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(ज़िंदगी के घरोंदे में मौजूदा दौर के घुटन भरे कमरों में राहत की हवा को महसूस करने के लिये, रूह की दीवार में लगे यादों के झरोखों को खोल अपने अतीत के नज़ारों से ठंडक को पाने के जतन कर रहा हूं और बस इसलिये पच्चीसी स्वांतसुखाय और स्वप्रेरणार्थ ही मुख्यता से लिखी जा रही है। लेकिन उन लोगो के लिये भी इसका महत्व कुछ कम नहीं है जिनके प्रेम की छाया में मैं कुछ सुकुन पा लेता हूँ और जिनके अतीत की झांकियां मेरे गुजश्ता दौर से मेल खाती हैं, जो इस पच्चीसी में खुद को पाते हैं। औपचारिकता को किनारे रख पच्चीसी के घटनाक्रम को आगे बढ़ाता हूँ...अन्यथा बातें तो यूंही चलती रहेंगी।)
गतांक से आगे-
ज़िंदगी जवानी की दहलीज पे दस्तक देेने के लिये खासी उत्सुक हो रही थी...पर अब तक जवां नहीं हुई थी। लेकिन यकीन मानिये सबसे ज्यादा नटखट अहसास जवां होने के तनिक पहले ही दिल में पैदा होते हैं। अंग्रेजी और संस्कृत साहित्य से बैचलर डिग्री कर रहा था तो शेक्सपियर, मारलो, कीट्स, शैली और वर्ड्सवर्थ जैसे कवियों का रोमांटिज्म सिर चढ़ रहा था तो दूसरी तरफ कालिदास, माघ और भास जैसे कवियों का साहित्य मन को और मनचला बना रहा था। प्रेम, दरअसल उम्र के पड़ाव की एक बेहद नैसर्गिक क्रिया होती है जब सहज पैदा हुए जज़्बात अपना आसरा जहाँ-तहाँ तलाशते हैं। प्रेम, का कोई निश्चित रूप नहीं होता और ये अहसास जीवन में पूर्व अनूभूत भी नहीं होते तो अक्सर इन अहसासों की तलाश कई मर्तबा हमको भटका देती है और वर्तमान की नवसंस्कृति प्रायः प्रेम की खोज शारीरिक आकर्षण या संभोग में तलाशती नज़र आ रही है क्योंकि वर्तमान का साहित्य और सिनेमा दोनों ही मजबूरन उस तरफ हमें धकेल रहा है। हालांकि दोष साहित्य या सिनेमा का नहीं है क्योंकि सांस्कृतिक बदलाव को जो रूप हमें इन पर देखने को मिल रहा है वो समाज का ही सच है पर diffusion of innovation के सिद्धांत को समझते हुए बात करें तो यह ज़रूर कहा जा सकता है कि प्रेम के कुत्सित रूप को व्यापक बनाने में ये निमित्त ज़रूर हैं।
बहरहाल, मैं इक्कीसवी शताब्दी में भी कालिदास और मिल्टन, मारलो, धर्मवीर भारती जैसे साहित्यकारों को पड़ रहा था। इसलिये मुझमें विकसित हुआ रोमांटिज्म चेतन भगत, रविंद्र सिंह जैसे लेखकों के साहित्य में उद्धृत रोमांटिज्म से काफी अलग था और बस इसलिये दिल में प्रेम को पाने की भावनात्मक तड़प तो थी पर उसमें वासनात्मक पक्ष काफी गौढ़ था। नहीं था ऐसा मैं नहीं कह सकता क्योंकि प्रेम का वृक्ष मन-मस्तिष्क और देह के सामुहिक उपक्रमों के उपरांत ही पल्लवित होता है। मन इसमें भावनात्मकता का संचार करता है, मस्तिष्क इसे बौद्धिक बनाता है और देह के कारण ये होता है वासनात्मक। हार्मोनल चेंजेस तो थे पर भावनात्मक पक्ष मजबूत होने के कारण कभी अपनी मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं किया और इन सब वजहों से ही कई मर्तबा अपने दोस्तों के बीच मैं गये-गुजरे सिद्धांतों को मानने वाला दकियानूस इंसान भी कहलाया गया।
मन ने विचलित होने की पुरजोर कोशिश की। जैसा मैंने ऊपर बताया न कि इस उम्र के जज़्बात अपना आसरा तलाशते हैं। कालिदास की एक उक्ति है 'कामी सुतां पश्यति' अर्थात् कामी व्यक्ति हर तरफ अपने अनुकूल चीजें तलाशता है। तो अब सिनेमा और संगीत की ओर भी बेइंतहा दिल ललचा उठा और खालिश प्रेमकथाओं में डुबी हुई फ़िल्में दिल को रुचने लगी, ऐसा प्रायः हर युवा के साथ होता है। लेकिन अभी तक मैंने अठारहवे बसंत को पार नहीं किया था इसलिये जो इन फिल्मों और साहित्य से सीखकर मन की व्याख्या होती थी वो बहुत ही सतही और भटकाने वाली होती थी। वास्तव में कच्ची उम्र और अनुभवहीनता के कारण युवाओं में जो बगावती तेवर पैदा होते हैं उसमें बहुत बड़ा हाथ फ़िल्मों और हमउम्र साथियों का ही होता है क्योंकि नासमझी की ये व्याख्याएं हमें कई बार इतना नीचे गिरा देती हैं कि जीवन में उनसे उबर पाना ही बहुत मुश्किल हो जाता है। यही कारण है कि ऐसे में माँ-बाप का सख़्त संरक्षण और अनुभव बहुत आवश्यक होता है। लेकिन इस कठिनतम दौर में मैं अपने माँ-बाप से कोसों दूर बैठा था भटकने की संभावनाएं प्रबल थी। लेकिन मैं शुक्रगुजार हूँ उस दौर के अपने दोस्तों का जिनकी संगति और मार्गदर्शन ने मुझे अपनी हदों में बांधे रखा।
मेरे साथ एक चीज़ हमेशा रही कि बेहद कम उम्र में शिक्षा अर्जित करते हुए मैं आगे बढ़ रहा था इसलिये जो सहपाठी मुझे मिलते थे वे उम्र में काफी बड़े और अनुभवी होते थे और एक बहुत बड़ा कारण यह भी रहा कि उनकी संगति के कारण मुझमें हमेशा उम्र से पहले ही कई चीज़ों को लेकर परिपक्वता आती रही। हालांकि बचकानी प्रवृत्तियां भी कम नहीं थी पर बौद्धिक तौर पर समझ ज़रूर कुछ जल्दी विकसित हो ही रही थी। यहाँ मैं अपने कुछ ऐसे ही दोस्तों को याद ज़रूर करना चाहुंगा। जिनमें सबसे खास थे अमित, रोहन, विक्रांतजी, सन्मति, विवेक, निपुण, जीतेन्द्र, अभय अंकित। हालांकि ये लिस्ट बहुत लंबी हो सकती है क्योंकि मेरी समझ और सीख के कारण कई मित्र हैं पर जिनके नाम यहाँ मैंने लिये उन्होंने मेरी नादानियों और नासमझियों को सबसे ज्यादा झेला। मेरे अत्यंत उजड्ड और अहंकारी स्वभाव को सहा और मेरे लाख बुरे बर्ताव के बावजूद ये मेरे साथ जुड़े रहे। लेकिन मेरी उन आदतों को सहते हुए मुझे समझाते रहे और दिल से मेरी तरक्की के सहभागी बने रहे।
चुंकि मेरी हॉस्टल लाइफ अब अपने अंतिम पड़ाव में चल रही थी इसलिये सभी से याराना कुछ ज्यादा ही हो गया था क्योंकि हम जानते थे कि अब अलग हुए तो फिर यादों में ही मुलाकात होगी वरना ज़िंदगी की व्यस्तताओं में दोस्तों की प्राथमिकता रह ही कहाँ जाती है। दोस्ती बस एक कोरी रस्म ही बनकर रह जाती है और यही सोचते हुए हम हर एक दिन, हर एक पल को खुल कर जीना चाहते थे और हररोज़ कुछ न कुछ तिकड़मी और अनोखा करने की जुगत में लगे रहते। स्नातक के अंतिम वर्ष के छात्र होने के कारण हम सबसे सीनियर छात्र हुआ करते थे और विभिन्न सांस्कृतिक, साहित्यिक एवं अन्य दूसरी गतिविधियों को करवाने का जिम्मा हम पर ही हुआ करता था। उस वर्ष मुझे औऱ मेरे मित्र रोहन को इन सब आयोजनों का प्रमुख नियुक्त किया गया था तो अधिकार और जिम्मेदारी का प्रथम अहसास तभी महसूस हुआ था। इन अधिकारों और जिम्मेदारियों के आने की वजह से रुतबा भी बड़ा हुआ लगता था और हम अपने ही अहंकार में फूले घूमते थे।
जो भी था, सब बड़ा मजेदार था और अब यादों के इन झरोखों से कूदकर वापस उन्ही दिनों को पा लेने की आरजू दिल में पैदा होती है पर हमेशा निर्मम यथार्थ हमें वर्तमान में खींच लाता है। वो नादानियां, वो वेबकूफियां भले कितनी ही नासमझ क्युं न हों पर उनका यादों में किया स्मरण बड़ा सुकून देता है और आज हम भले ही रुतबा, पैसा और अथाह प्रतिष्ठा पालें पर वो गुजरे दौर की ठलुआई सा मजा कभी नहींं दे सकती। हम आज तरक्की के जेट पर सवार हो भले देश-दुनिया की सैर कर आयें पर ये सब उस दौर की उस आवारगी के आनंद को छू भी नहीं सकती, जब हम दोस्तों के साथ नंगे पैर सड़कों पर टहला करते थे और सिटी बस में खड़े-खड़े धक्के खाया करते थे। वो दौर एक बार फिर अच्छे से जीने का जी करता है क्योंकि उस दौर को अक्सर हम बड़े और कामयाब बनने की चाह में यूं ही ज़ाया कर देते हैं। सच, चीज़ों की कीमत उनके दूर चले जाने के बाद ही समझ आती है............................
ज़ारी................