जहाँ प्रेम है वहां दीवारें भी होंगी...और दीवारें हैं तो उनमें दरारें भी बनेंगी। बिगड़ती-सुधरती दीवारों और दरारों के दरमियां गुजरती हुई अपने गंतव्य तक पहुंचने का सफ़र करती है हर एक प्रेमकथा...पर प्रेम, सफर हो सकता है, पड़ाव हो सकता है, गतिअवरोधक हो सकता है, गतिप्रदायक हो सकता है लेकिन गंतव्य कभी नहीं हो सकता। किंतु इन समस्त तथ्यों से अपरिचित बना रहकर हमेशा से ही प्रेम, एक अपरिभाषित गंतव्य की तलाश करता आया है। इसलिये प्रेम जिंदा है, प्रेम पर लगने वाले पहरे भी जिंदा हैं और जिंदा हैं बस इसी वजह से प्रेमकथायें।
रांझणा, कोई अपवाद नहीं है। इससे पहले भी मौसम, रॉकस्टार, दिल, DDLG जैसी सैंकड़ो फ़िल्में बन चुकी हैं..कहीं धार्मिक विभेद, कहीं आर्थिक विषमताएं, तो कहीं दूसरी सामाजिक लकीरें प्रेम को बांटती आई हैं। अधिकतर मामलों में फ़िल्मी प्रेम कथाएं अंत में सफल हुई हैं तो कुछ मामलों में दुखांत इन फ़िल्मों का सच रहा है। रांझणा, दुखांत है पर फ़िल्म के अंतिम दृश्य में पार्श्व में सुनाई देते नायक के संवाद, किसी को सुखांत की अनुभूति भी दे सकते हैं...नायक अब उठना नहीं चाहता और वो अपनी मर्जी से हमेशा के लिये सो जाना चाहता है...नायक के सिरहाने बैठा उसका प्यार, यदि आवाज दे तो वो उठ भी सकता है पर अब उठकर प्यार-इजहार-इंकार-इकरार की सारी प्रक्रिया उसे बहुत थकाने वाली और कष्टकर लग रही है..बस इसलिए उसे सुकून यूं लेटे रहने में ही मिल रहा है...पर फिर भी वो एक अदद आराम के बाद बनारस की गलियों में दोबारा लौट आने का वादा करता है..अपनी अधूरी ख्वाहिशें पूरी करने की चाहत जताता है। प्रेम, पूर्णता को अर्जित करने के बाद भी हमेशा एक अधूरी ख्वाहिश ही बना रह जाता है और इंसान इसे सदा पूरा करने के लिये बार-बार इस धरती पर आना चाहता है।
चाहतें बड़ी बेवकूफ होती हैं और मनमौजी भी। ये जिस दिल में पैदा होती हैं उसे भी बावरा बना देती हैं और दिल का ये बावरापन दिमाग का अस्थि-पंजर भी हिला देता है और इंसान अपनी बुद्धि गिरवी रखके पागलों सरीका हो जाता है। शायद इसलिये कहते हैं कि प्रेम, बुद्धिमान इंसान की मूर्खता और मूर्ख इंसान की बुद्धिमत्ता है। रांझणा का नायक कुछ ऐसा ही है। इस बेचारे को तो समझदार बनने का मौका ही नहीं मिला और बचपन में ही इसे प्रेम ने अपनी गिरफ्त में ले लिया। अब इसके जीवन का लक्ष्य बस इसका प्यार है और वो गाता भी है 'मेरी हर मनमानी बस तुम तक, बातें बचकानी बस तुम तक..मेरी हर होशियारी बस तुम तक, मेरी हर तैयारी बस तुम तक'। अपना सबकुछ लुटाने के बाद, अपनी सारी चाहतें कुर्बान कर देने के बाद भी, अगर प्यार इतनी आसानी से नसीब हो सकता तो इस दुनिया में एक भी प्रेमकथा न होती। बंधन होते ही होते हैं और वो यहाँ भी हैं...जिनमें से हिन्दुस्तानी जमीं पर पाया जाने वाला सबसे प्रसिद्ध बंधन है-धर्म। नायक एक विशुद्ध, पूजा-पाठ वाले ब्राह्मण परिवार से है और नायिका है मुस्लिम। कई और कहानियां भी इस पृष्ठभूमि पर बन चुकी हैं पर इस प्रेम कहानी का प्रस्तुतिकरण कुछ अलग है...इसका नायक मस्तमौला, खिलंदड़ व्यक्तित्व का धनी है और वो अपनी विषमताओं को जानता-समझता हुआ, उनकी खिल्लियां उड़ाता हुआ..अपने प्यार का इज़हार करता है। फुल कंसस्टेंसी के साथ नायिका के थपाड़े खाता है और नायिका से प्यार का इकरार भी करवा लेता है...पर ये नायक-नायिका का कौमार्य था असल जवानी तो आना बाकी थी..और साथ ही बाकी थी समझदार हो जाने के बाद खड़ी होने वाली दीवारें।
नायिका बाहर पढ़ लिखकर समझदार बन चुकी है और अब उसकी नज़र में अपने बचपन का प्यार निहायती गंवार और जाहिल है...पर लड़का उसी शिद्दत से अपनी प्रेमिका का आठ साल तक इंतजार करता है जिस शिद्दत से उसने बचपन में प्यार किया था। यही वजह है कि उसे अपनी बचपन की साथी, हमजात और नायक को बेहद चाहने वाली लड़की का प्यार भी मंजूर नहीं। नायिका, अब किसी और से प्यार करती है पर उसे भी अपने प्यार को पाने में अनेक बंधन हैं और इसलिये वो नायक का इस्तेमाल करती है। इस गांवठे बनारसी युवक ने पढ़ाई नहीं की है बस इसलिये उसमें कुछ मानवीय संवेदनाएं जीवित हैं, वो प्रेक्टिकल नहीं है, जिसे आजकल के समय में नासमझी माना जाता है। अपने इस व्यक्तित्व के चलते वो प्यार के लिये त्याग करता है और उसका त्याग ही ये है कि वो अपने प्यार को भुला के नायिका को उसके प्रेमी से मिला दे।
घटनाक्रम में यहीं पर गहन नाटकीयता है और एक स्थिति ये आती है कि अब उसके पास गंवाने के लिये कुछ नहीं है और जब किसी के पास गंवाने के लिये कुछ नहीं होता तो वह इंसान बेहद क्रियाशील और खतरनाक हो जाता है और ऐसे ही हालात से गुजरते हुए इस फ़िल्म के नायक को वो माहौल मिल जाता है जिसमें वो अनायास ही प्रसिद्धि के सोपानों पर चढ़ने लगता है। प्रेम से मिली तड़प बहुत कुछ करवा देती है नायक अब राजनीति में है और अपनी पार्टी का नेता बन चुका है। फ़िल्म में नायक का संवाद है 'हमारे देश में नेताओं की कितनी कमी है जहां हमारे जैसा गंवार ही नेता बन जाता है' देश के नेतृत्व पे तीखा व्यंग्य करता है।
कुछ मानवीय संवेदनाएं भी फ़िल्म का रेशा बुनती हैं जैसे-ईर्श्या, आत्मग्लानि, पश्चाताप आदि। नायक से नफरत करती नायिका को उसका आगे बढ़ना रास नहीं आता, उसका अच्छा होना भी उसे बुरा लगता है और बस इसलिये वो नायक के पतन का षड्यंत्र रचती है और इसमें कामयाब होने के बाद जब नायक के त्याग और समर्पण का अहसास उसे होता है तो उसके मन में आत्मग्लानि भी है। नायक, बिना वजह नायिका के प्रेमी की मौत का जिम्मेदार खुद को मानता है और इस पश्चाताप की आग में तपते हुए वो अपने ब्राह्मणत्व के विपरीत झाड़ू लगाने, बर्तन मांजने जैसे कामों को भी सेवाभाव से करता है। जहाँ प्यार होता है वहाँ दूसरे विकारी भाव भी आते ही आते हैं और कई बार कुछ दूसरे अच्छे मनोभाव भी आ जाते हैं। प्रेम के साथ ईर्श्या, नफरत आना स्वाभाविक है तो त्याग और समर्पण भी सच्चे प्रेम के साथ आसरा पाते हैं। ये सभी भाव इंसान को इंसान बनाये रखते हैं, न वो देवता बन पाता है और न ही दानव।
बहरहाल, पारंपरिक प्रेमकथा होने पर भी मजेदार फ़िल्म है। पहला आधा भाग तो बेहद कसा हुआ और मनोरंजक है। संवादों से पैदा विद आपको बारबार हंसने पर मजबूर करता है। आनंद एल रॉय की पहली फ़िल्म 'तनु वेड्स मनु' की तरह इस फ़िल्म का निर्देशन भी बेहतरीन है। दूसरे भाग में राजनीति के गलियारे में घूमते हुए फिल्म थोड़ी भटकी है पर फिर भी हम अंत तक इसे देखने को लालायित रहते हैं। नायक के किरदार में धनुष की यह पहली बॉलीवुड फ़िल्म है और उनकी तारीफ में काफी कसीदे इन दिनों मीडिया में पढ़े जा रहे हैं और वे इसके हकदार भी हैं। सोनम कपूर का काम ठीक है पर वे अपनी सीमित प्रतिभा के दायरे में ही डोलती रहती है फिर भी निर्देशक ने उनके किरदार को मजबूती देकर उनसे अच्छा काम निकलवाया है। अभय देओल महत्वपूर्ण रोल में है और उन्होंने संक्षिप्त मगर अच्छा काम किया है। उन्होंने किसी भी तरह फ़िल्म के मुख्य किरदारों पे अतिक्रमण का प्रयास नहीं किया। अभिनय के मामले में सबसे दमदार काम किया है जीशान अयूब और स्वरा भास्कर ने जोकि फिल्म में नायक के दोस्त बने हुए हैं। ए आर रहमान का संगीत है पर उनके नाम के अनुरूप नहीं है...बनारस की गलियां और होली के दृश्यों को सिनेमेटोग्राफर ने बखूब फिल्माया है। कुल मिलाकर दर्शनीय फिल्म है जिसे ज़रूर देखा जाना चाहिए। इसे देखने के बाद यथार्थ की मजबूरियों में उलझा इंसान कुछ देर के लिये कल्पनालोक की मौज में तो आ ही जायेगा...और यही तो सिनेमा का उद्देश्य होता है................