बतलाकर महिमामंडित किया जाता है। नायिका एक सामान्य लड़की से सुपरस्टार तक का फासला तय करती है और नायक के जाने के बाद अपने स्टारडडम को बनाये रखके नायक के त्याग के प्रति आदरांजलि प्रस्तुत करती है। और इससे भी बड़ी आदरांजलि वो दर्शक इस फ़िल्म को लोकप्रिय बनाकर दे रहे हैं जिन्होने अपनी मोहब्बत के अधूरे सपनों की चिता दिल की जमीं पे जलाई है।
दरअसल 'आशिक़ी-2' 2011 में प्रदर्शित 'रॉकस्टार' फ़िल्म का अवरोही क्रम है। 'रॉकस्टार' में नायक एक आम आदमी है फिर उसका प्रेम, दर्द का जनक बनता है और प्रेम की पीड़ा से स्टारडम पैदा हुई है..वहीं 'आशिक़ी-2' में नायक की स्टारडम से प्रेम और फिर प्रेम की पीड़ा से वो गिरकर एक आम इंसान बन जाता है। परिवर्तन दोनो जगह हुआ है लेकिन फिर भी दोनों परिवर्तनों में फर्क है क्योंकि आम से खास तो बना जा सकता है पर खास से कभी कोई आम नहीं बन सकता..क्योंकि शिखर पे चढ़ते वक्त आपकी रफ्तार संतुलित होती है आप हांफ तो सकते हो पर चोटिल नहीं होते, पर शिखर से उतरते वक्त रफ्तार बहुत तेज होती है और अक्सर चोट भी लग जाती है। गोया इंसान शिखर से उतरता नहीं, गिर जाता है। इस फ़िल्म में ही एक संवाद है 'स्टार जब फ्लॉप होता है तो बड़ा मनहूस लगने लगता है।' एक बिन्दु ऐसा होता है जहां प्रेम, पीड़ा देता है और पीड़ा से बहुत कुछ मिलता है पर न प्रेम सहन होता है न वो पीड़ा और नाही उस पीड़ा से मिला बहुत कुछ। जनक और जन्य दोनों बर्दाश्त के बाहर होते है। इस बारे में मैं अपने एक पिछले लेख प्यार का सुर और दर्द का राग : रॉकस्टार में भी काफी कुछ कह चुका हूँ।
इंसान की दिग्भ्रमित प्रवृत्ति सबसे ज्यादा प्रेम के जज्बातों में ही परिलक्षित होती है जहां वो हमेशा एक भ्रम की स्थिति में बना रहता है। भ्रम के साथ ही प्रेम में आगे बढ़ता है, भ्रम के चलते ही अपने प्रेम को अपनाने से हिचकता है और भ्रम के साथ ही उसे छोड़ देता है और छोड़ने के बाद भी उसे ये भ्रम बना रहता है कि उसका फैसला सही है या गलत? और गर प्रेम को पा भी लेता है तब भी उसे यही भ्रम होता है कि जिसे उसने पाया है क्या वो वाकई उसे प्यार करता है? इसलिये प्रेम तब तक जिंदा रहता है जब तक भ्रम जिंदा रहता है और यही भ्रम इंसान को ये अहसास कराता रहता है कि वो अकेला नहीं है। सारा उत्साह और ग़म कल्पनाओं में ही होता है पर सच्चाई ये भी है कि कल्पनाओं का सौंदर्य यथार्थ से कई गुना बड़ा होता है। इस फ़िल्म के अंत में भी नायिका के चेहरे पर मुस्कान है क्योंकि अपने प्रेम की यादें और नायक का भ्रम उसके साथ है। इसी भ्रम के साथ शाहरुख ख़ान फ़िल्म 'मोहब्बतें' में संस्कृति की धज्जियां उड़ाते हुए युवाओं के दिलों के अंदर प्रेम की पींगे फोड़ते हैं।
बहरहाल, फ़िल्म का संगीत बेहतरीन है और संभवतः ये भी इसकी लोकप्रियता का कारण हो सकता है। सुपरहिट फ़िल्म आशिकी का रीमेक होना भी इसकी प्रारंभिक सफलता की वजह हो सकती है। आदित्य रॉय कपूर और श्रद्धा कपूर में संभावनाएं हैं। संपादन और सिनेमेटोग्राफी के स्तर पर फ़िल्म में कई खामियां हैं। फ़िल्म की कहानी मध्यांतर में सुस्त पड़ती है और स्क्रीनप्ले पर से भी निर्देशक की ग्रिप ढीली पड़ती है। कुल मिलाकर एक समान्य फ़िल्म है लेकिन फ़िल्म से जुड़े सभी लोगों का भविष्य उज्जवल है क्योंकि इसकी लोकप्रियता और भट्ट कैंप का साथ उन्हें आगे बढ़ाने के लिए काफी है।
खैर, प्रेम और लोकप्रियता का रसायन समझना प्याज की परतें उतारने की तरह है इन परतों को उतारते-उतारते हाथ में कुछ नहीं आता..बस अंत में एक महक रह जाती है और आजकल तो वो महक भी नकली है..........
.सार्थक जानकारी हेतु आभार .आभार . मेरी किस्मत ही ऐसी है .
ReplyDeleteसाथ ही जानिए संपत्ति के अधिकार का इतिहास संपत्ति का अधिकार -3
इंसान की दिग्भ्रमित प्रवृत्ति सबसे ज्यादा प्रेम के जज्बातों में ही परिलक्षित होती है जहां वो हमेशा एक भ्रम की स्थिति में बना रहता है। भ्रम के साथ ही प्रेम में आगे बढ़ता है, भ्रम के चलते ही अपने प्रेम को अपनाने से हिचकता है और भ्रम के साथ ही उसे छोड़ देता है और छोड़ने के बाद भी उसे ये भ्रम बना रहता है कि उसका फैसला सही है या गलत? ...................अच्छा दर्शन प्रस्तुत किया है प्रेम के बाबत।
ReplyDeletevery well said.
ReplyDeleteरसायन समझ आया....चेमिकल लोचा भी..
ReplyDeleteमगर हमें तो सुखान्त ही पसंद है...
:-)
nice read Ankur !!
anu
ये इंसानी चरित्र ही ऐसा है अगर पहले किसी को खुद तार्राकी का रास्ता दिखता है और अगर वेह व्यक्ति कामयाब होजाता है तो उससे एक अजीब सा डर लगने लगता है कहीं वो हमसे आगे न निकल जाये और वही डर अक्सर इतना हावी हो बैठता है इंसान की समझ को चूर करके उसको अंत पे ला खड़ा करता है |
ReplyDeleteफिर चाहे वो प्रेम हो या किसी और चीज़ की दीवानगी |
अलतमश